धर्मशाला। चीनी से तिब्बत की आजादी और वहां मानवाधिकारों के लिए लड़ने के कारण चीन की जेलों में 27 वर्षों तक कैद रहने वाली 88 वर्षीया तिब्बती महिला अमा अधे का 3 अगस्त को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला के मैक्लोडगंज में निधन हो गया।
1932 में पैदा हुई अमा अधे ने 1950 के दशक के अंत में तिब्बत पर चीनी कब्जे के खिलाफ तिब्बती प्रतिरोध में हिस्सा लिया और इस कारण चीनी जेल में 27 साल बिताया। अपनी अदम्य भावना और वीरता से प्रेरित होकर उन्होंने अपने लोगों की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी। इस कारण से अमा अधे को दुनिया भर में तिब्बती प्रतिरोध, साहस और देशभक्ति के प्रतीक के रूप में जाना जाने लगा।
अमा अधे का जन्म खाम प्रांत के न्यारॉन्ग में 1932 में हुआ था। उनके पिता डोरजी रबटेन और मां सोनम डोलमा थीं। वह बहुत कम उम्र से ही धर्मनिष्ठ बौद्ध थीं। काफी पहले एक साक्षात्कार में उन्होंने पहली बार चीनियों को देखकर आतंक की भावना का वर्णन किया और बताया कि कैसे चीनियों ने धनबल से तिब्बती बच्चों को लुभाने की कोशिश की और तिब्बतियों की मदद करने का ढोंग किया। अमा अधे और उनके पति ने ल्हासा से भागने की योजना बनाई, लेकिन भागने से पहले ही उनके पति को उनके सामने ही चीनियों ने जहर दे दिया।
इसके बाद वह 1950 में शुरू हुए चीनी अतिक्रमण के खिलाफ लड़ने के लिए खाम्पो के तिब्बती प्रतिरोध में शामिल हो गई। 1958 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें अपने दो छोटे बच्चों से अलग कर दिया गया। अमा अधे उन तिब्बतियों में से थी, जिन्होंने जेल में 27 साल तक सबसे लंबा समय बिताया था। उन्हें कैद से तब रिहा किया गया जब देंग जियाओपिंग ने 1985 में राजनीतिक कैदियों को क्षमा दान दिया था। बंदी होने के दौरान उन्हें अकथ यातना झेलनी पड़ी और श्रम करने को मजबूर होना पड़ा।
निर्वासन के अपने पूरे जीवन में उन्होंने चीनी कब्जे के बारे में और हजारों तिब्बती कैदियों के चीनी उत्पीड़न के कारण मारे जाने की कहानियों को सक्रिय रूप से सुनाया। वह 1987 में भारत भाग गई और दलाई लामा के निर्वासित जीवन और तिब्बती प्रशासन के केंद्र मैक्लोडगंज को अपना आवास बना लिया। 1997 में उन्होंने “अमा अधे: द वॉइस दैट रिमेम्बर्स: द हीरोइक स्टोरी ऑफ अ वुमन फाइट टू फ्री तिब्बत“ शीर्षक पुस्तक का विमोचन किया, जिसमें उनके अंतर्द्वंद्व की कठोर स्थितियों का वर्णन किया गया है।