धर्मशाला। धर्मगुरु दलाईलामा ने सोमवार को तिब्बत के राजनीतिक इतिहास में नया अध्याय जोड़ते हुए राजनीतिक शक्तियां चुने गए प्रतिनिधि को सौंपने के निर्णय संबंधी पत्र को निर्वासित संसद में पेश किया। दलाईलामा का यह निर्णय तिब्बत निर्वासित सरकार में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में मील पत्थर साबित होगा। वहीं, अन्य देशों के लिए भी एक मिसाल होगी। दलाईलामा ने 10 मार्च को तिब्बत राष्ट्रीय जनक्रांति की 52वीं वर्षगांठ पर राजनीतिक शक्तियां चुने हुए प्रतिनिधि को सौंपने का निर्णय लेने की घोषणा की थी।
सोमवार को 14वीं निर्वासित संसद के 11वें बजट सत्र के प्रथम दिन सोमवार को निर्वासित संसद के अध्यक्ष पेम्पा छेरिंग ने तिब्बती भाषा में दलाईलामा कार्यालय की ओर से भेजे गए संदेश को संसद में पढ़कर सुनाया। सोमवार को सत्र का शुभारंभ तिब्बत निर्वासित सरकार के पीएम प्रो. सामदोंग रिंपोछे, अध्यक्ष पेम्पा छेरिंग और उपाध्यक्ष डोलमा गैरी ने किया।
पहले चरण के बाद संसद के अध्यक्ष पेम्पा छेरिंग ने पत्रकारों के सामने दलाईलामा के संदेश को विस्तृत रूप से पेश किया। निर्वासित तिब्बतियों के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन तिब्बतियन युवा कांग्रेस के अध्यक्ष छेवांग रिंगजिन ने कहा कि दलाईलामा का यह एक ऐतिहासिक निर्णय है।
दो दिवसीय शिक्षाएं शुरू
दलाईलामा की दो दिवसीय शिक्षाएं सोमवार को मैक्लोडगंज स्थित चुगलाखंग बौद्ध मठ में शुरू हुई। थाईलैंड के बौद्ध अनुयायियों के विशेष आग्रह पर दलाईलामा की बौद्ध धर्म और जीने की कला आधारित शिक्षाओं के श्रवण के लिए भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों के बौद्ध अनुयायी मैक्लोडगंज पहुंचे हैं।
धर्मगुरु का संदेश
राजाओं-महाराजाओं के कार्यकाल के दौरान तिब्बत एशिया में शक्तिशाली राष्ट्र था। तिब्बत की सैन्य शक्ति और राजनीतिक प्रभाव मंगोलिया और चीन के समान था। तिब्बती साहित्य के विकास, अमीरी, समृद्ध धार्मिक संस्कृति का ही परिणाम है कि तिब्बत के लोगों ने भारत को अपना दूसरा घर स्वीकार किया है। तिब्बत पर कई राजाओं ने राज किया, जिनकी शक्तियां सैन्य दृष्टि से सीमित थी।
19वीं और 20वीं शताब्दी में तिब्बत के न केवल राजनीतिक प्रभाव में कमी आई, बल्कि तिब्बत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बढ़ोतरी के मौके से भी चूक गया। 13वें दलाईलामा ने आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के साथ-साथ तिब्बत सरकार की शक्तियों में भी सुधार किया। उनके प्रयासों के सकारात्मक परिणाम सामने आए। वे अपने उद्देश्य को मूर्त रूप प्रदान करने में असमर्थ थे। उन्होंने कहा, ‘जब मैं युवा था उस समय मुझे अहसास हुआ कि तिब्बतियन राजनीतिक व्यवस्था को आधुनिकता प्रदान करना अति आवश्यक है। 16 वर्ष की आयु में मैं राजनीतिक नेतृत्व को प्रोत्साहित करने पर जोर देना चाहता था। वर्ष 1959 के बाद निर्वासन में आकर मैंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाते हुए हमने तिब्बत निर्वासित मंत्रियों के सहयोग से विभाग स्थापित किए।’
उन्होंने कहा, ‘वर्ष 1991 में हमने पहली मर्तबा तिब्बतियन चार्टर (राजपत्र) बनाते हुए चुने गए प्रतिनिधियों को कानूनी शक्तियां प्रदान की। वर्ष 2001 में पहली मर्तबा प्रधानमंत्री का सीधे तौर पर चुनाव किया गया। मैंने वर्ष 1969 में ही घोषणा कर दी थी कि तिब्बत में जब जनता की ओर से चुनी हुई सरकार का चयन किया जाएगा तब मैं अपनी राजनीतिक शक्तियों का हस्तांतरण कर दूंगा। इसी आशय को अब मैंने मूर्त रूप देते हुए यह निर्णय लिया है।’