tibet.net, 6 जुलाई, 2013
परमपावन महान 14वें दलार्इ लामा के 78वें जन्म दिन के इस सुखद अवसर पर मैं उनके प्रति गहरी श्रद्धा प्रकट करता हूं और कशाग तथा तिब्बत के भीतर एवं बाहर रहने वाले तिब्बतियों की और से उनका सादर अभिवादन करता हूं। कशाग में मेरे सहयोगी और सभी तिब्बती परमपावन को अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की शुभकामना देने के लिए दुनिया भर के उनके लाखों प्रशंसकों के साथ हैं। हम उनके लिए प्रार्थना करते हैं और परमपावन दलार्इ लामा-जेतसुन जामफेल गवांग लोबसांग येशी तेनजिन ग्यात्सो सि-सुम-वांग-ग्युर सुंगपा मे-पे धे पाल-सांगपो छोग के प्रति अपने अदम्य समर्पण और भक्ति को फिर से पुष्ट करते हैं। हम परमपावन के प्रिय मां-बाप के प्रति भी अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं कि जिन्होंने अपने बहुमूल्य सुपुत्र ल्हामो धोनढुप के रूप में हम पर कृपा की, जिनका जन्म 6 जुलार्इ 1935 को तिब्बत के आमदो क्षेत्र के तकत्सेर गांव में एक किसान परिवार में हुआ।
परमपावन दलार्इ खुद को एक सामान्य बौद्ध भिक्षु बताते हैं। लेकिन तिब्बतियों के लिए वे छेनरेजिग के मानवीय स्वरूप (करुणा के बोधिसत्व) हैं। परमपावन की महानता तिब्बत से काफी आगे तक जाती है क्योंकि उन्होंने अपनी दृष्टि को अपनी तीन प्रतिबद्धताओं द्वारा मानवता की भलार्इ के लिए आगे बढ़ाया है। ये तीन प्रतिबद्धताएं हैं-
1. मानवीय खुशी को आगे बढ़ाने में बुनियादी मानवीय मूल्य या धर्म निरपेक्ष आचार,
2. अंतर-धार्मिक सौहार्द और
3. तिब्बत के शांतिपूर्ण एवं अहिंसक बौद्ध संस्कृति का संरक्षण।
परमपावन दलार्इ लामा यह शिक्षा देते हैं कि सभी मनुष्य एक जैसे हैं और सभी खुशहाली चाहते हैं, कष्ट कोर्इ भी नहीं चाहता। जैसे कि किसी स्वस्थ शरीर के लिए भौतिक साफ-सफार्इ जरूरी है, उसी तरह गर्मजोशी एवं करुणा पर आधारित नैतिक स्वच्छता भी उतना ही जरूरी है। उनका मानना है कि शिक्षा से बच्चों में ज्ञानात्मक और भावात्मक, दोनों तरह की बुद्धिमत्ता आनी चाहिए ताकि स्वस्थ शरीर और स्वस्थ दिमाग के बीच में तारतम्यता और संतुलन पैदा हो सके। इसके लिए केंद्रीय तिब्बत प्रशासन ने तिब्बती स्कूलों में धर्मनिरपेक्ष नैतिक आचार शास्त्र के पाठयक्रम शुरू करने का निर्णय लिया है।
अंतर-धार्मिक सौहार्द के अथक समर्थक के रूप में परमपावन दलार्इ लामा ने सभी संप्रदायों के धार्मिक नेताओं के साथ संवाद किया है और उन्होंने बहुत से मंदिरों, मसिजदों, चर्चों, सिनगाग और मठों में जाकर प्रार्थनाएं की हैं।
परमपावन दलार्इ लामा बौद्ध धर्म के संग्राहक तिब्बत, उसके जन्म स्थान भारत सहित छह महाद्वीपों के 67 अन्य देशों में बुद्ध की शिक्षाओं के प्रसार और उसके संरक्षण में सहायक रहे हैं। अधिकृत तिब्बत में जिन बौद्ध मठों और सांस्कृतिक संस्थाओं को नष्ट कर दिया गया था उनका निर्वासन में पुनरुद्धार किया गया और उनको फिर से खड़ा किया गया। परमपावन ने तिब्बती विद्वानों और धर्म के पालन करने वालों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि नालंदा परंपरा के बौद्ध धर्म को धर्म, दर्शन और विज्ञान के अलग-अलग क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जाए।
दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिकों और बौद्ध भिक्षुओं के बीच गहन संवाद करने के लिए पथ प्रदर्शक के रूप में परमपावन दलार्इ लामा ने आधुनिक विज्ञान और बौद्ध धर्म दोनों को बहुत ज्यादा तरक्की और समृद्धि प्रदान की है। बौद्ध धर्म के पालन करने वालों द्वारा किए जाने वाले मस्तिष्क के अध्ययन को जब समसामयिक वैज्ञानिक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया गया तो इसका नतीजा दुनिया के शीर्ष प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों हार्वर्ड, एमआइटी, स्टैनफोर्ड, एमोरी, विस्कोनसिन, ज्यूरिख, दिल्ली विश्वविद्यालय और कर्इ अन्य के साथ गठजोड़ के रूप में सामने आया।
परमपावन दुनिया के सबसे सम्मानित और प्रशंसित हस्तियों में से हैं। महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला और मदर टेरेसा की तरह व्यापक मानवता की बेहतरी के लिए उनका योगदान उनके अपने धर्म और समय से काफी आगे तक है। उनका सतत योगदान इस बात से ही साफ हो जाता है कि उन्हें 150 से ज्यादा बड़े अवार्ड, पुरस्कार और मानद डाक्टरेट डिगि्रयां दी गर्इ हैं और उनमें सबसे उल्लेखनीय 1989 में मिला नोबेल पुरस्कार, 1991 में मिला संयुक्त राष्ट्र अर्थ पुरस्कार, 2007 में मिला अमेरिकी कांग्रेसनल गोल्ड मेडल और वर्ष 2012 मे मिला टेम्पलटन अवार्ड हैं। परमपावन को “गंभीर वैज्ञानिक खोज को बढ़ावा देने और करुणा की ताकत तथा दुनिया की बुनियादी समस्याओं के समाधान में इसके व्यापक संभावना की समीक्षा” के लिए टेम्पलटन अवार्ड दिया गया था।
विश्व मंच पर परमपावन का सम्मान जिस तरह से बढ़ा, उसी तरह से तिब्बत के बारे में वैशिवक जागरूकता और समर्थन भी। दुनिया की सबसे प्रेरक हस्तियों में एक होने के नाते परमपावन ने तिब्बती जनता की छवि पर प्रत्यक्ष और सकारात्मक डाला है और इससे बुनियादी रूप से तिब्बत आंदोलन को लाभ हुआ है।
परमपावन ने तिब्बतियों को एक ऐसा नेतृत्व दिया जो और कोर्इ नहीं दे सकता था। सिर्फ पांच वर्ष की अवस्था में परमपावन दलार्इ लामा के रूप में पहचाने जाने वाले परमपावन को पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही राजनीतिक जिम्मेदारियां उठाने को बाध्य होना पड़ा, जब चीन जनवादी गणराज्य ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और सिर्फ चौबीस वर्ष की उम्र में उन्हें निर्वासित होकर भारत आना पड़ा। उन्हें सामान्य बचपन नसीब नहीं हुआ क्योंकि तिब्बती पहचान, उम्मीद और समूचे सभ्यता के भविष्य को बचाने की जिम्मेदारी उनके युवा कंधों पर आ पड़ी। एक अच्छे चरवाहे की तरह जो अपनी पशुओं को हरे चारागाहों वाले इलाके की ओर ले जाता है, इस युवा नेता ने अकेले नेतृत्व के दम पर अपने लोगों और तिब्बत मसले को इतिहास के अंधकूप में विलुप्त हो जाने से बचाया। परमपावन तीनों तिब्बती प्रांतों (यू-सांग, खम और आमदो) और चार तिब्बती बौद्ध मतों तथा बान धर्म को बांधकर रखने वाली ताकत हैं। वह तिब्बत के सभी तिब्बतियों के लिए उम्मीद की किरण हैं, जिनमें से ज्यादातर ने उनको कभी भी नहीं देखा है, लेकिन नर्इ पीढ़ी सहित तिब्बत के भीतर रहने वाले हमारे सभी हमवतन उनके प्रति गहरी निष्ठा रखते हैं और साफतौर से परमपावन के नाम पर एकजुट हो जाते हैं।
अभी तक तिब्बत में 119 तिब्बतियों ने आत्मदाह कर लिए हैं। उनका दर्द दो युवा गायकों पेमा त्रिनले और चाकडोर द्वारा रचित गीत में अभिव्यक्त हो रहा है, इन दोनों को इस गीत के लिए जेल में डाल दिया गया है.
“तिब्बत से निर्वासित हे बहुमूल्य गुरु,
आपके बिना, तिब्बती अनाथ जैसे हो गए हैं,
चीनी शासन के तहत मिलने वाली पीड़ा असहनीय है…”
आत्मदाह करने वाले लोगों सहित तिब्बत के हमारे हमवतन लोगों ने साफ तौर से अपनी पहली इस आकांक्षा को अभिव्यक्त किया है कि परमपावन दलार्इ लामा तिब्बत में वापस लौटें और तिब्बतियों को स्वाधीनता मिले। निर्वासन में रहने वाले तिब्बतियों और तिब्बती डायस्पोरा, खासकर नर्इ पीढ़ी के लोगों को इस आकांक्षा को साकार करना अपना पुनीत कर्तव्य मानना चाहिए। हमें तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों को कम से कम इतना तो देना ही चाहिए। इसके लिए परमपावन के नेतृत्व, तिब्बत पर उनके विचारों एवं दृषिट और तिब्बती जनता के बारे में गहन समझ पैदा करने की जरूरत है।
निर्वासन में जो तिब्बती लोकतंत्र अपने शैशवकाल से लेकर आज एक मजबूत सिथति में पहुंच चुका है वह परमपावन द्वारा दशकों के प्रयासों का नतीजा है। अपने संघर्ष के इस महत्वपूर्ण दौर में निर्वासित तिब्बतियों और तिब्बती डायस्पोरा को निशिचत रूप से इस लोकतंत्र एवं स्वाधीनता का जिम्मेदारीपूर्वक इस्तेमाल करते हुए तिब्बत में रहने वाले तिब्बतियों के प्रति एकजुटता दिखाने एवं उनकी पीड़ा को सबसे सामने लाने, चीन सरकार की कठोर नीतियों को चुनौती देने और सभी तिब्बतियों को एकजुट रखने में करना चाहिए।
काफी पहले 1970 के दशक में ही परमपावन दलार्इ लामा ने विभिन्न तिब्बती नेताओं से राय-मशविरा करना शुरू कर दिया था और तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों की राय लेने लगे थे ताकि तिब्बत मसले का एक दृष्टिपूर्ण और व्यावहारिक समाधान निकाला जा सके। नया समाधान एक मध्यम मार्ग नीति के रूप में सामने आया जो दो अतिवादी स्थितियों दमन और अलगाव के बीच का रास्ता था। यह नीति है- तिब्बतियों के प्रति चीन सरकार की दमनकारी और उपनिवेशवादी नीतियों को साफतौर से खारिज किया जाए, लेकिन चीन जनवादी गणराज्य से अलग होने की बात न की जाए। दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद यह सुझाव मध्यम मार्ग नीति के रूप में जाना गया और इसमें चीन जनवादी गणराज्य के भीतर ही तिब्बती जनता को वास्तविक स्वायत्तता की मांग की गर्इ है। यह रवैया चीन के तत्कालीन सर्वोपरि नेता देंग जियोपिंग के इस विचार से भी मेल खाता है कि, “तिब्बत की आज़ादी के अलावा अन्य सभी मसलों पर बातचीत की जा सकती है और उनका हल निकाला जा सकता है।”
मध्यम मार्ग नीति की वजह से ही चीनी प्रतिनिधियों और परमपावन दलार्इ लामा के दूतों के बीच लगातार कर्इ दौर के वार्ताओं के माध्यम से धर्मशाला और बीजिंग के बीच संपर्क बन सका। तिब्बत के भीतर और बाहर के तिब्बती पहली बार एक-दूसरे से संपर्क करने और मिलने में सक्षम हुए। तिब्बत के हजारों तिब्बती विद्यार्थी और भिक्षु भारत आने और धर्मनिरपेक्ष एवं मठीय शिक्षा हासिल करने में कामयाब हुए जिससे तिब्बत के भीतर बौद्ध धर्म को नया जीवन मिला और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के बारे में जागरूकता बढ़ी।
मध्यम मार्ग नीति की तिब्बत के भीतर रहने वाले कर्इ प्रख्यात तिब्बतियों ने समर्थन किया है, क्योंकि उनका मानना है कि तिब्बत के मसले को हल करने के लिए यह एक यथार्थवादी रवैया है। इसके अलावा इस रवैए ने कर्इ सरकारों को इस बात में समर्थ बनाया है कि वे समाधान आधारित तिब्बत नीति को समर्थन दे सकें और इससे उन्हें चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ताओं में तिब्बत मसले को उठाने में मदद मिली है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के 16 जुलार्इ, 2011 को परमपावन दलार्इ लामा से मुलाकात के बाद व्हाइट हाउस ने “अहिंसा और चीन के साथ संवाद के लिए दलार्इ लामा की प्रतिबद्धता और मध्यम मार्ग नीति पर चलने” की तारीफ की और इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि, “लंबे समय से चले आ रहे मतभेदों को दूर करने के लिए सीधा संवाद कायम किया जाए” और कहा कि “संवाद से ही ऐसा नतीजा निकलेगा जो चीन और तिब्बतियों, दोनों के लिए सकारात्मक होगा।”
एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र जहां मध्यम मार्ग नीति लगातार जगह बना रही है वह है चीनी लोगों के मन में, खासकर बुद्धिजीवियों में। कैद किए गए नोबेल पुरस्कार विजेता लिउ जियाओबो सहित चीनी बुद्धिजीवी वर्ग के कर्इ चमकते सितारों ने वर्ष 2008 में एक साहसिक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किया था जिसमें परमपावन दलार्इ लामा के शांति प्रयासों की तारीफ की गर्इ थी। इसके बाद से चीनी विद्वानों और लेखकों ने 1000 से ज्यादा ऐसे आलेख और दृषिटकोण लिखे हैं जिनमें तिब्बती जनता की पीड़ा और उनकी शिकायतों का वर्णन किया गया है और नीतियों में बदलाव का आहवान किया गया है। इनमें बीजिंग स्थित कानूनी स्वयंसेवी संस्था गोंगमेंग कान्सटिटयूशनल इनिशिएटिव की एक रिपोर्ट भी शामिल है। मुख्य भूमि चीन में तिब्बती बौद्ध धर्म का पालन करने वाले चीनियो की संख्या भी बढ़ रही है और आज वहां 30 करोड़ से ज्यादा बौद्धों के होने का अनुमान है। चीनी विद्यार्थियों और विद्वानों तक परमपावन दलार्इ लामा के पहुंचने और चीनी बौद्ध अनुयायियों को मिल रही उनकी शिक्षा से तिब्बत एवं तिब्बतियों के प्रति चीनी लोगों का रवैया बदल रहा है।
परमपावन दलार्इ लामा के 78वें जन्म दिन के पुनीत अवसर पर केंद्रीय तिब्बती प्रशासन तिब्बत मसले को हल करने में मध्यम मार्ग नीति के प्रति अपनी दृढ़ प्रतिबद्धता फिर से प्रकट करता है। अगस्त 2011 में कार्यभार ग्रहण करने के समय से ही हमने एकीकरण, कार्रवार्इ और संवाद का तीन चरणों वाला रवैया अपनाया है।
एकीकरण वाले चरण में जो पहले साल में ज्यादा था, यह सुनिशिचत करना महत्वपूर्ण था कि परमपावन दलार्इ लामा द्वारा अपनी राजनीतिक सत्ता लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता को सौंपने के ऐतिहासिक निर्णय के बाद सुचारु तरीके से बदलाव हो सके। इसके लिए हमने धर्मशाला में कर्इ बड़े सम्मेलनों का आयोजन किया और दुनिया भर के तिब्बतियों प्रतिनिधियों और भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय तिब्बत समर्थकों को एक जगह लेकर आए।
कार्रवार्इ वाले चरण में हमने न्यूयार्क, नर्इ दिल्ली, ब्रसेल्स, टोक्यो, सिडनी और अन्य कर्इ शहरों में बड़े एकजुटता आयोजन होते देखे। इन एकजुटता आयोजनों से मीडिया में जागरूकता बढ़ी और दुनिया भर के कांग्रेस और संसदों में तिब्बत के लिए समर्थन जुटाने के प्रयास में मदद मिली। तिब्बत के मित्रों और समर्थकों के साथ काम करते हुए हम यूरोपीय संघ की संसद (र्इयू), फ्रांस, इटली और अमेरिका और अन्य कर्इ देशों की संसद में प्रस्ताव और संकल्प पेश होते देख पाए हैं। ये तीनों चरण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और संवाद वाले चरण में चीन सरकार से फिर से संपर्क साधने के लिए लगातार प्रयास और पहल किए जाएंगे। मध्यम मार्ग नीति के बारे में तिब्बतियों और अन्य सभी लोगों को शिक्षित करने के लिए अतिरिक्त निवेश किया जा रहा है। वार्ता के लिए बने कार्यबल का विस्तार किया जाएगा और इसके सदस्यों की 26वीं बैठक सितंबर, 2013 में होगी। जिसके दौरान तिब्बत और चीन के हाल के घटनाक्रमों पर चर्चा होगी।
मैं इस अवसर पर भारत की महान जनता और भारत सरकार के प्रति आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने तिब्बतियों को अटल रूप से सहयोग और समर्थन दिया है। मैं दुनिया भर की अन्य सरकारों और अपने समर्थकों के प्रति भी आभार प्रकट करता हूं। अंत में, मैं परमपावन दलार्इ लामा के दीर्घायु और स्वस्थ जीवन के लिए उत्कट प्रार्थना करता हूं। एकता, नवाचार और आत्मनिर्भरता को अपने मार्गदर्शक सिद्धांत मानते हुए हम यही कामना करते हैं कि तिब्बत के भीतर और बाहर रहने वाले तिब्बतियों की सभी इच्छाएं और आकांक्षाएं पूरी हों और एक ज्यादा करुणामय और शांतिपूर्ण दुनिया को बढ़ावा देने के उनके प्रयास फलीभूत हों।