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पुडुचेरी। निर्वासित तिब्बती संसद ने पुडुचेरी के श्री अरविन्दर शिक्षण संस्थान के सहयोग से 4 फरवरी को श्री अरविन्दर इंजीनियरिंग कॉलेज में एक पैनल परिचर्चा का आयोजन किया( इसका शीर्षक था- “भारत के लिए तिब्बत मुद्दा कितना महत्वपूर्ण है”।
इस पैनल चर्चा में पैनलिस्ट, विद्वान, प्रोफेसर, शोधकर्ता, श्री अरविंद्र इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र, ऑरोविले में स्थित तिब्बती संस्कृति मंडप के छात्र और कर्मचारी, स्थानीय मीडियाकर्मी और तिब्बत संसद की आयोजन समिति के सदस्य, जिसमें डिप्टी स्पीकर आचार्य येशि फुंट्शोक शामिल थे, ने भाग लिया। सांसद गेशेमोनलम थारचिन, सांसद ग्वेत्संग न्गवांग थारपा और संसदीय सचिवालय स्टाफ तेनजिन शेरप आदि ने हिस्सा लिया।
डिप्टी स्पीकर आचार्य येशि फुंट्सोक ने पैनल चर्चा के उद्देश्यों के बारे में बताया और प्रत्येक पैनलिस्ट का परिचय दिया।
तिब्बत और चीन मामलों के विद्वान श्री क्लाउडे अर्पि ने पैनल चर्चा की अध्यक्षता की और तिब्बत के मुद्दे के महत्व पर प्रकाश डाला।
इसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल एन.एस. मलिक (भारतीय सेना के पूर्व उप प्रमुख) ने ‘तिब्बत पर भारतीय सुरक्षा के प्रभाव’विषय पर अपनी बात रखी और बताया कि किस तरह से तिब्बत के अपहरण के बाद चीन सरकार की ओर से भारत को समस्याओं का सामना करना पड़ा। लेफ्टिनेंट जनरल ने भारत के लिए तिब्बत के मुद्दे के महत्व पर आगे बात की। उन्होंने जब तिब्बत एक स्वतंत्र देश था, तब के अच्छे समय को याद करते हुए कहा कि भारत और तिब्बत के बीच तब कोई सीमा विवाद नहीं था।
प्रो जी.एस. मूर्ति (आंध्र प्रदेश में रसायन शास्त्र विभाग के पूर्व निदेशक) ने तिब्बत की संस्कृति और धर्म के महत्व पर बात रखी। तिब्बत और भारत की संस्कृतियों के बीच के घनिष्ठ संबंधों के बारे में विस्तार से बताते हुए प्रो मूर्ति ने तिब्बती लोगों की विनम्रता और करुणा पर विशेष रूप से चर्चा की। उन्होंने आगे कहा कि चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के बाद भी तिब्बत में और उसके बाहर तिब्बतियों ने अलग-अलग तिब्बती संस्कृति और धर्म को सुरक्षति और संरक्षित रखने में कामयाबी हासिल की है। उन्होंने इस प्रवृत्ति को धर्मशाला में परम पावन दलाई के निवास स्थान, लामाओं और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन की यात्रा के दौरान देखी थी। परम पावन दलाई लामा के कई बार दर्शन करने और उन्हें सुनने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके प्रो मूर्ति ने तिब्बत की संस्कृति और भारत के धर्म के महत्व के बारे में बोलते हुए कहा कि तिब्बत में कैलाश पर्वत भारतीय हिंदुओं के लिए एक पवित्र स्थल माना जाता है जो आज तिब्बत के चीन के नियंत्रण में होने के कारण तीर्थयात्रा के लिए कठिनाइयों से भरा हुआ हैं। इसलिए तिब्बत के मुद्दे को हल करने के तिब्बती संघर्ष का समर्थन करना भारतीयों के लिए बेहद जरूरी है।
पैनल चर्चा के अध्यक्ष श्री क्लाउडे अर्पि ने 1950 के पहले और बाद की भारतीय विदेश नीति के बीच अंतर के बारे में बात रखी। विशेष रूप से 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद भारतीय विदेश नीति में बदलाव की चर्चा की। उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच डोकलाम मुद्दा इसलिए हुआ है क्योंकि तिब्बत के मुद्दे पर भारत की नीतियां त्रुटिपूर्ण रही हैं। चूंकि केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का राजनीतिक दृष्टिकोण ‘मध्यम मार्ग दृष्टिकोण’ है, उन्होंने कहा कि भारत के नेताओं और अधिकारियों को चीनी नेताओं से मिलते समय तिब्बत के मुद्दे और मध्यम मार्ग दृष्टिकोण को जरूर उठाना चाहिए।
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के तिब्बत नीति संस्थान के रिसर्च फेलो श्री टेम्प्पल ग्येलत्सेन जल्मा ने श्तिब्बत के पर्यावरण का भारत पर प्रभावश् विषय पर बात की। उन्होंने मुख्य रूप से चार उप-विषयों को गिनाया। इनमें तिब्बत दुनिया की छत के रूप में, तिब्बत मीठे पानी के स्रोत के रूप में, तिब्बत दुनिया के तीसरे ध्रुव के रूप में और तिब्बत को एशिया के मीठे पानी के स्रोत के रूप में बताया।
उन्होंने कहा कि दस विभिन्न देशों के लगभग 1.5 अरब लोग तिब्बत की छह नदियों से बहने वाले पानी पर निर्भर हैं लेकिन तिब्बत के पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक जलवायु परिवर्तन और चीनी सरकार की विफल नीतियों के कारण बड़े परिवर्तनों से गुजर रहे हैं। इसलिए उन्होंने सभी पड़ोसी देशों, विशेषकर भारत से अनुरोध किया कि वे चीनी नीतियों का विरोध करें और भविष्य में तिब्बत के पानी के संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर कराने का प्रयास करें।
चर्चा के समापन के दौरान, श्री अरविंदर इंजीनियरिंग कॉलेज के प्राचार्य श्री के- गणेश ने धन्यवाद प्रस्ताव दिया। अंत में उपसभापति आचार्य येशि फुंट्सोक ने पैनलिस्ट, कॉलेज के प्रिंसिपल और आयोजन समिति के अन्य सदस्यों को स्मृति चिन्ह और पारंपरिक तिब्बती खता भेंट किए।
तिब्बती सांसदों ने भी पैनल चर्चा के उपस्थित लोगों के बीच निर्वासित तिब्बती संसद के विभिन्न प्रकाशनों को वितरित किया।