राजस्थान पत्रिका, 30 अप्रैल 2013
तिन तिब्बती बौद्धों ने पिछले सप्ताह तिब्बत में चीन के दमनात्मक शासन के प्रति अहिंसक विरोध व्यक्त करते हुए आत्मदाह कर लिया। तिब्बत पर चीन के कब्जे के विरोध में आत्मदाह करने वाले तिब्बतियों की संख्या 120 से ज्यादा हो चुकी है। आश्चर्य की बात है कि तिब्बत को स्वतंत्रता के महायज्ञ में आहूति देने वाले आहिंसक योद्धाओं की भस्म से अपना घरौंदा बनाने की चीन की कुचेष्टा पर भारत सरकार ने मौन धारण कर रखा है। इस मौन को तोड़े बिना न तो तिब्बत बच पाएगा और न ही भारत की संप्रभुता।
आखिर भारत इतना लाचार क्यों नजर आ रहा है। दर असल तिब्बत पर पंडित की कूटनीतिक अपरपिक्वता आज भारत के गले की फांस बन चुकी है। विदेशी नीति पर सर्वज्ञता के धमंड में चूर नेहरू तत्कालीन अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में लाल चीन को उसका जायज हक दिलाने की सनक में इतने व्यस्त हो गए कि चीन की काली करतूतों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर जबरन घुसकर उसकी कथित मुकित की घोषणा की, तो हर भारतीय के मन में एक ही प्रश्न था: किससे मुकित? गृह मंत्री सरदार पटेल ने उस समय नेहरू को चेताया था कि इस आक्रमाण ने चीन को भारत के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जिसके परिणाम गंभीर होगे। राममनोहर लोहिया ने तभी कह दयि था कि यह तिब्बत पर नहीं, भारत पर हमला है, पर सूझबूझ भरी सभी सलाहें हिन्दी-चीनी, भार्इ-भार्इ के नारों में दब कर रह गर्इं। 1962 में पंचशील का अव्यावहारिक सिद्धांत भी हिमालय की बर्फीली चोटियों में दफन हो गया।
यदि तिब्बत स्वतंत्र देश होता, तो भारत की सीमा तिब्बत से होती, न कि चीन से। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि चीन को आक्रमांता एव्र तिब्बत को एक स्वतंत्र देश घोषित किया जाए। भीमराव अंबेडकर का भी यह मत था कि 1949 में चीन को मान्यता देने की बजाय अगर भारत ने तिब्बत को मान्यता दी होती, तो चीन-भारत सीमा विवाद ही नहीं होता। यह भी दुर्भाग्य रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में अपनी चीन यात्रा के दौरान तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग करार दिया।
चीनपरस्त इतिहासकार और शोधकर्ता चाहे तथ्यों को कितना भी तोड़-मरोड़ कर क्यों न पेश करें, यह सच्चार्इ किसी से छिपी नहीं है कि तिब्बत सदियों से एक स्वतंत्र देश रहा है, लेकिन पराधीन तिब्बत में चीन के राक्षसी अनुष्ठान की गाथा बेहद दर्दनाक है। तिब्बत में चीन की निरकुशता का घिनौना कुचक्र भारत सरकार की खामोशी के अभाव में असंभव है।
चेयरमैन माओ मानते थे कि तिब्बत चीन की हथेली है और लददाख, नेपाल, सिक्कम, नेफा (अरुणाचल प्रदेश) इसकी अंगुलिया हैं। चीन हर मुमकिन स्थान पर भारतीय नेतृत्व की राजनीतिक इच्छाशकित की अगिनपरीक्षा लेता रहेगा। इसलिए वक्त आ गया है कि ऐतिहासिक भूल सुधारने की दिशा में कदम उठाया जाए। तिब्बत पर चीन की संप्रभुत्ता पर सवालिया निशान लगाना चाहिए, जिससे वह रक्षात्मक मुद्रा में आ जाए। यह कदम राजनय का ही आक्रामक स्वरूप है, लेकिल ढिलार्इ और नरमी को अपना वैचारिक आभूषण मानने वाली सरकार, जो अपने नागरिकों को सीमा के उल्लघंन की घटना पर उत्तेजित नहीं होने की सलाह देती रहे और राष्ट्रीय असिमता से ज्यादा बाजारवाद को अहमियत देती रहे, क्या उससे यह उम्मीद लगार्इ जा सकती है कि वह चीन को उसी भाषा में जवाब दे, जो वह अच्छी तरह समझता है। शकित की भाषा आज यही हमारी विदेश नीति का यक्ष प्रश्न है।