abplive.com, राहुल कश्यप
१४ सितंबर २०२१
तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र की राजधानी ल्हासा में ०१ जून २०२१ को ऊंचाई वाले क्षेत्रों के छात्रों के लिए ऑफ-साइट स्कूली शिक्षा कार्यक्रम के दौरान नागकू हाईस्कूल में पत्रकारों के सरकार द्वारा आयोजित यात्रा के अवसर पर तिब्बती छात्रों को स्कूल से छुट्टी के समय चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के एक विशाल पोस्टर के पास से गुजरते हुए दिखाया गया है।
१९५१ में दुनिया की छत पर धरती के सबसे शांतिपूर्ण लोगों पर एक त्रासदी टूट पड़ी थी। इस ग्रह के इतिहास में इसे विडंबना ही कही जाएगी कि सबसे क्रूर शासनों में से एक क्रूर शक्ति द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर इसे ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ की संज्ञा दी गई। इस कृत्य से शर्म भी शर्मसार हो गया होगा।
भारत और चीन दोनों का कई हजार साल पुराना सभ्यतागत इतिहास है, लेकिन लगभग ४००० किलोमीटर लंबी सीमा पर इन दोनों देशों के बीच कभी सीमाई साझेदारी नहीं रही।
तिब्बत पर कब्ज़ा करने और बहुसंख्यक बौद्धों के अधिकारों को कुचलने के बाद ही बीजिंग (तब पेकिंग) के साथ भारत को मजबूरी में सीमा साझा करनी पड़ रही है।
तिब्बती बौद्धों पर आक्रमण और उसके बाद की अधीनता इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक है कि कैसे एक क्रूर माओवादी पार्टी-सरकार ने मूल निवासियों के मौलिक और प्राकृतिक अधिकारों पर कहर बरपाया।
यूएनएचसीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, इतिहास के सबसे बुरे नरसंहारों में से एक में अकेले मार्च १९५९ और अक्तूबर १९६० के बीच ८७,००० से अधिक तिब्बती मारे गए। अट्ठानवे प्रतिशत मठों और भिक्षुणी विहारों को नष्ट कर दिया गया, और ९९ प्रतिशत भिक्षुओं और भिक्षुणियों को हटा दिया गया।
गलवान में संघर्ष की ताजा यादें और वहां से सेनाओं को पीछे हटाने को लेकर चल रही बातचीत की कछुआ चाल के साथ, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की इस साल जुलाई में तिब्बत की हालिया यात्रा ने भारत में कई पंख कतर दिए हैं।
किसी राष्ट्रपति की ३० वर्षों में तिब्बत की पहली यात्रा भारत के लिए संदेशों से भरी हुई थी। यह यात्रा तिब्बत की राजधानी ल्हासा और अरुणाचल प्रदेश के नजदीक निंगची शहर के बीच बुलेट ट्रेन के उद्घाटन के तुरंत बाद हुई। इसने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी समारोह के हिस्से के रूप में बताया गया।
यात्रा के दौरान उन्होंने तिब्बत के विकास के बारे में बात की। हालांकि, तथ्य यह है कि कथित विकास ने तिब्बत के पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है और यह भारत के लिए एक गंभीर खतरा भी है। विनाश की सीमा इतनी अधिक है कि जनसंहार के बाद कहा जाता है कि तिब्बत अब ‘पारिस्थितिकी’ का सामना कर रहा है।
‘मेल्टडाउन इन तिब्बत: चाइनाज रेकलेस डिस्ट्रक्शन ऑफ इकोसिस्टम्स फ्रॉम द हाइलैंड्स ऑफ तिब्बत टू द डेल्टास ऑफ एशिया’ पुस्तक में माइकल बकले लिखते हैं, ‘तिब्बत की विशाल नदियों को चीनी इंजीनियरिंग कंसोर्टियम द्वारा सत्ता की खातिर मुख्य भूमि की प्यास बुझाने के लिए क्षतिग्रस्त किया जा रहा है और चीन के औद्योगिक परिसर को आपूर्ति करने के लिए खनिजों की तलाश में भूमि का लगातार खनन किया जा रहा है।
अपनी चल रही १४वीं पंचवर्षीय योजना के हिस्से के रूप में यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र नदी की ऊपरी धारा) पर एक विशाल बांध को मंजूरी दे दी गई है, जिससे चीन के बारे में बहस शुरू हो गई है कि जल्द ही इस विशाल नदी के महान घाटी में जलविद्युत क्षमता शुरू हो जाएगी। इस बांध से हर साल ३०० अरब किलोवाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है।
भारत के लिए ब्रह्मपुत्र का बहुत महत्व है। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह देश के मीठे पानी के संसाधनों का लगभग ३० प्रतिशत और इसकी कुल जलविद्युत क्षमता का ४४ प्रतिशत को पूरी करता है। कई नदियों के ऊपरी तटवर्ती देश चीन की स्थिति भारत की स्थिति को कमजोर बनाती है।
जबकि भारत ने ग्रैंड वेस्टर्न वाटर डायवर्जन प्रोजेक्ट (या शूओटियन कैनाल) और रेड फ्लैग रिवर प्रोजेक्ट के माध्यम से चीन द्वारा नदी के पानी को सूखाग्रस्त क्षेत्रों की ओर मोड़ने के बारे में कई बार अपनी चिंताओं को व्यक्त किया है, लेकिन पहले से ही भारतीय सीमाओं के नजदीक तीन परियोजनाओं सहित ऊपरी इलाकों में छह जलविद्युत परियोजनाएं हैं।
तिब्बती पठार पर होने वाले पर्यावरणीय विनाश एक ऐसा विषय है जिसके बारे में वैश्विक समुदाय को चिंतित होना चाहिए। चीन के तिब्बत पर कब्जे का विरोध न करने की कीमत भारत अब भी चुका रहा है।
हम अक्सर भारत और चीन के बीच स्पष्ट अंता को भूल जाते हैं। हम एक संपन्न लोकतंत्र हैं जबकि चीन एक सत्तावादी पार्टी संचालित देश है। यह समझने वाली बात है कि इसीलिए भारत द्वारा लगातार न छेड़ने की कोशिश करने के बावजूद चीन ने स्पष्ट रूप से ‘अमित्र’ नीति अपनाई है। यह अमित्रता चाहे जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश में लगू हो, या पूर्वोत्तर में विद्रोह को समर्थन प्रदान करना हो।
कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओ-त्से-तुंग ने कहा था, ‘तिब्बत वह हथेली है जिस पर अगर हम अधिकार कर लेते हैं तो फिर हम- लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश रूपी पांच अंगुलियों तक पहुंच जाएंगे।
तिब्बत पर चीनी कब्जे का विरोध न करने की कीमत भारत को चुकानी पड़ रही है, गलवान संघर्ष शृंखला में नवीनतम है। जबकि यह सूची लंबी है – २०१३ (चुमार), २०१४ (देप्सांग), २०१७ (डोकलाम) और १९६२ के आक्रमण को नहीं भूलना चाहिए।
हालांकि, गलवान में किए गए दुस्साहस को मिले जवाब ने चीनी प्रतिष्ठान को आश्चर्यचकित कर दिया। उसे उम्मीद नहीं थी कि भारत इस तरह के संकल्प और पराक्रम के साथ उसके विस्तारवाद का डटकर मुकाबला करेगा। जबकि बीजिंग उन क्षेत्रों से हिलना नहीं चाहता है, जहां उसने अतिक्रमण किया है। इस बात की भी थोड़ी से आशंका है कि वह फिर से वही दुस्साहस करेगा। यह आशंका भारत की ओर से सैनिकों की भारी तैनाती के कारण हो रही है।
हालांकि, यह भी एक तथ्य है कि सैन्य गतिरोध को छोड़कर नई दिल्ली को अभी तक प्रतिरोध के सही भू-रणनीतिक उपकरण नहीं मिले हैं। तिब्बत कई लोगों के लिए एक ‘कार्ड’ हो सकता है, यह निश्चित रूप से एक ऐसा मुद्दा है जिसे भारत को सक्रिय रूप से संभालने की आवश्यकता है।
इसलिए, यह उचित समय है कि भारत अपनी तिब्बत नीति पर फिर से विचार करे और निर्वासित तिब्बती सरकार को मान्यता दे। उसे तुरंत हिमालय की सीमा को भारत-तिब्बत सीमा कहना शुरू कर देना चाहिए। भारत को दृढ़ता से कहना चाहिए कि १९१४ में मैकमोहन रेखा की तिब्बत द्वारा पुष्टि की गई थी और उस समय चीन कहीं नहीं था।
इससे साबित होता है कि ‘तिब्बत कम से कम स्वतंत्र देश था।’
तिब्बत पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का आधार इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि ‘नरसंहार किए गए थे’ और यह कि ‘चीन द्वारा १९५१ में कब्जा किए जाने से पहले तिब्बत कम से कम एक स्वतंत्र देश तो था।’
तिब्बत से एक ही धार्मिक परंपरा से जुड़े भारत को तिब्बती लोगों की मित्रता और उनका समर्थन मिलता है, जिनके भारतीय इतिहास के साथ संपर्क जुड़े हुए हैं और बौद्ध धर्म के माध्यम से ऐतिहासिक संबंध हैं।
परम पावन दलाई लामा तिब्बत के समान ही भारत के पुत्र हैं।
पीछे मुड़कर देखें तो १९९५ में एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में कहा गया था, ‘असंतोष का दूसरा हालिया स्रोत तिब्बत में गैर-तिब्बती बसने वालों, मुख्य रूप से हान (चीनी नस्ल) और हुई (चीनी मुस्लिम अल्पसंख्यकों में से एक) की संख्या में भारी वृद्धि है। इनकी उपस्थिति को कई तिब्बतियों द्वारा तिब्बती राष्ट्रीय पहचान के लिए खतरा माना जाता है। हान और हुई बसने वालों को आर्थिक खतरे के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि उनमें से कई दुकानें और जमीन खरीदने के लिए तिब्बत आते हैं।
चीनी दण्ड से मुक्ति, लोहे के पर्दे के पीछे अधिकारों के बेरहम उल्लंघन और चीन द्वारा वैश्विक चिंताओं की घोर अवहेलना की वास्तविक कहानियां तो तब सामने आएंगी जब तिब्बत वास्तव में मुक्त होगा और लोगों को लौह कठोर शासन का डर नहीं रहेगा।
इस समय तिब्बती जीवन का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जो दांव पर न लगा हो। इसे समझने के लिए इससे बेहतर तरीके से तुलना नहीं हो सकती है कि तिब्बतियों को उनके चीनी समकक्षों की तुलना में और भी कम नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्रदान किए गए हैं।
जब पूरी दुनिया में मानवाधिकारों को सभी के लिए अपरिहार्य मौलिक अधिकारों के रूप में देखा जाता है, ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि चीनी पार्टी नियंत्रित शासन इसे ‘अपनी शक्ति के अस्तित्व के लिए एक संभावित खतरे के रूप में देखता है’।
‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ ने अपने ‘प्रेस फ्रीडम इंडेक्स २०२०’ में १८० देशों की सूची में चीन को १७७वें स्थान पर रखा है। तिब्बत में लौह घेरेबंदी की वास्तविकता यह है कि उत्तर कोरिया में तिब्बत से अधिक विदेशी पत्रकार आते-जाते रहते हैं और विदेशियों के आवागमन के मामले में तिब्बत इस स्टालिनवादी देश की तुलना में अधिक दुर्गम है।
मार्च २०२१ में आई फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में भी तिब्बत को सीरिया के बाद सबसे कम मुक्त देश के रूप में वर्णित किया गया है।
इंडियन एक्सप्रेस ने निर्वासित तिब्बती सरकार के हवाले से रिपोर्ट प्रकाशित किया है कि चीनी उत्पीड़न के विरोध में २००९ और २०१९ के बीच २६ महिलाओं सहित कम से कम १५४ तिब्बतियों ने आत्मदाह कर लिया।
तिब्बत पर अमेरिकी नीति अब स्पष्ट है
भारत को स्वाभाविक रूप से इस मुद्दे पर नेतृत्व करना चाहिए था और बीजिंग के खिलाफ एक कूटनीतिक अभियान शुरू करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाये पिछले अक्तूबर में ४०पश्चिमी देशों ने अल्पसंख्यक समूहों के साथ दुर्व्यवहार के लिए चीन की निंदा की थी। तिब्बत पर अमेरिकी नीति अब स्पष्ट है और इसने मानवाधिकारों के हनन पर चीन से जवाबदेही दिखाने की मांग की है।
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने वरिष्ठ चीनी राजनयिक यांग जिएची से बातचीत में इस मुद्दे को उठाया।
अमेरिका ने कंसोलिडेटेड एप्रोप्रिएशन ऐक्ट- २०२१ (समेकित विनियोग अधिनियम) पारित किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘अमेरिकी विदेश मंत्री तिब्बत में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की निगरानी के लिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीन जनवादी गणराज्य, चेंगदू स्थित अमेरिकी महावाणिज्य दूतावास का शाखा कार्यालय स्थापित करने के लिए प्रयास करेंगे।’
तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट- २०२० की एक उपधारा में इस मांग में एक और चेतावनी है कि ‘विदेश मंत्री अमेरिका में आगे तब तक चीन को किसी भी अन्य वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति नहीं दे सकते हैं, जब तक कि तिब्बत के ल्हासा में अमेरिका का वाणिज्य दूतावास स्थापित नहीं हो जाता है।’
पिछले साल सितंबर में, चीन पर अमेरिकी कांग्रेस-कार्यकारी आयोग ने कहा था, ‘चीनी सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी तिब्बती बौद्ध धर्म का ‘चीनीकरण’ करने के लिए बड़ा अभियान चला रही हैं। वे तिब्बती धार्मिक संस्थानों और समुदायों को कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी नीतियों का समर्थन करने के लिए मजबूर कर रही हैं। चीनी अधिकारियों का दावा है कि उनके पास भविष्य के १५वें दलाई लामा सहित सभी धार्मिक हस्तियों के पुनर्जन्म को चयनित और चिह्नित करने का एकमात्र अधिकार है। उसने १९९५ से तिब्बत के दूसरे सर्वोच्च धार्मिक नेतृत्व पंचेन लामा को गायब कर दिया था। इससे वह दुनिया के सबसे लंबे समय तक अज्ञातवास में रहने वाले कैदियों में से एक बन गए हैं।
अमेरिका की तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘तिब्बती बौद्ध धर्मगुरुओं के चयन, शिक्षण और पूजा के संबंध में निर्णय विशेष रूप से आध्यात्मिक मामले हैं जिन्हें तिब्बती बौद्ध परंपरा के भीतर तिब्बती बौद्ध धर्म के उचित धार्मिक अधिकारियों द्वारा और साधकों की खुद की इच्छा के अनुरूप ही किया जाना चाहिए।’
चीनी सरकार राजनीतिक आलोचना के प्रति असहनशीलता है जिस कारण हिंसा, मनमानी गिरफ्तारी, नजरबंदी और यातना की स्थिति आती है। प्रगतिशील आधुनिक दुनिया को यह जानकर नफरत होनी चाहिए कि चीनी सरकार ‘सामाजिक आकलन प्रणाली’ लागू कर रही है जिसके तहत व्यक्तियों के आकलन मूल्यांकन, उपभोक्ता व्यवहार, इंटरनेट उपयोग और आपराधिक रिकॉर्ड के आंकड़े एकत्र किया जाता है और अंत में नागरिकों को ‘विश्वसनीयता’ के संबंध में मूल्यांकन करता है।
इसलिए भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह तिब्बती मुद्दे का समर्थन करे, अपनी तिब्बत नीति पर फिर से विचार करे। चीन की नाराज़गी का अब कोई डर नहीं है। अमेरिका की स्थिति पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है। अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के सैन्य गठजोड़ ‘क्वाड’ का गठन, नई दिल्ली की स्थिति को पहले से कहीं अधिक मजबूत बनाता है, जो कि अब तक की मानसिकता के ठीक उलट है।
(राहुल कश्यप पूर्व पत्रकार हैं। वह सार्वजनिक मामलों और अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं।)
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