तिब्बत.नेट, 24 जनवरी, 2019
धर्मशाला। परमपावन दलाई लामा ने प्रस्ताव दिया कि आधुनिक भारत में मन और भावनाओं, कारण और तर्क की प्राचीन भारतीय समझ को पुनर्जीवित करना एक ऐसा योगदान है, जिसे तिब्बती लोग कर सकते हैं।
परमपावन दलाई लामा ने आज (24 जनवरी) सुबह अपने निवास पर भारतीय विद्वानों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत में इस बात पर जोर दिया कि यद्यपि इस तरह के ज्ञान का विकास भारत में हुआ, लेकिन यहां के लोगों में समय के साथ इसमें रुचि कम हो गई। जबकि, हम तिब्बतियों ने इसे जीवित रखा है और इसे इसके उत्पत्ति स्थान पर वापस लेकर आए हैं।
उन्होंने कहा, ‘चीन में लाखों बौद्ध हैं लेकिन वे बौद्ध दर्शन और तर्क के अध्ययन पर ध्यान नहीं देते हैं। दूसरी ओर तिब्बतियों ने केवल बौद्ध तर्क और दर्शन के अध्ययन का अनुसरण किया है और हम हमेशा अपनी खोज में तार्किक दृष्टिकोण का उपयोग करते हैं।’
परम पावन ने इस बात का उल्लेख किया कि भारत में पुन: स्थापित मठ-विश्वविद्यालयों में 10,000 भिक्षु और भिक्षुणियां हैं, जो प्राचीन भारतीय ज्ञान को सिखाने के लिए प्रशिक्षित और सुसज्जित हैं।
‘अब हमारे पास दस हजार भिक्षु हैं जिन्होंने बीस से तीस वर्षों से इस परंपरा का अध्ययन किया है।’ उन्होंने कहा कि वे भारतीयों के बीच प्राचीन ज्ञान को पढ़ाने के लिए उपलब्ध हैं। मुझे उम्मीद है कि इस ज्ञान का उपयोग हमारे भारतीय दोस्तों द्वारा किया जाएगा।’
उम्र की 83वें वर्ष की दहलीज पर पहुंच चुके परम पावन ने कहा कि मठवासी समुदाय की मदद से उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्ष समझदारी के आधार पर शिक्षा के माध्यम से प्राचीन भारतीय ज्ञान को पुनर्जीवित करने के प्रति खुद को समर्पित कर दिया है।
‘मेरी नवीनतम प्रतिबद्धता शिक्षा के माध्यम से इस ज्ञान को पुनर्जीवित करना है, न कि पूजा के माध्यम से। बेशक यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन वास्तविक संस्कृति वह ज्ञान है जो भीतर में है। यह भारत की संस्कृति है।’
उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय ज्ञान न केवल प्रासंगिक है बल्कि आज की दुनिया में मूल्यवान है जहां के समाज बुनियादी तौर पर भावनात्मक संकट का सामना कर रहे हैं।
नालंदा परंपरा में केवल धर्म के रूप में बौद्ध धर्म की व्याख्या शामिल नहीं है। बल्कि इसमें मानव मनोविज्ञान, भावनाओं और उनसे निपटने के तरीके के बारे में भी गहन व्याख्या शामिल है।’
बौद्ध ग्रंथों के पूरे कोष को तीन में वर्गीकृत किया जा सकता है- विज्ञान, मुख्य रूप से मन और भावना, दर्शन और धर्म। परम पावन ने जोर दिया कि इनमें से बौद्ध विज्ञान और दर्शन को शिक्षा प्रणाली में मानव मन और भावनाओं से संबंधित एक अकादमिक विषय के तौर पर पेश किया जा सकता है।
खुद को नालंदा परंपरा का शिष्य बताते हुए उन्होंने उन भारतीय बहुश्रुत विद्वानों को श्रद्धांजलि दी, जिन्होंने तिब्बत में नालंदा परंपरा की शुरुआत की थी। ‘आठवीं शताब्दी में तिब्बती सम्राट ने चीनी राजकुमारी से विवाह किया था, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि सबसे प्रामाणिक और उन्नत बौद्ध परंपरा नालंदा में मौजूद है। इसलिए उन्होंने शीर्ष विद्वान और तर्कशास्त्र के विद्वान शांतरक्षित को आमंत्रित किया, जिन्होंने तिब्बत में नालंदा परंपरा के अनुसार बौद्ध धर्म की शुरुआत की।’
परम पावन ने अंत में कहा, ‘भारत का प्राचीन ज्ञान आज की दुनिया के लिए बहुत उपयोगी है। लेकिन अन्य देशों की मदद करने से पहले इस ज्ञान को इस देश में पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। आप भारतीय कृपया अपने अंदर की दुनिया में अपने प्राचीन ज्ञान पर अधिक ध्यान दें। आंतरिक शांति के बिना हम बाहरी शांति प्राप्त नहीं कर सकते।’ भारतीय प्रतिनिधिमंडल वर्तमान में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन
के तिब्बत पॉलिसी इंस्टीट्यूट द्वारा तिब्बती अध्ययन पर आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में भाग ले रहा है।
इस सम्मेलन में 13 विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों से 22 प्रतिभागी हिस्सा ले रहे हैं। इनमें प्रोफेसर, सहायक प्रोफेसर, पीएचडी और एम फिल के शोधछात्र शामिल हैं। इनमें पश्चिम बंगाल का शहीद खुदीराम कॉलेज, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन, गांधीग्राम रूरल इंस्टीट्यूट, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास, नालंदा विश्वविद्यालय, साउथ एशियन यूनीवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, नई दिल्ली और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्वान शामिल हैं।