तिब्बती लोकतंत्र दिवस 2 सितंबर, 2018 के अवसर पर विश्वभर में विशेष आयोजनों से यही प्रमाणित होता है कि विश्वजनमत तिब्बती आंदोलन के साथ है। इस वर्ष तिब्बती लोकतंत्र दिवस की 57वीं वर्षगाँठ थी। अब 58वें वर्ष में लोकतांत्रिक आदर्श प्रवेश कर चुके हैं। यह परमपावन दलाई लामा का बहुत बड़ा योगदान है। बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा स्वतंत्र तिब्बत के राज्याध्यक्ष थे और सभी राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करते थे। वे ही सरकार के भी प्रधान थे। वे राज भी करते थे और शासन भी। तिब्बत के धार्मिक प्रधान भी वे ही थे। इस प्रकार दलाई लामा के पास ही तिब्बत के सभी राजनीतिक एवं धार्मिक अधिकार थे। वर्तमान दलाई लामा को ये सारे अधिकार अपने पूर्ववर्ती दलाई लामा से परंपरानुसार मिले थे।
लेकिन वर्तमान चैदहवें दलाई लामा ने अपने राजनीतिक अधिकार हस्तांतरित करने शुरू कर दिये। निर्वासन में रहते हुए उन्होंने तिब्बती संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण शुरू कर दिया। निर्वासित तिब्बत सरकार का संस्थागत ढाँचा लोकतांत्रिक किया गया। लिखित रूप से और व्यवहार में भी। सरकार के तीनों अंग अर्थात् कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका में ये आदर्श देखे जा सकते हैं। कार्यपालिका के प्रधान डाॅ. लोबजंग संग्ये चुनाव जीतकर सिक्योंग के पद पर पहुँचे हैं। इनसे पहले परमश्रद्धेय प्रो. सामदोंग रिंपोछे कालोन ट्रिपा थे। तिब्बती संसद अर्थात कशग के निर्वाचन नियमित रूप से हो रहे हैं। न्यायिक व्यवस्था लोकतांत्रिक आचरण कर रही है। लोकतंत्र का प्रमुख स्तंभ मीडिया को कहा जाता है। तिब्बती मीडिया स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भीक है। सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए भी तिब्बती आधुनिक तकनीकों एवं विचारों को अपनाए हुए है।
विश्व में कई राज्याध्यक्ष एवं शासनाध्यक्ष अर्थात् स्टेट और गवर्नमेंट के प्रधान सत्ता के संघर्ष में उलझे हुए हैं। ऐसे वातावरण में भी दलाई लामा अपने सारे राजनीतिक अधिकार शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक तरीके से हस्तांतरित कर चुके हैं। स्वयं को वे सिर्फ धार्मिक गतिविधि तक सीमित कर चुके हैं। लोकतंत्र के क्षेत्र में यह उनका प्रशंसनीय योगदान है। तिब्बत का लोकतंत्रीकरण सम्पूर्ण विश्व के लिए एक आदर्श है। शांति के लिए नोबल पुरस्कार सहित विभिन्न देशों में अनेक पुरस्कार एवं सम्मान दलाई लामा को प्राप्त हो चुके हैं।
वहीं चीन सरकार द्वारा तिब्बत में मानवाधिकारों का व्यापक पैमाने पर हनन जारी है। चीनी आतंक के खिलाफ विश्व का ध्यान खींचने के लए कई शांतिप्रिय तिब्बती आंदोलनकारी आत्मदाह कर चुके हैं। दलाई लामा, निर्वासित तिब्बत सरकार एवं अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं की लगातार अपील के बावजूद आत्मदाह की घटनायें बंद नहीं हुई हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।
तिब्बत समस्या का शीघ्र समाधान मध्यम मार्ग अपना कर तिब्बत को ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ देने से होगा। चीन 1959 में स्वतंत्र तिब्बत पर अवैध नियंत्रण कर चुका है। पहले स्वतंत्र तिब्बत की सीमा भारत एवं चीन से जुड़ी थी। यह दोनों के बीच बफर स्टेट था। यह कभी भी चीन का भूभाग नहीं था। यह चीन की दीवार के बाहर था। चीन की सीमा तो चीन की दीवार है बाकी उसका अवैध कब्जा है।
तिब्बत पर अवैध कब्जे के बाद चीन ने तिब्बत के भौगोलिक क्षेत्र को विकृत किया और खंडित तिब्बती भूभाग के एक छोटे हिस्से को स्वायत्त क्षेत्र कह दिया। चीन के संविधान और राष्ट्रीयता संबंधी कानून के अनुसार तिब्बत की स्वायत्तता के लिए जरूरी है कि चीन सरकार प्रतिरक्षा एवं वैदेशिक मामले अपने पास रखे तथा शेष विषयों पर कानून बनाने का अधिकार तिब्बतियों को सौंप दे। ऐसा अब तक नहीं हुआ। सारे विषयों में कानून स्वयं चीन सरकार बना रही है। इसीलिए तिब्बती आंदोलनकारी और तिब्बत समर्थक तथाकथित स्वायत्तता को समाप्त कर ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ की मांग कर रहे हैं।
तिब्बत को ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ मिलने के बाद चीन की संप्रभुता और तिब्बत में स्वशासन की सुरक्षा एक साथ हो जायेगी । इसीलिए इस प्रस्ताव का समर्थन विश्वस्तर पर किया गया है। चीन ने तिब्बत मामले में लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय कानून, मानवाधिकार एवं मानवीय मूल्यों का गला घोंटा है। अपनी विस्तारवादी नीति के कारण चीन की छवि निरतंर खराब हो रही है। इस प्रस्ताव को मानकर वह अपनी छवि में सुघार लाए तो ज्यादा ठीक होगा।
संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा यूरोपीय यूनियन समेत सभी लोकतांत्रिक संस्थायें तिब्बती आंदोलन के साथ हैं। चीन सरकार द्वारा विरोध के बावजूद विभिन्न देशों में सरकारें दलाई लामा को आमन्त्रित करती हैं, उनके धार्मिक व्याख्यान सुनती हैं तथा चीन सरकार पर दबाव डालती हैं कि वह तिब्बत में जारी क्रूरतापूर्ण विनाशकारी नीति को समाप्त करे। भारत तो प्रारम्भ से ही तिब्बत की सुरक्षा के पक्ष में है। तिब्बत समर्थक भारतीय संगठनों का स्पष्ट मत है कि तिब्बत समस्या का समाधान भारत की ‘‘शांति, सुरक्षा, समृद्धि एवं स्वाभिमान’’ के लिए जरूरी है। तिब्बत यदि स्वतंत्र होता तो चीन द्वारा भारत पर हमला संभव नहीं था। ‘‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’’ तथा ‘‘पंचशील’’ महत्वहीन हो गए क्योंकि तिब्बत गुलाम हो गया। भारत एवं चीन के बीच 1962 के पहले कभी युद्ध नहीं हुआ था, क्योंकि दोनों देशों की सीमायें आपस में नहीं जुड़ी थीं। बीच में स्वतंत्र तिब्बत था। तिब्बत की स्वतंत्रता समाप्त होते ही हमारा कैलाश-मानसरोवर भी चीन के अवैध आधिपत्य में चला गया।