11 मार्च, 2019
मार्च 1959 में जब दुनिया की छत कहे जानेवाले तिब्बत ने अर्थ / बोअर वर्ष में प्रवेश किया, तभी ल्हासा ने तिब्बती विद्रोह का दमन देखा। यह शायद 1950 के दशक की सबसे दुखद घटना थी। तिब्बती कैलेंडर में एक पूर्ण चक्र में यह कुछ बाहरी लोगों द्वारा देखे जाने वाले लोकप्रिय यादगार जनविद्रोह था। जिन्होंने ऐतिहासिक घटना को करीब से देखा, उन बाहरी लोगों में से एक आरएस कपूर थे जो ल्हासा के दक्षिण के ग्यांत्सेर में भारतीय व्यापार एजेंट थे। विदेश मंत्रालय को अपनी वार्षिक रिपोर्ट में इस अधिकारी ने लिखा, ‘तिब्बत के इतिहास में महत्वपूर्ण वर्षों की सूची में 1959 का साल सबसे खराब माना जाएगा। इसने तिब्बती लोगों के जीवन की राह को समाप्त कर दिया। दलाई लामा, जो महसूस करते थे कि अब वे प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं, उन्होंने मार्च में पूरे मंत्रिमंडल के साथ अपने देश को छोड़ दिया और भारत में शरण ले ली।‘
शुरुआत
कपूर ने रिपोर्ट में बोअर वर्ष के दौरान तिब्बत में घटनाओं का वर्णन जारी रखा। “विपक्ष का देश से बाहर होने के साथ ही चीनी शासन को खुली छूट मिल गई और वे इस देश को अधीन करने के लिए निकल पड़े। तिब्बत के लोग अपनी चल और अचल संपत्ति से वंचित हो गए हैं। जमींदारों, मध्यम वर्ग के लोगों और मठों के पास जो अनाज के स्टॉक थे, उन्हेंन कब्जे में ले लिया गया है। वर्ष के अंत तक तिब्बती पूरी तरह से चीनियों की दया पर आश्रित हो गए।‘ अपनी रिपोर्ट के निष्कर्ष में कपूर ने लिखा, ‘जबकि तिब्बत का ह्रदय स्थल खून से लथपथ हो रहा था, दुनिया में केवल बयान दिए जा रहे थे। संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत पर बहस की समाप्ति के साथ तिब्बतियों ने अपने अस्तित्व की सभी आशाओं को खो दिया। वह अब आसमान को सूखी आँखों से देख रहे थे और पूछ रहे थे- कहाँ हैं भगवान, कहाँ हैं बुद्ध?’
कपूर की कथा के अलावा, ल्हासा में भारतीय महावाणिज्यदूत मेजर एसएल छिब्बर द्वारा दिल्ली में अपने उच्चाकधिकारियों के लिए अधिक नजदीक से प्रेक्षक रिपोर्ट लिखी गई थी। इसके बाद दलाई लामा ने अपने संस्मरण में और जियांगलिन ली ने अपनी ‘तिब्बत इन अगोनी’ में और विस्तार से उन घटनाओं का विवरण दिया है। इनमें जियांगलिन ली के सभी स्रोत चीनी हैं।
60 साल बाद इन सभी विवरणों को पढ़ते हुए एक तथ्य यह सामने आता है कि 10 मार्च का विद्रोह (जैसा कि तिब्बतियों द्वारा जाना जाता है), मुख्य रूप से फ्रांस में 1789 में ‘बास्तिल डे’ की तरह एक लोकप्रिय जनविद्रोह था। यह चीनी कब्जे के खिलाफ ‘जनता’ की नाराजगी से पैदा हुआ एक सहज विद्रोह था।
अपनी रिपोर्ट में मेजर छिब्बर कहते हैं, ‘मार्च 1959 का महीना सबसे ऐतिहासिक होगा, क्योंकि इस महीने के दौरान तिब्बती भारी उथल-पुथल में थे और ल्हासा में खुले तौर पर चीनी शासन को चुनौती दी गई थी। उन्होंने (तिब्बतियों ने) फो मिमांग राचेन चि चोंग नामक एक संगठन की स्थापना की, जिसका अर्थ है, ‘तिब्बती पीपुल्स इंडिपेंडेंट ऑर्गनाइजेशन’। (उन्होंने) 1951 के चीन-तिब्बत समझौते को त्याग दिया। अपनी चीन विरोधी भावनाओं को प्रकट करने के लिए प्रदर्शनों का आयोजन किया और तिब्बत से चीनी शासन को वापस लेने की मांग की।
नतीजा
इसका अंत भारी रक्तपात में हुआ। इंडियन काउंसल की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘तोपखाने, मोर्टार, मशीन गन और सभी प्रकार के स्वचालित हथियारों से लैस चीनी असंगठित, कमजोर, अप्रशिक्षित तिब्बतियों पर टूट पड़े थे। यह युद्ध बहुत ही अल्पकालिक था। काउंसल रिपोर्ट कहती है कि उसका खुद का अनुभव भी भयानक रहा जब समर पैलेस के पास स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास में उसके बगल से दो ‘खोई हुई’ गोलियां गुजर गईं। अब दलाई लामा के पास ल्हासा भागने और अंतत: भारत में शरण लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने 31 मार्च को भारतीय सीमा पार कर लिया, जहां भारतीय अधिकारियों ने उनका स्वागत किया। उन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री नेहरू का एक पत्र दिया, जिसमें उनका भारत में स्वागत किया गया। दलाई लामा के साथ भारत के इस उदारतापूर्ण व्येवहार ने चीन का विचलित कर दिया। इसका नतीजा भी अंततः अगस्त 1959 में आया जब नेफा में पहली बार चीनी सेना ने हमला कर दिया। यह हमला अगस्ता में लोंग्जू (आज का अरुणाचल प्रदेश का ऊपरी सुबनसिरी जिला) और अक्तूबर में लद्दाख के कोंगक्ला में हुआ।
जियांगलिन ली ने अपने आलेख ‘सप्रेसिंग रिबेलियन इन तिब्बत एंड चीन-भारत बॉर्डर वार’ में एक दूसरा परिप्रेक्ष्य और अलग सिद्धांत पेश किया है। उनका कहना है कि तिब्बती प्रतिरोध को दबाकर असल में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) एक दूसरी महत्वपूर्ण लड़ाई के लिए अभ्यास कर रही थी जो भारत के खिलाफ आशंकित थी।
ली लिखती हैं, ‘25 मार्च से 5 अप्रैल तक, सीसीपी सेंट्रल कमेटी ने एक विस्तृत पोलित ब्यूरो की बैठक बुलाई और शंघाई में आठवीं केंद्रीय समिति के सातवें पूर्ण सत्र का आयोजन किया।‘ इन दोनों बैठकों में तिब्बत में विद्रोह का ‘शमन’ और भारत के साथ संबंध- इन दो मुद्दों पर चर्चा हुई।‘ माओ, शायद भारत में दलाई लामा के भव्य स्वागत से बहुत ही परेशान थे। उन्होंने कहा था, ‘भारत सरकार को अब तक के सभी गलत काम करने दें। जब समय आएगा, हम उनके साथ हिसाब चुकता कर लेंगे।‘
पीएलए के सैन्य कमानों का तिब्बत अभियान में हिस्सा लेने, उनकी शाखाएं, लड़ाकू बलों की संख्या, रसद सहायता इकाइयों, आपूर्ति की मात्रा सहित विभिन्न आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद ली ने पाया कि तिब्बती विद्रोह के खिलाफ पीएलए की कार्रवाई वास्तव में केवल बाद में भारत के खिलाफ की जानेवाली कार्रवाई का एक ‘प्रशिक्षण’ भर थी।
चक्र पूरा हुआ
ली के अनुसार, माओ त्से तुंग ने तिब्बत के लिए चार बार लिखित निर्देश दिए। माओ ने कहा कि ‘विद्रोह एक अच्छी बात है’ क्योंकि इसका इस्तेमाल ‘सैनिकों और जनता को प्रशिक्षित करने के लिए’ और ‘तत्परता से निपटने के लिए हमारे सैनिकों को कठोर प्रशिक्षण’ देने के लिए किया जा सकता है। ली की टिप्पणी है कि, इन सभी निर्देशों से साफ पता चलता है कि 10 मार्च के विद्रोह से पहले भी माओ के पास पीएलए सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए ‘विद्रोहियों के दमन’ का उपयोग करने का विचार था।
ली ने पाया कि फरवरी 1959 के मध्य तक, ‘रक्षा मंत्री से लेकर सभी सैन्य अफसर मुकाबला करने वाले सैनिकों के रेजिमेंटल कमांडरों तक नीचे आ गए थे। उन सबको माओ के इरादे को समझा दिया गया था कि तिब्बती प्रतिरोध को दबाने के अवसर का उपयोग एक प्रशिक्षण के रूप में किया जाना है। ली ने शोध में पाया है कि 12 मार्च 1959 से 1962 के मध्य तक तिब्बत में बड़े पैमाने पर लड़ी गई लड़ाइयां वास्तव में आतंकवाद विरोधी अभियान की आवश्यकताओं से अलग एक सुव्यवस्थित सैन्य प्रशिक्षण के रूप में आयोजित की गईं।‘
किंघाई-तिब्बत राजमार्ग पर अत्यधिक ऊंचाई वाले युद्धक्षेत्र, लॉजिस्टिक्स, इंटेलिजेंस, परिवहन सुरक्षा के लिए अनुकूलन आदि सभी ‘परीक्षण’ किए गए थे। एक बिल्कुल तैयारी से रहित भारतीय सेना के खिलाफ ‘प्रशिक्षण’ का अभ्यास अक्तूबर-नवंबर 1962 में किया गया।
संयोग से, पिछले महीने सिन्हुआ ने एक रिपोर्ट जारी किया, जिसमें कहा गया है कि चीन में 2018 में 18,000 से अधिक छोटे-छोटे अभ्यासों में कुल 20 लाख कर्मियों को शामिल किया गया था। यह भी एक प्रभावशाली आंकड़ा है!