तिब्बती लोकतंत्र दिवस पर हुए विष्वव्यापी समारोह
भारतीय प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी की जन्म तिथि 17 सितंबर के अवसर पर तिब्बती समुदाय में जबर्दस्त उत्साह से स्पष्ट है कि भारतीय जनता और सरकार के सहयोग एवं समर्थन जारी रहने का तिब्बतियों को पूरा विष्वास है। परमपावन दलाई लामा ने नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बधाई देते हुए उनके नेतृत्व की भी प्रषंसा की। उनके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी के कुषल नेतृत्व में भारत ने कोरोना जैसी भयंकर वैष्विक महामारी का सफलतापूर्वक सामना किया है। कोरोना के कारण कई नई चुनौतियाँ सामने आईं जिनका पूर्वानुमान किसी को नहीं था। उस संकटपूर्ण परिस्थिति से निपटने में भारत सफल रहा। दलाई लामा ने विष्वास व्यक्त किया कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत भविष्य में भी सभी चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक करेगा। उन्होंने भारत में 1959 से तिब्बतियों के लिये लगातार जारी सहयोग एवं समर्थन के लिए भारतीय जनता और सरकारों के प्रति आभार प्रकट किया। अन्य सभी तिब्बतियों तथा तिब्बत समर्थकों की तरह दलाई लामा को पूर्ण विष्वास है कि तिब्बती संघर्ष में भारतीय सहयोग और समर्थन भविष्य में भी जारी रहेगा।
दलाई लामा के भारतीय समर्थन के विष्वास का मूल आधार तिब्बती संघर्ष का लोकतांत्रिक चरित्र है। वर्ष 2011 में ही तिब्बत के राजप्रमुख दलाई लामा ने अपने समस्त राजनैतिक अधिकार स्वयं छोड़ दिये। तिब्बत एवं तिब्बतियों का लोकतंत्रीकरण करने के लिए उन्होंने अपने पास सिर्फ आध्यात्मिक दायित्व रखे। उनके इस निर्णय से तिब्बती समुदाय में वयस्क मताधिकार के आधार पर मतदान के माध्यम से जनता द्वारा निर्वाचित सरकार का गठन होने लगा। निर्वासित तिब्बत सरकार, जो कि वास्तव में निर्वाचित है, का मुख्यालय हिमाचल प्रदेष के कांगड़ा जिले में स्थित धर्मषाला में है। चुनावी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पहले डाॅ. लोबजंग संग्ये और अभी आदरणीय पेंपा त्सेरिंग तिब्बत के सिक्योंग (राजप्रमुख) हैं। भारत चूँकि एक लोकतांत्रिक देष है इसलिये दलाई लामा का भारत में रहकर तिब्बत के लोकतंत्रीकरण का प्रयास पूर्णतः सफल है। इसी 2 सितंबर, 2022 तिब्बती लोकतंत्र दिवस के अवसर पर धर्मषाला में आयोजित विषेष आधिकारिक समारोह में निर्वासित तिब्बत सरकार द्वारा इस योगदान के लिये दलाई लामा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई।
तिब्बत का लोकतंत्रीकरण दलाई लामा की बहुत बड़ी देन है। इससे भिन्न स्थिति चीन में है। शी जिंपिंग आजीवन राष्ट्रपति बने रहने हेतु संवैधानिक परिवर्तन में लगे हैं। साम्यवादी व्यवस्था के कारण वे इस षड्यन्त्र में सफल हो सकते हैं। चीन में तिब्बतियों के मानवाधिकार हनन तथा उनके खिलाफ जारी क्रूरतापूर्ण हिंसक व्यवहार का कारण चीन की साम्यवादी व्यवस्था ही है। दलाई लामा के लोकतांत्रिक चरित्र और शी जिंपिंग के तानाषाही चरित्र का अंतर यही है। इसी के परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक भारत में लोकतांत्रिक तिब्बत सरकार है जबकि साम्यवादी चीन में तिब्बती सभी मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं।
इसी सितंबर, 2022 में जनता द्वारा निर्वाचित तिब्बती संसद ने अपने नौ दिवसीय द्वितीय सत्र मेें तिब्बत में रहने वाले तिब्बतियों के प्रति एकजुटता प्रदर्षित करते हुए सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया है। इस सत्र में तिब्बत समस्या और तिब्बतियों के कल्याण हेतु कार्यक्रमों की प्रामाणिकतापूर्ण चर्चा हुई। इस प्रकार की चर्चा और प्रस्ताव अन्तरराष्ट्रीय महत्व के हैं। यह सिक्योंग पेंपा त्सेरिंग की चेक गणराज्य और जापान की इसी माह की यात्रा से भी प्रमाणित है। दोनों देषों में सरकारों, नीति निर्माता, संसद, मीडिया तथा बुद्धिजीवी वर्ग ने तिब्बत समस्या के शीघ्र समाधान हेतु तिब्बत एवं चीन सरकार के बीच पुनः वार्ता प्रारम्भ होने पर जोर दिया। विष्व के सभी लोकतांत्रिक देष इसी विचार के हैं। चीन के सभी पड़ोसी देष उसकी विस्तारवादी नीति के षिकार हैं। तिब्बत, ताइवान, हांगकांग तथा पूर्वी तुर्किस्तान साम्राज्यवादी चीन के खिलाफ एकजुट हैं। चीन इन्हें अपना भूभाग बताता है, जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार ये चीन में नहीं थे।
वर्तमान परिस्थिति में भारत, अमरीका, जर्मनी, फ्रांस आदि देष और भी व्यवस्थित सहयोग कर तिब्बत एवं चीन के बीच पुनः वार्ता कराने हेतु चीन पर दबाव बढ़ायें। उपयुक्त वातावरण यही है, क्योंकि दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बती संघर्ष पूर्णतः अहिंसक और शांतिपूर्ण है। दलाई लामा के दीर्घजीवन के लिये विषेष पूजादि आध्यात्मिक कार्यक्रम होते रहते हैं। दलाई लामा स्वयं अभी और 15-20 वर्ष जीवित रहने की बात दुहराते रहते हैं। इसके बावजूद याद रखना होगा कि वे अब वयोवृद्ध हो गये हैं। उनके जीवन में तिब्बत संकट का हल जरूरी है।
भविष्य में तिब्बती संघर्ष शांति-अहिंसा की राह से भटक सकता है। तिब्बत का संघर्ष सत्य और धर्म का संघर्ष है। यह सही है कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है लेकिन धर्म की रक्षा के लिये हिंसा उससे भी बड़ा घर्म है। ‘‘अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च।’’ ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति आने से पहले ही इस समस्या का समाधान कर लेना मानवता के हित में होगा। वैष्वीकरण के युग में हिंसक संघर्ष की मामूली घटना भी संपूर्ण समाज को प्रभावित कर देती है। ऐसी स्थिति में शांतिपूर्ण तिब्बती संघर्ष को सार्थक परिणाम तक पहुँचाना एक वैष्विक दायित्व है। अच्छी बात है कि वर्तमान तिब्बती नेतृत्व चीनी संविधान और राष्ट्रीयता संबंधी कानून के अनुकूल तिब्बत के लिये सिर्फ ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ की मांग कर रहा है। वह चीन के अंदर प्राप्त तथाकथित स्वायत्तता से संतुष्ट नहीं है।