तिब्बत.नेट, 13 दिसंबर, 2018
मुंबई। आज की दुनिया में प्राचीन भारतीय परंपरा को सर्वाधकि प्रासंगिक मानते हुए परमपावन दलाई लामा ने कहा कि पारंपरिक ज्ञान भावनात्मक संकट से निपटने का साधन प्रदान करता है और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के साथ जुड़ जाने पर यह शांति और खुशी सुनिश्चित कर सकता है।
परम पावन ने मुंबई के गुरु नानक कॉलेज ऑफ आर्ट्स, साइंस एंड कॉमर्स में आज (13 दिसंबर) सुबह छात्रों और कर्मचारियों के बीच करुणा और वैश्विक जिम्मेदारी की आवश्यकता विषय पर “सिल्वर लेक्चर सीरिज” के तहत व्याख्यान दे रहे थे।
परम पावन ने कहा कि आमतौर पर केवल शैक्षिक उपलब्धियों से संबंधित रहनेवाली शिक्षा के साथ-साथ समाज को अधिक परोपकारिता विकसित करने की आवश्यकता है और विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन करने वाली युवा पीढ़ी के मन में दूसरों के प्रति सहानुभूति और जिम्मेदारी की भावना विकसित करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा, ‘आज की दुनिया में यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने सात अरब मनुष्यों को भाई-बहन के रूप में पहचानें। मनुष्य के रूप में हम सभी की न केवल इच्छाएं एक समान है, बल्कि खुश रहने का अधिकार भी एकसमान ही है। हालांकि, हम राष्ट्रीयता, धार्मिक विश्वास और इसके अलावा अन्य तरह के मतभेदों से ग्रस्त हैं, जो हमें ‘हमारा’ और ‘उनका’ के रूप में विभाजित करने के लिए प्रेरित करते हैं। हम इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि गहरे स्तर पर हम सभी मानव होने के नाते एक समान हैं और इसलिए एक-दूसरे से लड़ने और मरने-मारने का कोई औचित्य नहीं है।’
उन्होंने कहा कि नैतिकता की भावना की कमी से उत्पन्न होने वाले भावनात्मक संकटों को कम करने में भौतिक जीवन और भौतिकवादी दृष्टिकोण जरा भी मदद नहीं पाएंगे।
परम पावन ने कहा कि ‘इसीलिए मौजूदा शिक्षा में आपके (भारतीय) अपने 1000 साल के ज्ञान को शामिल किया जाना चाहिए कि विशेष रूप से करुणा, अहिंसा के मूल्य के तहत व्यक्ति के दिमाग को कैसे समझा जाए और दिमाग की शांति को कैसे कायम किया जाए।’
‘अगर हम इन्हें अपनी शिक्षा में शामिल कर सकते हैं तो अगली पीढ़ी जो इस तरह की समेकित शिक्षा प्राप्त करेगी, वह बड़ा होकर एक सफल और करुणामय पेशेवर, एक करुणा से पूर्ण डॉक्टर, करुणामय इंजीनियर, करुणामय शिक्षक आदि बन जाएंगी।’
‘इसमें समय लगेगा लेकिन हमें अभी काम शुरू करना चाहिए।’ उन्होंने आगे यह कहते हुए कि ‘हम में से प्रत्येक के पास जन्म से करुणा का बीज है’। उनहोंने आशा व्यक्त की कि सभी मानव प्राणी प्यार और करुणा को बढ़ावा देने में सक्षम हैं। ‘अपने कारण और बुद्धिमत्ता का उपयोग करते हुए हम अपनी करुणा की भावना को बढ़ा सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि इसका विपरीत कारक क्रोध हमारे लिए हानिकारक कैसे है।’
‘दया और करुणा आत्मविश्वास को बढ़ावा देती है, जो बदले में आपको ईमानदार, सच्चा और पारदर्शी होने का अधिकार देती है। यह आत्मविश्वास मन की शांति लाता है, जो अच्छे स्वास्थ्य का भी आधार है। इस तरह हम खुशहाल व्यक्ति, खुशहाल परिवार, खुशहाल समाज और आखिरकार एक खुशहाल दुनिया का निर्माण कर सकते हैं।’
प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान परम पावन ने तिब्बत के भविष्य के बारे में सवालों के जवाब दिए और इस जिज्ञासा का समाधान किया कि तिब्बती बौद्ध परंपरा में भिक्षुणी व्यवस्था क्यों नहीं रही है।
तिब्बती मुद्दे पर परम पावन ने कहा कि तमाम कष्टों का सामना करने के बावजूद तिब्बतियों की भावना अटूट है और मजबूत बनी हुई है। चीनी कट्टरपंथी तिब्बती भाषा और संस्कृति को दबाने में असफल रहे हैं। इन दिनों तिब्बती बौद्ध परंपरा की सराहना करने के लिए चीनी बौद्ध तेजी से आगे आ रहे हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि चीजें बदल रही हैं और अधिनायकवादी व्यवस्था का कोई भविष्य नहीं है।
उन्होंने कहा कि वह अपने प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण के लिए बोलने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्होंने एक चीनी पारिस्थितिकी विज्ञानी के अवलोकन का उल्लेख किया कि तिब्बत उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के रूप में वैश्विक जलवायु के संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए उन्होंने इसे तीसरे ध्रुव के रूप में संदर्भित किया।
उन्होंने कहा कि वे तिब्बत के दर्शन, मनोविज्ञान और तर्क के ज्ञान को जीवित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं, साथ ही साथ तिब्बती भाषा जिसमें यह सबसे सटीक रूप से व्यक्त की जाती है।
श्रोताओं के एक ने पूछा कि शांतरक्षित द्वारा स्थापित मुलसर्वास्तिवादी मठवासी तिब्बती परंपरा में पूरी तरह से व्यवस्थित भिक्षुणी परंपरा क्यों नहीं रही हैं?
उन्होंने इसका उत्तर देते हुए कहा, ‘उस परंपरा के अनुसार भिक्षुणियों के समन्वय के लिए भिक्षुणी मठाधीश की उपस्थिति की आवश्यकता होती है और हाल के वर्षों में ऐसा कोई भी व्यक्ति तिब्बत नहीं आया। हालांकि, कुछ तिब्बती भिक्षुणियां चीनी परंपरा में शामिल हो गई हैं।’
अतीत में, तिब्बती भिक्षुणियां आमतौर पर उच्च स्तरीय अध्ययन नहीं करती थीं, लेकिन पिछले 40 वर्षों में परम पावन ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। नतीजतन, अब ऐसी भिक्षुणियां आगे आई हैं जिन्हें गेशे-मा की उपाधि से सम्मानित किया गया है। यह दर्शाता है कि उनके पास भिक्षुओं के बराबर और उनके समान प्रशिक्षण और ज्ञान है।
अपनी दूसरी प्रतिबद्धता-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने पर बोलते हुए तिब्बती आध्यात्मिक धर्मगुरु ने गुरु नानक के लिए अपनी गहरी श्रद्धा व्यक्त की, जो हिंदू पृष्ठभूमि से आए थे और सम्मान की निशानी के रूप में मक्का की तीर्थयात्रा की। उन्होंने कहा, क्या शानदार इशारा है।
‘जब भारत धार्मिक समझ की बात करता है तो अहिंसा, करुणा की प्रथा को दुनिया के बाकी हिस्सों के लिए एक उदाहरण देता है।’
‘हमें यहां और अब 21 वीं सदी में ऐसे गुणों की आवश्यकता है क्योंकि मनुष्य के रूप में हम अनिवार्य रूप से एक ही हैं और हम सभी को इस छोटे से ग्रह पर साथ ही रहना होगा।’