तिब्बत के ग्लेशियरों और पानी के बिना एशियाई देश कैसे बचेंगे?
तिब्बती पठार पर हिंदूकुश हिमालय (एचकेएच) के बर्फ का भंडार है। इसे दुनिया के ‘तीसरे ध्रुव’ के रूप में जाना जाता है। यह आर्कटिक और अंटार्कटिक के बाद सबसे बड़ी संख्या में ग्लेशियर और बर्फ वाला पठार है। तिब्बती पठार में 46,000 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो दुनिया के कुल ग्लेशियर का 14.5 प्रतिशत है। ये ग्लेशियर एशिया की प्रमुख नदी प्रणालियों- सिंधु, सतलुज, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, साल्विन, मेकांग, यांग्त्ज़ी और येलो नदियों को जन्म देते हैं जो कई देशों की जीवनदायिनी नदियां हैं और लगभग 2 अरब लोगों के जीवन का आधार है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण, तिब्बती पठार के ग्लेशियर धरती के कहीं और के ग्लेशियरों के मुकाबले तेजी से घट रहे हैं। तिब्बती ग्लेशियरों के नुकसान का मतलब उन लोगों के लिए आजीविका का नुकसान है जो इन नदियों पर निर्भर हैं। इनकी आबादी दुनिया की कुल आबादी की एक चौथाई से अधिक है।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) के तहत, विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ पहली बार हिंदूकुश हिमालयी मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक साथ आए, जिसे 5 जनवरी, 2019 को जारी किया गया था। रिपोर्ट में जलवायु पर अंतरराष्ट्रीय पैनल (आईपीसीसी) द्वारा 2014 की रिपोर्ट को समायोजित किया गया है। इसमें बताया गया है कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के साथ तापमान में वृद्धि हो रही है, हिंदूकुश हिमालय के कम से कम एक तिहाई ग्लेशियर 2100 तक पिघल जाएंगे। ऐसा तब हो जाएगा जब दुनिया के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक भी वृदि्ध हो जाती है।
इस रिपोर्ट ने हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र पर ग्लेशियरों के पिघलने के अपने खतरनाक वैज्ञानिक निष्कर्षों के कारण मीडिया का बहुत ध्यान आकर्षित किया है। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में समग्र जल, ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो जाएगी।
ग्लेशियरों के पिघलने का जल संसाधन पर प्रभाव
तिब्बती पठार के ग्लेशियर कई देशों को बारहमासी पानी की आपूर्ति करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन तिब्बती पठार पर ग्लेशियरों के पिघलने और इस क्षेत्र में पानी की उपलब्धता को लेकर चिंता बढ़ रही है।
तिब्बती पठार पर प्रत्येक 10 वर्षों में लगभग 0.3 डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि हो रही है। इसका मतलब है कि पिछले 50 वर्षों में तापमान में 1.3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है जो वैश्विक औसत से तीन गुना है। यदि यह वर्तमान प्रवृत्ति जारी रहती है तो कई चीनी वैज्ञानिकों का मानना है कि पठार के 40 प्रतिशत ग्लेशियर 2050 तक गायब हो सकते हैं। चीनी विज्ञान अकादमी (सीएएस) के वैज्ञानिकों का भी अनुमान है कि पठार पर तापमान इस सदी के अंत तक 4.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। इन ग्लेशियरों पर एक सर्वेक्षण का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर लियू शियिन ने कहा कि ग्लेशियर पिघलने से पानी निकल जाएगा और झीलें बन जाएंगी और अंततः यह आपदा का कारण बन जाएगा।
अद्वितीय रूप से उच्च पठार के रूप में तिब्बती पठार बहुत ही नाजुक और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है। पिछले कुछ वर्षों में तिब्बती पठार पर बाढ़, भूस्खलन और गाद स्खलन के साथ-साथ इसके विभिन्न हिस्सों में झीलों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है।
तिब्बती पठार पर प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव केवल पठार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके परिणाम बहुत दूर तक हैं- उदाहरण के लिए, भारत जैसे निचले देश में। उत्तर भारत में कृषि का दारोमदार तिब्बत से निकलने वाली नदियों पर अत्यधिक निर्भर है और इन नदियों के प्रवाह में किसी भी परिवर्तन के गंभीर परिणाम होंगे। फिर ग्लेशियर झील फटने से आनेवाली बाढ़ (जीएलओएफ) जैसी चरम घटनाएं भी होती हैं जो कई देशों के लिए एक बड़ा खतरा बन सकती हैं। अक्टूबर 2018 में, मलबे ने तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो नदी के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया, जिससे भारत और बांग्लादेश में बाढ़ का खतरा पैदा हो गया था।
ग्लेशियरों के पिघलने से शुरू में इस क्षेत्र में अधिक बाढ़ आएगी जब तक कि वे पूरी तरह से पिघल नहीं जाते हैं। इससे ये ग्लेशियर अल्पावधि में अधिक पानी प्रदान करते हैं। लेकिन लंबे समय में, हिमाच्छादित बर्फ के साथ इनका प्रवाह नाटकीय रूप से कम हो जाएगा। कई वैज्ञानिक भविष्यवाणी कर रहे हैं कि ग्लेशियरों के पिघलने से जल प्रवाह की मात्रा कम से कम 2050 तक बढ़ने की संभावना है और फिर यह घट जाएगी।
द वॉयस ऑफ अमेरिका ने नाम का खुलासा न करने की शर्त पर चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंस के एक पूर्व शोधकर्ता के साक्षात्कार के हवाले से बताया कि ‘हिमनद के मंद जलप्रवाह ने पहले से ही यांग्त्ज़ी और पीली नदी पर जल स्तर को कम कर रखा था।‘
1950 के दशक से हर साल औसतन 247 वर्ग किलोमीटर हिमाच्छादित बर्फ गायब हो गई है। ग्लेशियरों के लगातार सिकुड़ने से मंद जलप्रवाह होंगे और जल संसाधन निचले इलाके के देशों को प्रभावित करेंगे। इससे पानी की किल्लत तेजी से बढ़ेगी।
इससे भी अधिक जलवायु परिवर्तन के अलावा, चीनी बांधों और नहरों का अनियमित निर्माण जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को और बढ़ा सकता है और पानी की कमी की समस्या को बढ़ा सकता है। स्वच्छ ऊर्जा विकसित करके कार्बन उत्सर्जन को कम करने की चीन की महत्वाकांक्षा के साथ, चीन बहुदेशीय नदियों पर और अधिक बांध बनाने की सोच रहा है।
जियोस्ट्रॉजिस्ट ब्रह्मा चेलानी लिखते हैं: ‘चीन पनबिजली संरचनाओं के माध्यम से सीमा पार जानेवाले जल संसाधनों पर नियंत्रण कर पानी से संबंधित मुद्दों पर अपने निचले इलाके के पड़ोसी देशों के साथ भू-राजनीतिक स्तर पर आग से खेलने का खतरनाक दाव खेल रहा है।‘ इसलिए इस खेल में तिब्बत के जल संसाधन तेजी से महत्वपूर्ण रणनीतिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तत्व बन गए हैं। जिसके प्रबंधन और नियंत्रण के लिए चीनी आमादा हैं।
इस क्षेत्र की आबादी का एक बड़ा हिस्सा पहले से ही गरीबी में रह रहा है और भोजन और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, ताजे पानी तक इनकी पहुंच को और सीमित करने से पूरे क्षेत्र को गहरे संकट की ओर धकेल दिया जाएगा।
संघर्ष और जल संकट
चीन का ‘एशिया के जल मीनार’ कहे जानेवाले तिब्बत पर कब्जा है, और इस प्रकार एशिया का पानी चीन के हाथों में है। चीन खुद जल संसाधनों के असमान वितरण के कारण पानी की कमी वाले देश में शुमार है। चीन को अपने औद्योगिक विकास, शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण बढ़ी जलापूर्ति को पूरा करने के लिए जल संसाधनों पर काफी दबाव का सामना करना पड़ रहा है।
चीन को 2030 तक पानी की अनुमानित मांग में 25 प्रतिशत तक की कमी का सामना करने की आशंका है। इसके दो-तिहाई शहरों को पहले से ही जल आपूर्ति में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। 2006 में विश्व बैंक ने जल संकट पर काम करने वाले एक आलेख में दावा किया था कि ‘चीन जल्द ही पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे अधिक जल संकट का सामना करने वाला देश बन जाएगा।‘
इसके अलावा, चीन घरेलू जल संघर्ष का भी सामना कर रहा है। मुख्य रूप से अंतर-न्यायिक जल प्रदूषण और जल विद्युत डैम निर्माण जैसे मुद्दों पर। ये घरेलू जल संघर्ष और पानी की कमी से जनता में अशांति भड़क सकती है। इसलिए, ये चिंताएं चीन को पानी की कमी की चुनौती को पूरा करने के लिए सीमा पार जानेवाली नदियों का उपयोग करने के लिए मजबूर कर सकती हैं। तिब्बत से सीमा पार जानेवाली नदियों पर जल बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास ने पहले ही कई बहाव वाले देशों को प्रभावित किया है और अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए, चीन का ब्रह्मपुत्र नदी पर पनबिजली बांध का निर्माण चीन और भारत के बीच संघर्ष का एक केंद्र बन गया है। इसी तरह चीन ने ऊपरी मेकांग नदी को भी नुकसान पहुंचाया है, जो चीन और दक्षिण- पूर्व एशियाई देशों के बीच संघर्ष का एक प्रमुख मुद्दा बन गया है।
साझा नदी प्रणालियों के उपयोग को लेकर चीन और निचले इलाके के देशों के बीच कोई औपचारिक समझौता नहीं है। 2025 तक पानी की कमी से विशेष रूप से एशिया में 1.8 अरब लोगों के प्रभावित होने की भविष्यवाणी की जा रही है। इसलिए तिब्बत से आने वाली नदियों की धारा में कोई भी परिवर्तन सभी के लिए गंभीर संकट पैदा कर सकते हैं। यह रिपोर्ट इस क्षेत्र में एक और चिंता और चुनौती को पैदा करती हैं। जैसे-जैसे पानी की मात्रा घटती जाएगी, चीन और नीचे के देशों के बीच टकराव की संभावना बढ़ने की संभावना है। चेलानी ने 2014 में भविष्यवाणी की थी कि इन नदियों के ‘एशिया का नया युद्ध का मैदान’ बनना तय है।
कई विद्वानों और विशेषज्ञों ने चीन और भारत के बीच भविष्य के आशंकित ‘जल युद्ध’ के बारे में चेतावनी दी है और वही स्थिति दक्षिण- पूर्व एशिया की हो सकती है। सीमा पार के जल संघर्ष को कम करने और एशिया में जल सहयोग को आगे बढ़ाने की कुंजी काफी हद तक चीन के हाथों में है।
यह तिब्बत के क्षेत्रीय सुरक्षा के महत्व को पहचानने का समय है। इसिमोड की आकलन रिपोर्ट तिब्बती पठार पर ग्लेशियरों के पिघलने की पुष्टि करने वाली कई रिपोर्टों में से एक है, जिसमें भविष्य में पानी की कमी के लिए महत्वपूर्ण अवरोध पैदा होने की बात कही गई है। तिब्बती पठार और सीमा पार के जल संघर्ष पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए जल संसाधन प्रबंधन के लिए क्षेत्रीय रूप से एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
यदि जल संसाधनों पर अस्थिर उपायों और कुप्रबंधन से निपटा नहीं जाता है तो ताजा पानी दुर्लभ बन जाएगा, जिसके कारण एशिया में संघर्ष छिड़ सकता है। चीन और उसके पड़ोसियों के बीच साझा नदियों पर अविश्वास अधिक बना हुआ है। यदि चीन और शेष महाद्वीप संभावित जल संघर्ष को रचनात्मक संबंधों में बदलना चाहते हैं तो जल पर संवाद करना जरूरी है।