(यूरेशियारीव्यू डॉट कॉम, 19 फरवरी, 2012)
बी. रमन
तिब्बत में हान शासकों द्वारा हाल में दिया गया कठोर बयान जिसमें उन्होंने तिब्बत के हालात पर चिंता जताते हुए यह दृढ़ निश्चय किया है कि वे तथाकथित अलगाववादी आंदोलन को कुचल डालेंगे, वास्तव में उनकी घबराहट को प्रदर्शित करता है। यह घबराहट असल में इस वजह से आर्इ है क्योंकि वे इस बात को समझने में नाकाम रहे हैं कि चीन के तिब्बती इलाकों में क्या चल रहा है और तिब्बत में 2008 के बाद महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध के तरीके सत्याग्रह के रास्ते पर चलने वाले आंदोलन को कुचलने की कोशिश का क्या नतीजा हो सकता है।
चीनी शासक साल 2008 के हिंसक जनक्रांति को कुचलने में तो कामयाब रहे हैं, लेकिन वे आज़ादी की तिब्बती उत्कंठा को नहीं दबा पाए हैं। वे तिब्बतियों में परमपावन दलार्इ लामा के प्रति प्यार और बौद्ध धर्म के प्रति समर्पण को नहीं खत्म कर पाए हैं। वे तिब्बतियों की अपने पहचान के प्रति गौरव को नहीं खत्म कर पाए हैं।
तिब्बतियों (खासकर अगली पीढ़ी के) ने यह समझ लिया है कि अपने गौरव एवं आज़ादी पर जोर देने और तिब्बत के हान उपनिवेशीकरण को खत्म करने की उम्मीद को जिंदा रखने का यही तरीका है कि महात्मा गांधी के उस अहिंसक संघर्ष के रास्ते पर चला जाए जो कि उन्होंने भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ अपनाया था।
इन्हीं विचारों के आधार पर ल्हाकर आंदोलन का जन्म हुआ। ल्हाकर का मतलब होता है सफेद बुधवार- यह दिन परमपावन दलार्इ लामा की आत्मा से जुड़ा हुआ है। हर बुधवार को हजारों तिब्बती मर्द, औरत एवं बच्चे अपने गांवों, कस्बों में बैठक करते हैं और निम्न शपथ लेते हैं:
मैं तिब्बती हूं। यह मेरा राष्ट्रीय ध्वज है।
मैं तिब्बती हूं। मैं छुपा पहनता हूं (तिब्बती पहनावा)।
मैं तिब्बती हूं। मैं सूखा चीज़ खाता हूं।
मैं तिब्बती हूं। मैं तिब्बत के संघर्ष के लिए काम करता हूं।
मैं तिब्बती हूं। मैं साम्पा (तिब्बती खाध पदार्थ) खाता हूं।
मैं तिब्बती हूं। मैं तिब्बती नमकीन मक्खन चाय पीता हूं।
मैं तिब्बती हूं। मैं तिब्बती भाषा बोलता हूं।
मैं तिब्बती हूं। मेरे मां-बाप तिब्बती हैं। मेरे अगुआ परमपावन दलार्इ लामा है।
मैं तिब्बती हूं। मैं परमपावन का शिष्य हूं।
मैं तिब्बती हूं। मेरे पिता एक तिब्बती हैं।
मैं तिब्बती हूं। मेरे शरीर में तिब्बती खून बहता है।
मैं तिब्बती हूं। मैं तिब्बत के संघर्ष के लिए काम करता रहूंगा।
मैं तिब्बती हूं। मुझे अपने तिब्बती होने पर गर्व है।
मैं तिब्बती हूं। मैं खांगका चित्रकार हूं और तिब्बत की आज़ादी के लिए कार्य करने वाला हूं।
वे अपनी तिब्बती पहचान को बचाए रखने और हान संस्कृति एवं पहचान में विलय अपने विलय से इनकार के प्रति अपना दृढ़संकल्प दोहराते हैं। उनका ध्येय है- तिब्बती खाओ, तिब्बती बोलो, तिब्बती पहनो, तिब्बती सोचो, तिब्बती के रूप में जीओ और तिब्बती के रूप में ही मरो।
खुद तिब्बती ल्हाकर आंदोलन के बारे में बताते हैं, “ल्हाकर एक घरेलू, तिब्बतियों के अपने ऊपर भरोसे का आंदोलन है जो साल 2008 के जनक्रांति के बाद शुरू हुआ। चीन के भारी दमन के बावजूद तिब्बतियों ने रणनीतिक अहिंसक प्रतिकार की ताकत को अपनाया है। हर बुधवार को ज्यादा से ज्यादा संख्या में तिब्बती अपने परंपरागत परिधान पहनने, तिब्बती में बोलने, तिब्बती रेस्टोरेंट में खाना खाने और तिब्बतियों की दुकान से ही खरीदारी करने का विशेष प्रयास करते हैं। वे अपनी प्रतिकार की भावना को ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों में लगाते हैं जो रचनात्मक (तिब्बती भाषा, संस्कृति और पहचान को बढ़ावा देने वाली) हों और असहयोग (चीनी संस्थाओं एवं कारोबार को समर्थन से इनकार) आधारित भी हों।
ल्हाकर आंदोलन से चीनियों की बेचैनी बढ़ गर्इ है। वे यह नहीं समझ पा रहे कि इसे कैसे रोका जाए। हालांकि, इस प्रतिरोध आंदोलन ने दूसरे रूपों को भी अपनाया है-जैसे तिब्बती भिक्षुओं द्वारा आत्मदाह (पिछले साल मार्च से अब 24 तिब्बती आत्मदाह का प्रयास कर चुके हैं जिनमें 22 की मौत हो गर्इ है), मठों में परमपावन की तस्वीरें रखने पर जोर, मठों में चीनी ध्वज फहराने और चीनी नेताओं की तस्वीरें लगाने से इनकार, चीनी नया साल मनाने से इनकार, जिन मठों में चीनी सुरक्षा बल तैनात हैं वहां भिक्षुओं द्वारा अपने धार्मिक कृत्य करने से इनकार, चीन सरकार एवं कम्युनिस्ट पार्टी अधिकारियों द्वारा चलाए जा रहे तथाकथित पुनर्शिक्षा शिविर में शामिल होने से इनकार।
चीनी प्रशासन ने तिब्बती इलाकों में सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ा दी है और सभी इंटरनेट कनेक्शन काट दिए हैं। इन सबके बावजूद यह आंदोलन कम होता नहीं दिख रहा, इसके विपरीत यह दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा है। ब्रिटिश लोगों के खिलाफ गांधी जी का अहिंसक संघर्ष आखिरकार कामयाब रहा था और अंग्रेज भारत छोड़ने को मजबूर हो गए थे। क्या हान चीनियों के खिलाफ तिब्बतियों का यह अहिंसक संघर्ष भी कामयाब रहेगा? हान चीनी लोग तो ब्रिटिश से भी ज्यादा निर्दयी हैं। तिब्बतीयों को अपने संघर्ष को जिंदा रखने और अंत में विजय हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय (खासकर भारत) के नैतिक समर्थन की जरूरत है। हालांकि, यदि व्यावहारिक राजनीति भारत सरकार को तिब्बतियों को नैतिक समर्थन देने से रोकती हो तो भी भारतीय जनमत को उनका साथ नहीं छोड़ना चाहिए। वे हमारे खुद के स्वतंत्रता संघर्ष के रास्ते पर चल रहे हैं। वे हमारे उन महान नेताओं के कदमों पर चल रहे हैं जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ार्इ लड़ी थी। भारतीय जनमत का यह नैतिक दायित्व है कि वह तिब्बती सत्याग्रह के साथ सहानुभूति रखे और उसे नैतिक समर्थन दे।
(बी. रमन भारत सरकार के मंत्रिमंडल सचिवालय में अतिरिक्त सचिव पद से रिटायर हुए हैं और फिलहाल चेन्नर्इ के इंस्टीटयूट आफ टापिकल स्टडीज में निदेशक और चेन्नर्इ सेंटर फार चाइना स्टडीज में एसोसिएट हैं। उनका र्इ-मेल पता हैः