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30 अगस्त। संस्कृति विशेषज्ञ और एकमात्र तिब्बती-हिंदी शब्दकोश के रचयिता आचार्य रोशनलाल नेगी (किन्नौर) ने भारत तिब्बत मैत्री संघ द्वारा आयोजित एक आभासीय परिचर्चा में 22 अगस्त को इस बारे में एक व्याख्यान प्रस्तुत किया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता तिब्बती संसद के उपाध्यक्ष आचार्य येशी फुन्सुक (नूब्रा घाटी, लद्दाख) ने की। सारनाथ (वाराणसी) के तिब्बती उच्च बौद्ध विद्या संस्थान में लम्बे अरसे तक विद्यार्थी रहे रोशनलाल नेगी ने रेखांकित किया कि 86 साल की आयु वाले परम पावन दलाई लामा का तीन चौथाई जीवन भारत में बीता है और इस आधार पर वह अपने को ‘भारत की संतान’ बताते हैं और भारत-तिब्बत संबंध को‘गुरु-शिष्य’ संबंध मानते हैं। इससे बौद्ध संसार में भारत के गौरव का विस्तार हुआ है।
इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि दलाई लामा और तिब्बती आचार्यों ने अपने भारत-प्रवास के छह दशकों में बौद्ध संस्कृति की ‘नालंदा परम्परा’ को पुनर्जीवन प्रदान किया है। इससे हिमालय के विभिन्न प्रदेशों के बीच निकटता भी बढ़ी है। धर्म अध्ययन, दर्शन-विवेचना, चिकित्सा विज्ञान का सदुपयोग,साहित्य संवर्धन और भाषा प्रशिक्षण इसके पांच प्रमुख पक्ष हैं। बौद्ध जीवन दर्शन की बढ़ती लोकप्रियता में हिमालय के दुर्गम प्रदेशों में स्थित प्राचीन मठों से लेकर कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय कालचक्र प्रवचन आयोजन और बौद्ध अध्ययन शिविरों की निरन्तरता एक प्रमुख माध्यम बना है। दलाई लामा ने स्व-धर्म निष्ठा के साथ ही सर्वधर्म संवाद को भी प्रोत्साहित किया है और इससे भारत की आध्यात्मिक धाराओं के बीच आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला है।
रोशनलाल नेगी के अनुसार दलाई लामा ने आध्यात्मिकता, अहिंसा और मैत्री के संदेश को प्रवहमान बनाये रखा है। तिब्बती समुदाय के लिए विभिन्न प्रदेशों में बनाये गये आवास क्षेत्र शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और अहिंसक जीवन शैली के जीवंत उदाहरण हैं। अपनी राजनीतिक कठिनाइयों के बावजूद भारत में रह रहे तिब्बती समुदाय की जीवन शैली में पारंपरिक साधना पद्धति और आधुनिक कला-कौशल का सुंदर समन्वय है। दलाई लामा और तिब्बती प्रवासियों ने देश और दुनिया में वसुधैव कुटुम्बकम के आदर्श और प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण चेतना के आन्दोलनों को नैतिक बल दिया है।
परिचर्चा में योगदान करते हुए समाजवादी जन परिषद के अजय खरे (रीवा) ने दलाई लामा को गांधी बाद के भारत में सत्य, सद्भाव और अहिंसा का सबसे बड़ा मार्गदर्शक बताया। समाजशास्त्री डॉ. मनोज कुमार (दिल्ली) ने कहा कि दलाई लामा की शिक्षाओं से प्राणी मात्र की एकता और स्त्री-पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य दोनों के प्रति जागरूकता बढ़ी है। तिब्बत समर्थक भारतीय महिला मंच की रेशमबाला (जोधपुर) ने दलाई लामा को भारत-तिब्बत मैत्री का महा-प्रवर्तक बताया। लोकनायक जयप्रकाश अध्ययन संस्थान के निदेशक अभय सिन्हा (फरीदाबाद) के अनुसार दलाई लामा आधुनिक दौर में सत्य-अहिंसा-करुणा के आकर्षक संगम हैं। सचिन रामटेके (नागपुर) के अनुसार दलाई लामा ने बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा भारत में 1956 में बौद्ध धर्म को पुन:स्थापित करने के अभियान को दशकों से बिना साम्प्रदायिक टकराहट के जीवंत बनाये रखा है। संवाद में डॉ. राहुल मिश्र (लेह), कृष्णवल्लभ प्रसाद यादव (नवादा), अमृत बनसोड (भंडारा), ब्रजेश शर्मा (सीतामढ़ी), शिखा घोष (भागलपुर), उत्पल कुलकर्णी (पुणे), अमित ज्योतिकर (अहमदाबाद), और तेनजिन (दिल्ली) ने भी हिस्सा लिया।
भारत-तिब्बत समन्वय केंद्र के निदेशक जिग्मे त्सुल्त्रिम ने तिब्बत मुक्ति साधना में भारत के सहयोग को अमूल्य बताते हुए कहा कि दलाई लामा जी को भारत में हर स्तर पर अपार सम्मान का भाव नयी पीढ़ी के तिब्बती युवाओं के लिए आत्मविश्वास का आधार है। वैसे भी तिब्बती लोगों के लिए भारत में बेहद सहानुभूति है। इससे हमारी स्वतंत्रता की आशा जीवित है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में तिब्बती मुक्ति साधक आचार्य येशी फुन्सुक ने दलाई लामा के योगदान की चर्चा का स्वागत करते हुए अपनी शिक्षा-दीक्षा में वाराणसी के भारतीय आचार्यों से मिले स्नेह और ज्ञान का दृष्टांत दिया और कहा कि भारत में जनमे तिब्बती स्त्री-पुरुषों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण की प्रगति से लगातार प्रेरणा मिलती है। दलाई लामा जी भी अपने हर विदेशी व्याख्यान में भारतीय धर्म-दर्शन परम्परा और लोकतंत्र रचना के आधुनिक प्रयास को अनुकरणीय बताते हैं। इसीलिए दलाई लामा समेत प्रत्येक प्रवासी तिब्बती को भारत का संदेशवाहक होने का गर्व है।