राष्ट्रीय सहारा, 2 मार्च 2013
अरुण तिवारी, लेखक
चीन में आत्मदाह के जरिए विरोध प्रदर्शन के लिए उकसाने के आरोप में पुलिस ने पांच तिब्बतियों को गिरफ्तार कर लिया.
इस समाचार को विशेष उल्लेख के साथ प्रचारित किया गया है कि उनमें से एक बौद्ध भिक्षु भी है. प्रचार का उद्देश्य आत्मदाह रोकने से ज्यादा इस बात को प्रचारित करना मालूम होता है कि आत्मदाह एक प्रायोजित प्रतिक्रिया है. चीन द्वारा बौद्ध भिक्षु के शामिल होने को प्रचारित करने का मकसद दलाई लामा पर निशाना साधना है; साथ ही उन लोगों का मुंह बंद करना भी, जो इसे मानवाधिकार का मसला बनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच चीन की छवि खराब कर सकते हैं.
सचाई में मसला उकसावे का नहीं बल्कि तिब्बतियों के जेहन में उठ रहे संताप का है. चीन के चक्रव्यूह के खिलाफ अब तक 95 तिब्बती मौत का वरण चुके हैं. लेकिन उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया. वे मानव बम नहीं बने. उन्होंने बगैर किसी को कोई नुकसान पहुंचाए खुद को नुकसान पहुंचाने का गांधी मार्ग चुना है, ताकि दुनिया का ध्यान तिब्बत में चीनी दमन की ओर आकर्षित कर सकें. लगातार शांति प्रदर्शनों के बाद कोई सुनवाई न होने पर आखिर उनके पास और रास्ता ही क्या है? दुनिया में एक से एक शक्तिशाली, एक से एक शांतिप्रिय देश व संगठन मौजूद हैं. है कोई, जो तिब्बत के साथ चीनी चक्रव्यूह तोड़ने के लिए आगे आया हो? यह सवाल भारत से भी है.
हैरत की बात है कि इतने बड़े पैमाने पर तिब्बतियों के आत्मदाह को मीडिया में ठीक से प्रचारित नहीं किया गया है. प्रचारित किया गया, तो उकसाने के दोष को. हैरत की बात यह भी है कि बड़ा भाई बनने का दावा करने वाले भारत की जनता और सरकार ने भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई है. दुनिया में शांति और कल्याण की स्थापना के लिए स्थापित ‘यूनेस्को’ जैसे संगठन ने भी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई. क्या चीन में ऐसी खबरों पर सेंसर है?
क्या यह सच नहीं कि तिब्बत के आजाद न हो पाने से तिब्बती बहुत व्यथित हैं, चीनी खुश हैं और शेष दुनिया में तिब्बत को लेकर सन्नाटा है. गांधीवादी राधा बहन इस सन्नाटे से स्तब्ध हैं और तिब्बत में एक के बाद एक हो रहे आत्मदाह के ताप से संतप्त. ‘गांधी मार्ग’ नामक पत्रिका में इसका उल्लेख है. सुश्री राधा भट्ट गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली की अध्यक्ष हैं. उन्होंने इस मामले में दुनिया के राष्ट्र प्रमुखों को चिट्ठी लिख सही मायने में एक जिम्मेदार भारतीय का दायित्व निर्वाह किया है; सन्नाटे में एक कंकड़ उछाल दिया है. अब दुनिया को तय करना है कि वह इसकी अनदेखी करे या इस आह्वान को आगे बढ़ाये.
सच यह है कि राजशाही से नेपाल और भूटान की मुक्ति से लेकर सोवियत रूस और चेकोस्लोवाकिया जैसे देशों से आजाद हुए राष्ट्रों की प्रेरणा ने तिब्बतवासियों की कसक बढ़ा दी है.
आजाद न हो पाने की बेबसी और अपने ही घर में अपने धर्मगुरु दलाई लामा का न लौट पाना तिब्बतियों को इस कदर नागवार गुजर रहा है कि उन्होंने जीवन की बजाय मौत का वरण करना शुरू कर दिया है. आत्मदाह की इन घटनाओं में से दो-तिहाई उन इलाकों में हुई हैं, जिन्हें चीन तिब्बत का इलाका मानने से इंकार करता है. 1951 में चीन द्वारा तिब्बत का अधिग्रहण किए जाने के वक्त यह इलाके ‘खाम’ और ‘आमदो’ प्रांत में आते थे. 1960 में तिब्बत के पुनर्गठन के बाद चीन ने इन इलाकों को युन्नान, सीचुआ, क्यूंघई और गांजू प्रांत में मिला लिया.
गौरतलब है कि तिब्बत में आत्मदाह करने वाले 90 प्रतिशत युवा हैं. चिट्ठी बताती है कि चीनी पुलिस ने आत्मदाह करने वालों को बचाने की बजाए उन पर लात-घूंसे बरसा मानवाधिकार कानूनों का खुला उल्लंघन किया. कई मामलों में आत्मदाह करने वाले तिब्बतियों पर हान चीनियों ने पत्थर तक फेंके. हान चीनी वे लोग हैं, जिन्हें चीन ने बाहर से लाकर उक्त इलाकों में जबरदस्ती बसा दिया है. क्या यह विरोधाभास नहीं कि कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन का ढिंढोरा पीटने वाले आत्मदाह की आग से तप रहे तिब्बत के मामले में आज भी गूंगे ही बने हुए हैं.
यह जानते हुए कि आत्मदाह की सिलसिलेवार घटनाएं चीन द्वारा तिब्बतियों के जीवन जीने के अधिकार की घोर उपेक्षा का परिणाम हैं, मानवाधिकार के झंडाबरदारों की चुप्पी को क्या समझें? इस चेताते हुए राधा बहन ने लिखा है- ‘तिब्बत के युवाओं के प्रति हमारी यह घोर उपेक्षा, हमारा यह असहयोग दुर्भाग्य से उन हजारों लोगों और आंदोलनों को एक गलत संकेत देगा, जो आज अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आज हमारा यह विचित्र मौन उन्हें अपने रास्ते तक बदलने के लिए मजबूर कर सकता है.’
क्या इस बात की अनदेखी करना विदेश नीति के मोच्रे पर बड़ी चूक नहीं होगी कि भारत के लगभग सभी पड़ोसियों- पाक, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार को चीन अपने मोहपाश में बांध चुका है. वह भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपना ‘बेस’ बना रहा है. पाक ने हाल में बलूचिस्तान स्थित ग्वादरपोर्ट का प्रबंधन चीन को सौंपकर इसकी तसदीक कर दी है. नतीजा सामने है. भारत खुद को जिनके बड़े भाई होने का दावा करता है, वे अब भारत को बड़ा भाई मानने से ही इंकार कर चुके हैं.
सिर्फ बड़े भाई की दृष्टि से नहीं, बल्कि स्वयं भारत की सुरक्षा की दृष्टि से भी चीन की हरकतों पर भारत की चुप्पी अब ठीक नहीं. भारत आने वाली ब्रह्मपुत्र जैसी कई नदियों में वह न सिर्फ अपना रेडियोधर्मी कचरा बहा रहा है, बल्कि पैसा लेकर दूसरे देशों को भी ऐसा करने की अनुमति उसने दे दी है. इन सभी नदियों के मूल स्रोत तिब्बत में हैं. खतरनाक रेडियोधर्मी कचरा और बांध अंतत: भारत के उत्तर-पूर्वी इलाकों की बर्बाद करेंगे. उत्तर-पूर्व के पानी और पर्यावरण की बर्बादी आजीविका का संकट लायेगी. उत्तर-पूर्व की ओर से हम अभी ही निश्चिंत नहीं हैं. चीनी कवायद अंतत: वहां विद्रोह को जन्म देगी. क्या इस पर दो राय हो सकती है?
हो सकता है, इस पर अनेक राय हों, लेकिन इस पर दो राय नहीं हो सकती कि भारत को लेकर चीन का चक्रव्यूह यदि टूटेगा, तो उसमें अभिमन्यु की भूमिका तिब्बत ही निभाएगा और आज क्योंकि न कृष्ण की छद्म माया है और न अजरुन का गांडीव अत: महाभारत में अभिमन्यु की मौत हुई, तो तटस्थ रहने के कारण दोषी भी भारत ही होगा और दुष्प्रभावित भी. बहरहाल, तिब्बत में आत्मदाह के संकेत दूरगामी हैं. नये रास्ते पर है तिब्बत का स्वतंत्रता संग्राम. अत: भारत को तिब्बत को अनदेखा नहीं करना चाहिए. चीन में नई सरकार आने वाली है. सही वक्त है. भारत भी चुने चीनी नीति की नई राह. न सही कोई और तो मीडिया ही उजागर करे चीनी कुचक्र. यही भारतीयता है.