विश्वविख्यात बौद्ध धर्मगुरु और नोबेल शांति पुरस्कार समेत शताधिक सम्मानों से विभूषित दलाई लामा ने चीनी कब्जे से आत्मरक्षा के लिए 1959 में अपने कई हजार अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली। तब से अबतक कुल एक लाख तिब्बती स्त्री-पुरुष भारत और नेपाल के विभिन्न प्रदेशों में शरणार्थी जीवन का शांति और संयम के साथ निर्वाह कर रहे हैं। इन तिब्बतियों के साथ भारत की पूरी हमदर्दी है और हिमालय क्षेत्र के निवासियों, बौद्धों, गांधीमार्गियों और समाजवादियों का विशेष अनुराग रहा है। तिब्बत के लोग भी अपनी पीड़ा के प्रति संवेदना रखनेवाले सभी भारतीय नेताओं, विशेषत: डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, लामा कुशक बकुला, निजलिंगप्पा, आचार्य कृपलानी, डॉ. आंबेडकर, लालबहादुर शास्त्री, मोहम्मद करीम छागला, डॉ. रघुवीर, जयप्रकाश नारायण और डॉ. लोहिया के दिये वक्तव्यों को बराबर याद रखते हैं।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1949 में ही तिब्बत के बारे में चीन की कपटपूर्ण नीति को पहचानते हुए इसे ‘शिशु-ह्त्या’ कहा था। बाद के वर्षों में देश के अनेक केन्द्रों में ‘हिमालय बचाओ सम्मेलन’ आयोजित करके दलाई लामा और तिब्बती समाज के पक्ष में राष्ट्रीय सहमति को मजबूत किया। भारतीय संसद में भी तिब्बत की आजादी के बारे में बहस चलायी। जयप्रकाश नारायण ने 1959-60 में ही तिब्बत की मदद के लिए कोलकाता में एफ्रो-एशियाई सम्मेलन किया। दलीय राजनीति छोड़कर सर्वोदय का गांधीमार्ग अपनाने के बावजूद सारी जिन्दगी दलाई लामा के मददगार रहे। यह सिलसिला अगली पीढ़ी के समाजवादी नायकों ने जारी रखा। तिब्बत के प्रति कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और अधिकांश क्षेत्रीय दलों की भी सहानुभूति रही है।
इसके परिणामस्वरूप दलाई लामा और तिब्बती प्रवासी अपनी अल्पसंख्या और सीमित साधनों के बावजूद विराट चीन की महाशक्ति के सामने तिब्बत की आजादी की मांग को लेकर धीरज के साथ डटे हुए हैं। चीन ने तिब्बत को हड़पकर अपने क्षेत्रफल में 25 लाख वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी की है। उसके कब्जे में सिंक्यांग (पूर्वी तुर्किस्तान/ ‘उग्यूर’) का 16 लाख वर्ग किलोमीटर और भारत का 43,000 वर्ग किलोमीटर इलाका भी है। इस विस्तारवाद के विरुद्ध उग्यूर लोगों ने हथियारी विद्रोह का रास्ता अपनाया है। भारत की सेना को भी चीनी हरकतों के खिलाफ 1962 से 2021 के बीच कभी छोटे और कभी बड़े हस्तक्षेप करने पड़े हैं। लेकिन बुद्धमार्ग का अनुयायी होने के कारण तिब्बती समाज अपनी आजादी की लड़ाई में सिर्फ अहिंसक तरीकों के लिए प्रतिबद्ध है और वे चीनी समाज के प्रति कटुता और घृणा से दूर रहते हैं। उन्होंने इसे ‘तिब्बत मुक्ति साधना’ का नाम दिया है।
दलाई लामा के नेतृत्व में इन स्वतंत्रता सेनानियों ने तिब्बत की पहचान की रक्षा की है और इनकी अबतक की चार पीढ़ियों ने अपने मुक्ति आन्दोलन को लगातार विस्तार दिया है। इसका मूल कारण क्या है? एक तो, भारत और नेपाल में प्रवासी होने को विवश तिब्बतियों की देखरेख और मार्गदर्शन के लिए एक केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन की व्यवस्था है। इसका संचालन जनतांत्रिक आधार पर चुने गये तिब्बती प्रतिनिधि ही करते हैं। दूसरे, 1959 में भारत आए तिब्बती लोग सिर्फ तिब्बती भाषा और बौद्ध विद्याओं से अवगत थे। लेकिन तबसे अब के बीच तिब्बती प्रशासन ने एक उच्च कोटि की शिक्षा व्यवस्था स्थापित करते हुए नयी पीढ़ी के तिब्बतियों को दुनिया में प्रचलित ज्ञान-विज्ञान की प्रमुख धाराओं से जोड़ लिया है। युवा तिब्बतियों में सौ प्रतिशत साक्षरता है। तिब्बती, हिंदी और अंग्रेजी का ज्ञान है। तीसरे, इनके जीवन में अपनी परम्परा, भारतीय संस्कृति और पश्चिमी आधुनिकता का समन्वय भी है। इस प्रकार दलाई लामा के मार्गदर्शन में, अपने देश में न होने के बावजूद, सहभागी लोकतंत्र के आधार पर स्वराज और सुशासन की रचना जारी है। इन उपलब्धियों के लिए तिब्बती प्रवासी भारत के आभारी हैं और पूरे 2019-20 को ‘धन्यवाद, भारत!’ के रूप में मनाया है।
लेकिन इस अनूठी मैत्री-कथा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है : दलाईलामा और तिब्बती प्रवासियों का भारत में योगदान। इस विषय पर भारत-तिब्बत मैत्री संघ ने 22 अगस्त को एक वेबिनार आयोजित किया, जिसकी रपट समता मार्ग के हलचल स्तंभ में प्रकाशित है।