चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने १९५० में तिब्बत पर कब्जे के बाद से तिब्बती धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ लगातार छेड़छाड़ किया है। इसमें १४वें दलाई लामा तेनज़िन ग्यात्सो के पुनर्जन्म को पहचानने की प्रक्रिया शामिल है। परम पावन अब ८८ वर्ष के हो चुके हैं और उनकी अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता के कारण उनके अनुयायियों की दुर्दशा को वैश्विक मंच पर जीवंत बनी हुई है।
बौद्धों का मानना है कि एक सम्यकत्व को प्राप्त जीव और अत्यधिक साधना संपन्न गुरु लोक कल्याण के लिए पुनर्जन्म धारण कर सकता है। तिब्बत में इसे टुल्कु के नाम से जाना जाता है और यह प्रणाली वहां की धार्मिक संस्कृति में गहराई से अंतर्निहित है। पुनर्जन्म लेनेवाले गुरुओं में तिब्बतियों द्वारा सर्वोच्च आदर और सम्मान पाने वाले गुरुओं में दलाई लामा सर्वोच्च आध्यात्मिक धर्मगुरु या लामा हैं।
दलाई लामा नामक तिब्बती संस्कृति के इस मूलभूत संस्था पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करने और पुनर्जन्म प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए चीन ने २००७ में आदेश संख्या-५ और पिछले वर्ष आदेश संख्या-१९ जारी किया। ये कानून सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद-१८ और चीनी संविधान के अनुच्छेद-३६ का घोर उल्लंघन हैं, जो धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की गारंटी देते हैं।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी स्पष्ट रूप से नास्तिक मत की है और मृत्यु के बाद जीवन की अवधारणा में उसका कोई विश्वास नहीं है। १९५० के दशक में १४वें दलाई लामा के साथ अपनी शुरुआती बैठकों में से एक के दौरान माओत्से तुंग ने कहा था कि ‘धर्म अफीम है।‘ इसके तुरंत बाद चीन ने पूरे तिब्बत में ६००० से अधिक मठों और भिक्षुणी विहारों को नष्ट करना शुरू कर दिया। धार्मिक उत्पीड़नों की निरंतरता के कुछ उदाहरणों में २०१६ में बुद्ध की मूर्तियों का ध्वंस और २०१९ में लारुंग गार एवं याचेन गार जैसे विश्वविख्यात मठों को बंद करना तथा २०२१ में ड्रेगो मठ के स्कूल का विध्वंस शामिल हैं।
दुनिया शीर्ष तिब्बती धार्मिक धर्मगुरुओं में से एक ११वें पंचेन लामा के लापता होने से भी अवगत है। यह सबको पता है कि कैसे चीन ने १९९५ में अपने द्वारा एक कठपुतली को पंचेन लामा के पद पर बैठा दिया है और कैसे वह तिब्बतियों को इस फर्जी पंचेन लामा की पूजा करने के लिए मजबूर कर रहा है।
लामाओं के पुनर्जन्म के चयन पर अधिकार होने का चीन का दावा बेतुका है। चीन ने आधिकारिक आदेशों, उद्घोषणाओं, सीसीपी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में लेखों की एक शृंखला के माध्यम से प्राचीन रिवाजों पर अपने दावे को पेश करते हुए पुनर्जन्म प्रणाली पर अधिकार की पुष्टि की है। ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, ‘पारंपरिक चीनी कानून में उपाधियों को शाही प्रशस्ति के रूप में समझा जाता है, यानी ये चीन की केंद्र सरकार द्वारा धार्मिक संप्रदायों के गुरुओं को दी जाने वाली ‘मानद उपाधियां’ हैं। हालांकि, ऐसे दावे इतिहास के विकृत अध्ययन पर आधारित हैं।
सबसे पहले, इनमें से अधिकांश उपाधियां युआन (१२७१-१३६८) और किंग (१६४४-१९१२) शासन के दौरान दी गई थीं। चूंकि दोनों राजवंश चीनी नहीं थे, इसलिए इनके शासन को चीनी केंद्रीय सरकार कहना गलत और संदर्भ से बाहर है। चीन तब मंगोल युआन और उसके बाद मंचू किंग राजवंश के कब्जे वाला क्षेत्र ही कहा जाता था।
दलाई लामा की पुनर्जन्म प्रणाली १४वीं और १५वीं शताब्दी की है, जब प्रथम दलाई लामा गेदुन द्रुपा के अवतार के रूप में दूसरे दलाई लामा गेदुन ग्यात्सो का जन्म १४७५ में हुआ था। यह प्रणाली वर्तमान तिब्बती परंपरा तक जारी है। बौद्ध नेता और चीन का यह दावा कि उसने प्राचीन काल से इस प्रक्रिया को संचालित किया है, पूरी तरह से झूठ है।
उस समय चीन पर शासन करने वाले मिंग राजवंश (१३६८-१६४४) के सम्राट द्वारा तीसरे दलाई लामा सोनम ग्यात्सो को पहली बार दलाई लामा की उपाधि नहीं दी गई थी। यह मंगोल राजा अल्तान खान था, जिसने सोनम ग्यात्सो से शिक्षा प्राप्त करने के बाद १५७८ में दलाई की उपाधि दी, जिसका अर्थ है ‘ज्ञान का सागर’। बदले में आध्यात्मिक धर्मगुरु ने अल्तान खान को धर्म राजा की उपाधि से अभिषिक्त किया था। इससे पता चलता है कि मानद उपाधियों की पेशकश एकतरफा थोपना नहीं था बल्कि यह एक द्विपक्षीय प्रक्रिया थी, जिसका मतलब इस मामले में तिब्बती गुरु और मंगोल शासक के बीच सद्भावना और राजनयिक शिष्टाचार का संकेत था।
१७९२ में जब तिब्बत ने नेपाल की हमलावर गोरखा सेना को खदेड़ने के लिए किंग शासकों की मदद मांगी थी। तब मंचू सम्राट ने तिब्बत के प्रभावी प्रशासन के लिए २९ बिंदुओं का एक कानूनी संहिता लिखी थी। यह सुझाव दिया गया कि दलाई लामा और पंचेन लामा के पुनर्जन्मों का चयन ‘स्वर्ण कलश’ से नाम निकालकर किया जाना चाहिए। लेकिन यह एक आदेश से अधिक सलाह के रूप में आया और १९वीं शताब्दी के मध्य में ११वें दलाई लामा के चयन को छोड़कर आगे इस पद्धति का उपयोग कभी नहीं किया गया।
चीन ने हाल ही में इस बात पर जोर दिया है कि पुनर्जन्म वाले जीवित बुद्धों को देश के भीतर ही खोजा जाना चाहिए, स्वर्ण कलश का उपयोग करके चुना जाना चाहिए और केंद्र सरकार से अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए। इसका अर्थ है कि तिब्बत के बाहर के सभी लोग अयोग्य हैं। लेकिन टुल्कू का पुनर्जन्म कहीं भी हो सकता है। यह निर्णय लेना खुद पुनर्जन्म लेनेवाले लामा पर ही निर्भर करता है। भारत, नेपाल, मंगोलिया, भूटान और अन्य देशों में कई लामाओं का पुनर्जन्म हुआ है। उदाहरण के लिए, चौथे दलाई लामा का जन्म मंगोलिया में और छठे का जन्म भारत में हुआ था।
इस दुनिया से प्रस्थान करने से पहले उच्च लामा अपने करीबी सहयोगियों या एक निर्दिष्ट समिति को संकेत छोड़ते हैं कि उनका पुनर्जन्म कहां पर हो सकता है। समिति तब बताए गए क्षेत्र में पैदा हुए बच्चों की तलाश करती है और संभावित लामा पर अध्ययन और परीक्षण करने के बाद पुनर्जन्म की पुष्टि की जाती है। इस प्रक्रिया में देवताओं के साथ परामर्श सहित पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठान शामिल हैं।
सितंबर २०११ के अपने एक बयान में १४वें दलाई लामा ने स्पष्ट किया कि उनका पुनर्जन्म उनकी पसंद पर निर्भर करेगा और किसी को भी इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने पुष्टि की कि पुनर्जन्म का उद्देश्य लोक कल्याण के लिए आध्यात्मिक कार्य जारी रखना है। इसलिए यदि उनका पुनर्जन्म ऐसे क्षेत्र में हुआ जहां स्वतंत्रता प्रतिबंधित है तो पुनर्जन्म का मूल उद्देश्य खो जाएगा। इसलिए, दलाई लामा का पुनर्जन्म एक स्वतंत्र देश में ही होगा।
२०१९ में अंतरराष्ट्रीय तिब्बती समुदाय के प्रतिनिधियों और तिब्बती धार्मिक संप्रदायों के प्रमुखों ने निर्वासित तिब्बती सरकार के भारत के धर्मशाला स्थित मुख्यालय में मुलाकात की और सर्वसम्मति से चीन से पुनर्जन्म मुद्दे से दूर रहने की अपील की थी। इसी तरह के बयान जापान, भारत, वियतनाम और यूरोप में तिब्बती समूहों से आए हैं।
अमेरिकी सरकार ने अपने २०२० के तिब्बत नीति और समर्थन अधिनियम में स्पष्ट कर दिया है कि पुनर्जन्म मुद्दे पर चीन के किसी भी हस्तक्षेप का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध किया जाएगा।
बीजिंग के लिए बेहतर होगा कि वह तिब्बती लोगों का दिल जीतने के लिए उन्हें डराने-धमकाने और धमकियां देने के बजाय गर्मजोशी भरा रुख अपनाए। जहां तक १५वें दलाई लामा के चयन की बात है, केवल तिब्बतियों की मान्यताओं के प्रति सम्मान और समझ से ही वास्तविक सद्भाव पैदा होगा। इसके विपरीत, उनके आध्यात्मिक मामलों में निरंतर हस्तक्षेप उन्हें बीजिंग से और दूर कर देगा।
छेवांग ग्यालपो आर्य परम पावन दलाई लामा के संपर्क कार्यालय में जापान और पूर्वी एशिया के प्रतिनिधि हैं। वे केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के तिब्बत नीति संस्थान के पूर्व निदेशक हैं। यहां व्यक्त किए गए विचार जरूरी नहीं कि सीटीए के तिब्बत नीति संस्थान के विचारों के अनुरूप हों।