हिंदुस्तान, 30 मार्च 2019
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार
आज से ठीक साठ साल पहले, मार्च 1959 के अंतिम सप्ताह में दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत पहुंचे थे। कारण था, तिब्बती विद्रोह को चीन की सेना द्वारा क्रूरतापूर्वक कुचल दिया जाना। वह अरुणाचल प्रदेश में दाखिल हुए, जो तब नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी के नाम से जाना जाता था। याक पर बैठकर जब वह यहां पहुंचे, तो पेचिश (दस्त) से गंभीर रूप से जूझ रहे थे। जिन भारतीय अधिकारियों ने उनका स्वागत किया, उनमें एक सिख (हरमंदर सिंह) थे और दूसरे, दक्षिण भारत के एक हिंदू (टीएस मूर्ति)। इस स्वागत का गहरा प्रतीकात्मक अर्थ था, क्योंकि चीन में जहां कम्युनिस्टों ने अपने तमाम नागरिकों पर सिर्फ ‘हान’ संस्कृति थोपनी चाही, वहीं लोकतांत्रिक गणराज्य भारत अपनी धार्मिक और भाषायी विविधता को पेश कर रहा था।
दलाई लामा के पलायन की परिस्थितियों का वर्णन क्लाउड अर्पि नामक स्कॉलर ने अपने एक निबंध में किया है। उसमें उन्होंने उस चिट्ठी का जिक्र किया है, जिसे दलाई लामा ने भारतीय प्रधानमंत्री को लिखा था। पत्र की पंक्ति है, ‘जब से तिब्बत लाल चीन के कब्जे में गया है और 1951 में तिब्बत की सरकार ने अपनी शक्ति गंवाई है, मैं और मेरे सरकारी अधिकारी तथा यहां के लोग तिब्बत में शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। पर चीन सरकार धीरे-धीरे तिब्बती हुकूमत को निगलती जा रही है। इस गंभीर स्थिति में हम तसोना होकर भारत में दाखिल हो रहे हैं। उम्मीद है, आप भारतीय क्षेत्र में हमारे लिए जरूरी व्यवस्था करेंगे। आपकी दयालुता पर मुझे भरोसा है।’
जवाब में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, ‘मैं और मेरे सहयोगी आपका स्वागत करते हैं, और आपके भारत में सुरक्षित प्रवेश के लिए आपको शुभकामनाएं देते हैं। आप, आपके परिवार और आपके साथ आए तमाम लोगों की जरूरी सुख-सुविधाओं को पूरा करने में हमें खुशी होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के लोग, जो आपके प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं, अपना पारंपरिक सम्मान देते रहेंगे।’
ऐसा हुआ भी। छह दशकों से दलाई लामा भारत में हैं, और उन्हें यहां भरपूर स्नेह और सम्मान मिला। उनके बाद आने वाले तिब्बतियों को भी यहां अपनी जिंदगी फिर से संवारने के लिए हरसंभव मदद दी गई, जबकि यह उनकी मातृभूमि नहीं थी। दलाई लामा और उनके लोगों को दिया गया आतिथ्य एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हमारे इतिहास का प्रशंसनीय अध्याय है। दलाई लामा खुद भी इस सदाशयता के लिए आभारी हैं। वह जानते हैं कि उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं इसीलिए जीवित हैं, क्योंकि उन्हें भारत में नया जीवन मिला, चीन उनको न जाने कब खत्म कर चुका होता।
भारत के लोगों ने दलाई लामा को प्यार और सम्मान दिया, तो बदले में उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। मगर हाल की भारतीय सरकारें सार्वजनिक तौर पर उनका स्वागत करने और उन्हें सम्मानित करने में एहतियात बरतती रही हैं कि कहीं चीन नाराज न हो जाए। ऐसा हमेशा से नहीं था। मेरे पास इस तिब्बती नेता और लाल बहादुर शास्त्री की एक प्यारी तस्वीर है, जो 1965 में खींची गई थी, जब शास्त्रीजी प्रधानमंत्री थे। इस तस्वीर में युवा दलाई लामा बड़ी सौम्यता के साथ बुजुर्ग शास्त्रीजी को देख रहे हैं, दोनों के चेहरे पर मुस्कान है। क्या दलाई लामा की इस तरह की तस्वीर बाद के किसी प्रधानमंत्री के साथ भी है? मुझे इसकी उम्मीद नहीं है।
क्लाउड अर्पि ने जो लिखा है, उसमें उन्होंने भारतीय भूमि पर इस तिब्बती नेता की पहली बातचीत की आधिकारिक रिपोर्ट की चर्चा भी की है। यह बातचीत उनके सीमा पार करने के एक दिन बाद 1 अप्रैल को हुई थी। रिपोर्ट कहती है- ‘09:00 बजे दलाई लामा द्वारा अस्सिटेंट पॉलिटिकल ऑफिसर को बुलाया गया। ‘धर्मगुरु’ ने उनके साथ निम्नलिखित बिंदुओं पर बातचीत की- चीन की नीति लगातार अत्यधिक धर्म-विरोधी होती जा रही थी; तिब्बत के लोग तनाव में थे और वह उन्हें ज्यादा देर तक चीन के शासन को बर्दाश्त करने के लिए रोक नहीं सकते थे; चीनियों ने उनके लोगों की जान खतरे में डालने की कोशिश की थी; तिब्बत को आजाद होना चाहिए; उनके लोग अपनी आजादी हासिल करने के लिए लड़ते रहेंगे; उन्हें यह विश्वास था कि भारत की सहानुभूति तिब्बतियों के साथ है…।’
अप्रैल 1959 में दलाई लामा शायद यह मान रहे थे कि भारतीयों, खासकर अमेरिकियों की मदद से तिब्बती एक दिन चीन के शासन से जरूर आजाद हो जाएंगे। लेकिन 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की चीन-यात्रा के बाद उन्होंने महसूस किया कि यह उम्मीद बेमानी थी। अब तो उनका यह मानना है कि बीजिंग में बैठी सरकार यदि तिब्बतियों की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं का सम्मान करती है, तो तिब्बत चीन का हिस्सा बन सकता है। क्या चीन दोस्ती का यह हाथ स्वीकार करेगा और उन्हें अपनी जन्मभूमि पर वापस लौटने देगा? दलाई लामा को अपने आखिरी दिनों के लिए ल्हासा लौटने की अनुमति देना इस सवाल का एक शालीन जवाब हो सकता है। मगर दुख की बात है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में ऐसी समझदारी की कमी है। उसे डर है कि 80 साल का यह शांतिप्रिय बूढ़ा उसकी सत्ता के खिलाफ विरोध का लोकप्रिय चेहरा न बन जाए।
चीनी हुकूमत शायद ही उचित कदम उठाएगी, लेकिन भारत को क्या करना चाहिए? मुझे लगता है कि दलाई लामा के लिए हमारे मन में जो प्यार और सम्मान की भावना है, उसका इजहार न सिर्फ आम लोगों को, बल्कि भारत सरकार को भी करना चाहिए। पहले तो उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए, और फिर उनके भारत-आगमन के साठ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में उनके सम्मान में राष्ट्रपति को एक आधिकारिक स्वागत समारोह का आयोजन करना चाहिए। सार्वजनिक रूप से दलाई लामा को सम्मानित करना हमारा एक अच्छा रणनीतिक कदम भी होगा। हमारे वामपंथी बुद्धिजीवियों के साथ-साथ दक्षिणपंथी रुझान वाले कारोबारी बेशक चीन के साथ द्विपक्षीय रिश्ते को लेकर अत्यधिक सावधानी बरतने का आग्रह करते हैं, मगर ऐसे तुष्टिकरण का समय अब बीत चुका है। भारत के खिलाफ पाकिस्तान की आतंकी कार्रवाइयों का चीन जिस तरह से समर्थन करता है, उसे देखते हुए हमें अपने तईं सख्त कदम उठाने चाहिए। हमारे नेताओं को लाल बहादुर शास्त्री की तरह व्यवहार करना चाहिए और इस महान आध्यात्मिक नेता की संगति पर गौरवान्वित महसूस करना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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