तिब्बत और उइगर इलाके में बढते दमन पर अंतरराष्ट्रीय आक्रोश और हांगकांग में अशांति से बेपरवाह चीन ने इस महीने भारतीय पत्रकारों को अपने यहां बुलाया और दलाई लामा एवं अरुणाचल प्रदेश के मसले पर मनबढ़ तरीके से भारत को चेतावनी दी। उन्हें साफ तरीके से यह संदेश दे दिया गया, बिल्कुल धमकी वाले अंदाज में ही, कि 15वें दलाई लामा का चयन चीन अपने देश के भीतर ही करेगा और भारत के द्वारा इस मसले पर कोई भी दखल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
लगता है कि इस कदम के पीछे प्रेरणा चीन ने सुन त्जु के युद्ध कौशल कला की दो कहावतों से ली है। पहला, आप जितना ही किसी देश (दुश्मन) के भीतर घुसेंगे, उतनी ही आपके सैनिकों की एकजुटता बढ़ेगी, इस तरह बचाव करने वाले सैनिक आपसे जीत नहीं पाएंगे।
दूसरा, ”नुकसान पहुंचाकर दुश्मन के नेतृत्व की संख्या कम करें, उनके लिए परेशानी पैदा करें और उन्हें लगातार उलझाए रखें, उनके लिए खास प्रलोभन बनाए रखें और कोशिश करें कि वे किसी एक स्थान की ओर तेजी से जाएं।”
तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र (टीएआर) में उप मंत्री और जन सरकार सूचना कार्यालय में महानिदेशक वांग नेंग शांग, चीन सरकार की तिब्बत नीति के बारे में प्रमुख थिंक टैंक चाइना तिब्बतोलॉजी रिसर्च सेंटर में निदेशक झा लुओ और इंस्टीट्यूट ऑफ कमेंटरी स्टडीज में असिस्टेंट फेलो शियाओ जिए उन तीन मुख्य चीनी अधिकारियों में से थे जिन्होंने चीन दौरे पर गए पत्रकारों से संवाद किया और अपनी बात रखी।
चीनी अधिकारियों ने दलाई लामा के पुनर्जन्म के चयन के लिए दो चीजों को महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मानदंड बताया। पहला, यह चयन 200 वर्षों की ऐतिहासिक प्रक्रिया के आधार पर चीन के भीतर होनी चाहिए। दूसरा, इसे चीन की केंद्रीय सरकार की मंजूरी मिलनी चाहिए। वांग और शियाओ ने यह बताने की भी कोशिश की कि मौजूदा 14वें दलाई लामा इस वजह से दलाई लामा बने हुए हैं, क्योंकि चीन की केंद्रीय सरकार ने उन्हें मान्यता दी है।
इन तीनों विद्वान अधिकारियों का सम्मान करते करते हुए हम कहना चाहेंगे कि हम उनसे इत्तेफाक नहीं रखते, क्योंकि तथ्य कुछ और ही हैं। यह इतिहास और धार्मिक तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का चीनी नेतृत्व का खुल्लम-खुल्ला और जानबूझकर किया गया प्रयास है।
जब वे ”200 साल पुरानी ऐतिहासिक प्रक्रिया” की बात करते हैं, तो यह करीब 1819 ईस्वी के आसपास क्विंग वंश के शासक जियाक्विंग (1796 से 1820) के शासन की बात होगी. लेकिन दलाई लामा की संस्था और इतिहास तो 600 साल से भी ज्यादा पुराना है, जब 1391 में पहले दलाई लामा का जन्म हुआ था। यह चीन में क्विंग वंश के उभार (1644-1911) से काफी पहले से अस्तित्व में थी। इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से यह कथित धारणा थोपना कि दलाई लामाओं का पुनर्जन्म क्विंग शासक के आदेश से संचालित होता था, बेबुनियाद और निराधार है।
अब दलाई लामा के पुनर्जन्म के इतिहास पर एक नजर डालते हैं।
पहले दलाई लामा, गेदुन ड्रुपा का जन्म 1391 में हुआ और उनके पुनर्जन्म दूसरे दलाई लामा गेदुन ग्यात्सो का जन्म 1475 में हुआ। तीसरे दलाई लामा सोनम ग्यात्सो का जन्म 1543 में हुआ था, उनके समय में ही मंगोलिया नरेश अल्तान खान ने उनका सम्मान करते हुए उन्हें दलाई लामा की उपाधि दी। चौथे दलाई लामा योनतेन ग्यात्सो का जन्म 1589 में मंगोलिया में हुआ था। पांचवे पुनर्जन्म लोबसांग ग्यात्सो (1617-1682), मंगोलियाई शासक गुशरी खान की मदद से तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक प्रमुख बने। इसके बाद 1682 में छठे, 1708 में सातवें और 1758 में आठवें दलाई लामा और 1805 में नौवें दलाई लामा आए।
इन सभी पुनर्जन्म का चयन तिब्बती धार्मिक परंपरा के मुताबिक हुआ। 1792 में मांचू शासक क्विंगलोंग के शासन के दौरान (1736-1795) तिब्बत ने गोरखा सैनिकों के हमले से मुकाबले के लिए मांचू शासकों से मदद मांगी। ऐसा चौथी बार हुआ था, जब तिब्बतियों ने मांचुओं से मदद मांगी थी, तो मांचू अधिकारियों ने तिब्बत में प्रभावी प्रशासन के लिए 29 बिंदुओं वाले एक रेगुलेशन (नियमन) का सुझाव दिया। यह गुरु-चेले के रिश्ते पर आधारित था, इसमें शासक-शासित जैसी कोई बात नहीं थी। इन सुझाव वाले बिंदुओं में से एक यह भी था कि दलाई लामाओं और पंचेन लामाओं के पुनर्जन्म के चयन के लिए स्वर्ण कलश विधि का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन सिर्फ 11वें पंचेन लामा के चयन के अलावा इस विधि का इस्तेमाल कभी नहीं किया गया। 10वें और 12वें पंचेन लामा के लिए इसका इस्तेमाल बस मांचुओं के साथ एक अच्छा मजाक ही था, क्योंकि चयन की पुष्टि पहले से ही तिब्बती धार्मिक परंपराओं के मुताबिक हो चुकी थी।
इस प्रकार, दलाई लामाओं के चयन के लिए तिब्बतियों की सदियों पुरानी परंपराओं का पालन किया जाता था। 13वें और 14वें दलाई लामा का पुनर्जन्म भी तिब्बती धार्मिक परंपरा के मुताबिक किया गया। सन 1940 में 14वें दलाई लामा की ताजपोशी के दौरान चीन सहित पड़ोसी देशों के कई प्रतिनिधि आए। इसके लिए किसी भी प्रकार की किसी केंद्रीय सरकार से कोई मंजूरी या मान्यता नहीं ली गई। इसलिए, वांग और शियाओ का यह दावा कि, ”केंद्र सरकार की मान्यता से दलाई लामा 14वें दलाई लामा बने” वास्तव में गुमराह करने वाला और खेदजनक है।
इसलिए, तीन चीनी सरकारों का यह आधिकारिक बयान, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि दलाई लामा के पुनर्जन्म की मान्यता के लिए स्वर्णकलश विधि और चीन की केंद्रीय सरकार की मंजूरी अनिवार्य है, असत्य और निराधार है। यह अपने मौजूदा राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने के लिए तिब्बत की प्राचीन धार्मिक परंपराओं से छेड़छाड़ करने का चीनी नेतृत्व का आक्रामक और निंदनीय प्रयास है।
सीधे अगर ऐतिहासिक तथ्यों की बात करें तो सिर्फ मांचू क्विंग वंश के शासकों के साथ तिब्बतियों का कोई रिश्ता था और उस समय चीन इस वंश का बस एक हिस्सा था। चीन का तिब्बत पर दावा यदि तिब्बतियों के साथ मांचुओं के रिश्ते पर आधारित है, तो तिब्बत पर इससे बेहतर दावा तो मंगोल कर सकते हैं।
चीनी गणराज्य के पिता कहे जाने वाले सुन यात्सेन ने कहा था कि चीनी राष्ट्र दो बार विदेशी शासन के कब्जे में आयाः पहली बार मंगोल युआन वंश (1271-1368) के समय और दूसरी बार मांचू क्विंग वंश (1644-1911) के समय. तो चीन कहां था? वांग और शियाओ किस केंद्रीय सरकार की बात कर रहे हैं? कम्युनिस्ट चीन का चीन जनवादी गणराज्य तो अक्टूबर 1949 में अस्तित्व में आया।
परमपावन दलाई लामा ने कई मौकों पर पुनर्जन्म के बारे में अपना रुख साफ कर दिया है। सितंबर 2011 में उन्होंने इस बारे में जो कुछ कहा, वह उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद हैः
”जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं, पुनर्जन्म एक ऐसी घटना है जो कि या तो संबंधित व्यक्ति की अपनी स्वयं की इच्छा के द्वारा होनी चाहिए या कम से कम उसके अपने कर्म, योग्यता और प्रार्थनाओं के आधार पर। इसलिए जो व्यक्ति पुनर्जन्म लेता है, यह केवल उसी का वैधानिक अधिकार है कि वह कहां और कैसे पुनर्जन्म लेता है और किस तरह से यह पुनर्जन्म पहचाना जाता है।
यह एक सच्चाई है कि कोई भी और व्यक्ति संबंधित व्यक्ति को मजबूर नहीं कर सकता या उसे गुमराह नहीं कर सकता। खासकर चीनी कम्युनिस्टों के लिए तो यह बहुत ही अनुपयुक्त है, जो कि अतीत या भविष्य के जीवन को पूरी तरह से खारिज करते हैं, कि सिर्फ टुल्कू के पुनर्जन्म की धारणा को मानें, पुनर्जन्म की व्यवस्था में दखल दें, खासकर दलाई लामा और पंचेन लामा के पुनर्जन्म में। इस प्रकार की निर्लज्ज दखलंदाजी उनके अपने राजनीतिक विचारधारा की विरोधाभासी है और उनके दोहरे मानक को उजागर करती है। अगर यह हालात भविष्य में भी जारी रहे तो तिब्बतियों और तिब्बती बौद्ध परंपराओं का पालन करने वालों के लिए इसे मानना या स्वीकार करना असंभव होगा। जब मैं 90 साल का हो जाऊंगा तो मैं तिब्बती बौद्ध परंपरा के उच्च लामाओं, तिब्बती जनता और बौद्ध धर्म का पालन करने वाले अन्य संबंधित व्यक्तियों से परामर्श करूंगा और इस बात पर पुनर्विचार करूंगा कि दलाई लामा की संस्था को जारी रहना चाहिए या नहीं। इस आधार पर हम कोई निर्णय लेंगे।
यदि यह निर्णय लिया जाता है कि दलाई लामा के पुनर्जन्म को जारी रहना चाहिए और पंद्रहवें दलाई लामा को मान्यता दिए जाने की जरूरत है, तो ऐसा करने की पूरी जिम्मेदारी प्राथमिक रूप से दलाई लामा के गादेन फोड्रांग ट्रस्ट के संबंधित अधिकारियों की होगी। उन्हें इसके लिए तिब्बती बौद्ध परंपरा के विभिन्न प्रमुखों से परामर्श करना होगा और उन भरोसेमंद शपथबद्ध धर्मरक्षकों से भी जो कि दलाई लामा की वंशावली से अविभाज्य तरीके से जुड़े हुए हैं। उन्हें इन संबंधित व्यक्तियों से सलाह और निर्देशन लेना होगा और उसके बाद पुरानी परंपराओं के मुताबिक खोज और मान्यता की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना होगा। मैं इसके बारे में स्पष्ट लिखित निर्देश देकर जाऊंगा। यह बात दिमाग में रखनी होगी कि ऐसे वैधानिक तरीकों से पुनर्जन्म को मान्यता देने के अलावा किसी के भी द्वारा किसी राजनीतिक उद्देश्य से चुने गए उम्मीदवार को मान्यता या स्वीकृति नहीं दी जा सकती, चाहे वह चीन जनवादी गणराज्य द्वारा ही क्यों न चुना गया हो।”
अंतरराष्ट्रीय समुदाय परमपावन दलाई लामा का सम्मान एक महान आध्यात्मिक गुरु के रूप में करता है और शांति एवं अहिंसा को बढ़ावा देने में उनके योगदान के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, लेकिन चीनी नेतृत्व उनकी आलोचना करते हुए उन्हें शैतान, आतंकवादी, अलगाववादी और भेड़ की खाल में भेड़िया तक कहता रहा है। इसलिए यहां बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठता हैः वे एक शैतान, आतंकी, अलगाववादी और भेड़िये के पुनर्जन्म को लेकर इतना बेकरार क्यों हैं?
पुनर्जन्म की अवधारणा अतीत और भविष्य के जीवन की बौद्ध और हिंदू मान्यताओं पर आधारित है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी नेतृत्व को तिब्बती लामाओं के पुनर्जन्म में दखल देने से पहले यह सीखना और स्वीकार करना चाहिए कि अतीत और भविष्य का जीवन होता है। चीन के राज्य धार्मिक मामलों के ब्यूरो के आदेश संख्या 5 को हटा लेना चाहिए। बौद्ध धर्म के लोग और चीन सहित दुनिया भर में इनके अनुयायी इस कम्युनिस्ट ईशनिंदा कानून को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
इसलिए आज़ाद दुनिया के नेता और दुनिया भर में आज़ादी, न्याय और लोकतंत्र की वकालत करने वाले लोगों को पुनर्जन्म के मसले पर परमपावन दलाई लामा की राय को ही अंतिम मानना चाहिए और सामूहिक रूप से चीन सरकार से यह अनुरोध करना चाहिए कि वह तिब्बती बौद्ध धर्म की सर्वोच्च व्यवस्था के खिलाफ अनादर का कोई कृत्य न करे। तथ्य तो यह है कि दलाई लामाओं के चयन में कम्युनिस्ट चीन का कोई भी ऐतिहासिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकार नहीं है।