तिब्बत में पिछले छ: दशकों से तिब्बती, जिन्हें चोल्खा-सम (यू-शांग, खाम तथा आमदो) के नाम से जाना जाता है, चीन सरकार की दमनकारी नीतियों के साये में जिंदगी जीने को मजबूर हैं. उनकी धार्मिक मान्यताओं, अनोखी सांस्कृतिक विरासत तथा राष्ट्रीयता के बोध ने उन्हें इस आस से बांधे रखा है कि कभी तो आजादी मिलेगी. इस उम्मीद के चलते वे शांतिपूर्ण ढंग से निरंतर अपने अधिकारों की आवाज बुलंद करते रहते हैं. दलाईलामा इन्हीं लोगों के लिए सिर्फ आजादी चाहते हैं, और कुछ नही.
तिब्बत की अपनी एक अलग राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक पहचान है. मगर चीन सरकार द्वारा उसकी इसी पहचान को हमेशा मिटाने की साजिश की जाती रही है. जो बौद्ध भिक्षु हमेशा न सिर्फ स्वयं अहिंसा के अनुयायी रहे बल्कि दुनिया को भी हमेशा अहिंसा के रास्ते पर चलने का संदेश दिया, आज उन्हीं का वतन हिंसा की आग में जल रहा है. कहने को तो तिब्बत को स्वायत्त क्षेत्र, स्वायत्त देश तथा स्वायत्तशासी प्रदेश जैसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है लेकिन यह स्वायत्तता सिर्फ नाम की है और हकीकतन तिब्बत को कभी स्वायत्तता मिली ही नहीं. बड़ी अजीब बात तो यह है कि इस पर उन लोगों का शासन चलता है जो इस क्षेत्र की परिस्थितियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं.
आधुनिक ज्ञान के क्षेत्र में तिब्बत के लोग काफी पीछे छूट चुके हैं. यह सब चीन सरकार के तिब्बतियों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण हो रहा है और इसी का नतीजा है कि करीब डेढ़ लाख तिब्बती निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं. तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाईलामा एक बेघर इंसान की तरह अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा (करीब 24 साल की उम्र से) भारत के मेहमान के तौर पर गुजार रहे हैं. चीन सरकार का तिब्बत पर सन् 1951 से कब्जा है जिसकी स्वायत्तता की मांग हम हमेशा से करते रहे हैं.
हम अलग देश की मांग नहीं कर रहे हैं, सिर्फ अपनी उस स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं जिससे हम खुली फिजां में सांस ले सकें. आज पूरा विश्व बड़ी उम्मीदभरी निगाहों से चीनी नेतृत्व की ओर देख रहा है कि वह किस तरह से, खासकर तिब्बत में सामाजिक एकता और शांति को बढ़ावा देगा. इसके लिए उसे सिर्फ अर्थव्यवस्था की तरक्की नहीं, बल्कि कानून में पारदर्शिता, सूचना का अधिकार व अभिव्यक्ति की आजादी जैसी बातें अमल में लानी होंगी. आजादी का अर्थ धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाजों की आजादी है, हम उसी की मांग कर रहे हैं.
स्वतंत्रता की मांग हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन मौजूदा परिस्थिति में जिस तरह नरसंहार हो रहा है, इसमें स्वतंत्रता की मांग उचित नहीं है. इसलिए आजाद सोच की बात चली और ऐसा चीन के संविधान में भी मुमकिन है. लिहाजा धर्मगुरु दलाईलामा ने बीच का रास्ता निकाला है. हम चीनी संविधान के अनुसार चाहते हैं कि हमें अल्पसंख्यक का ही दर्जा दिया जाए लेकिन हमसे हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक आजादी न छीनी जाए. हमें मात्र जमीन की आजादी नहीं चाहिए. स्वायत्तता की मांग उसी के मद्देनजर है.
चीन हमेशा सोचता है कि भारत तो उसकी कठपुतली है. चीन भारत से अच्छे रिश्तों का भी हमेशा गलत फायदा उठाने की कोशिश करता है. इस मसले पर हम भारत का समर्थन लेने की कोशिश करेंगे. भारत सरकार ने हमेशा ही हमारा साथ दिया है और यहां के लोगों की पूरी सहानुभूति हमारे साथ है. हम दुनिया की भी आंखें खोलेंगे और उन्हें यह एहसास दिलाएंगे कि यह 21वीं सदी है, और इसमें कोई तानाशाही नहीं चलेगी. हम पूरे विश्व का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करेंगे. हमारा यह विरोध प्रदर्शन तब तक नहीं रुकेगा जब तक हमें अपनी स्वायत्तता नसीब नहीं हो जाती है.
प्रस्तुति: भावना सिंह