डॉ. सावांग ग्यालपो आर्य
वैज्ञानिकों का कहना है कि खनन और बड़े पैमाने पर बांध निर्माण सहित मानवीय गतिविधियां तिब्बत में भूकंप का कारण बनती हैं, जिससे अरबों लोगों पर इसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है।
चीन की तालाबंदी और सूचना पर लगी नाकाबंदी के लंबे अंतराल के बाद हाल ही में आए भूकंप ने अचानक तिब्बत को मीडिया के ध्यान में ला दिया है। भूकंप ने कई लोगों की जान ले ली, हालाँकि आधिकारिक रिपोर्ट में केवल १२६ लोगों की मौत बताई गई है। हालांकि, वास्तविक आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा होने का अनुमान है। इस आपदा ने लगभग ४५,००० लोगों को विस्थापित किया और कई लोग अभी भी लापता हैं।
यह भूकंप चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के नेतृत्व और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तिब्बत में हो रही घटनाओं के बारे में एक स्पष्ट संदेश है। पिछले कुछ वर्षों में तिब्बती पठार पर लगातार भूकंप और भूस्खलन हुए हैं। चीनी अधिकारी इन भूकंपों को भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों के टकराव के कारण आई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में देखते हैं। जबकि कई लोग उन्हें तिब्बती पठार पर बड़े पैमाने पर बांध और खनन गतिविधियों से प्रेरित मानव निर्मित आपदाएं मानते हैं।
यह शोध पत्र जांच करेगा और पता लगाएगा कि तिब्बती पठार ऐसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना क्यों कर रहा है, संभावित कारण क्या है और उपाय क्या है।
क्या हुआ?
०७ जनवरी की सुबह दक्षिण-पश्चिमी तिब्बत में ७.१ तीव्रता का एक बड़ा भूकंप आया, जिसके बाद कई झटके आए। इसका केंद्र तिब्बत की राजधानी ल्हासा से कोई २७० किलोमीटर दूर शिगात्से प्रान्त के डिंगरी काउंटी में था।
भूकंप ने कई लोगों की जान ले ली और क्षेत्र और उसके आसपास के इलाकों को तबाह कर दिया। भूकंप की तीव्रता इतनी अधिक थी कि नेपाल, भारत और भूटान में भी झटके महसूस किए गए। कहा जा रहा है कि यह भूकंप हिमालय क्षेत्र में १०० वर्षों में आए सबसे भयानक झटकों में से एक है।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से नेपाल, भारत और अन्य देशों से मदद के बारे में पूछा गया। जवाब में उन्होंने बस इतना कहा, ‘वर्तमान में चीन की खोज, बचाव और चिकित्सा देखभाल सहायता की पूरी गारंटी है। हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से देखभाल और समर्थन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।’ प्रवक्ता इस प्रकार सीधे सवाल को टाल गए।
परम पावन दलाई लामा ने प्रभावित लोगों के लिए प्रार्थना की। साथ ही केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के नेतृत्व ने राहत कार्य के कुशल निष्पादन में चीन के सहयोग का अनुरोध किया। हालांकि, चीनी प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने एक विशिष्ट चीनी भेड़िया कूटनीति के तहत दलाई लामा और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन की अलगाववादी कह कर निंदा की।
ग्लोबल टाइम्स का चौंकाने वाला ‘स्पिन‘
ग्लोबल टाइम्स की संपादकीय टिप्पणी और भी तीखी और इस प्रकार थी: ‘पश्चिमी मानवाधिकारों का वह लेंस जिसे कुछ लोगों ने ज़िज़ांग पर थोपने की कोशिश की है, वह अनिवार्य रूप से तथ्यों से अलग हो जाएगा और अंततः पूरी तरह से ढह जाएगा।’ यह पूरी तरह से अप्रासंगिक और संदर्भ से बाहर की टिप्पणी है जो सीसीपी के अपराध को उजागर करती है।
संपादकीय में आगे दावा किया गया है:
‘भूकंप के ठीक १० मिनट बाद बचाव हेलीकॉप्टर आसमान में थे। आधे घंटे से भी कम समय में टीम ने मलबा हटाना शुरू कर दिया था। एक दिन से भी कम समय में स्थानीय नेटवर्क, सड़कें और बिजली की आपूर्ति बहाल कर दी गई और अधिकांश प्रभावित निवासियों को गर्म टेंट या प्रीफ़ैब घरों में आश्रय दिया गया था, जहां उन्हें दिन में तीन बार गर्म भोजन मिल रहा था।’
यह बहुत ही सराहनीय और पेशेवर है। लेकिन अगर वे जो कहते हैं वह सच है तो चीन पड़ोसी तिब्बतियों और अंतरराष्ट्रीय मीडिया और स्वयंसेवकों को तथ्यों को देखने और जाने की अनुमति क्यों नहीं दे रहा है?
स्थिति की वास्तविकता यह है कि सीसीपी ने इंटरनेट कनेक्शन बंद कर दिए हैं और जानकारी साझा करने के लिए २१ से अधिक स्थानीय निवासियों को गिरफ्तार कर लिया है। इसने प्रभावित क्षेत्रों में व्यक्तियों और संगठनों के प्रवेश पर भी रोक लगा दी है। निवासियों को धमकाया जा रहा है कि वे बाहरी दुनिया को तस्वीरें और जानकारी न भेजें।
बुनियादी ढांचे पर चीन का ध्यान
भूकंप पर चीन की पहली प्रतिक्रिया थी, ‘तिब्बत भूकंप से बांधों या जलाशयों को कोई नुकसान नहीं हुआ।’ भूकंप के बाद साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के अनुसार, चीन के जल संसाधन मंत्रालय ने कहा कि निरीक्षण में क्षेत्र में बांधों या जलाशयों पर कोई प्रभाव नहीं पाया गया।
यह संक्षेप में सीसीपी के डर और अपराधबोध को दर्शाता है। उन्हें लोगों के जीवन से ज़्यादा बांधों की चिंता है। फिर भी, बांधों पर असर पड़ना तय है। यही कारण है कि चीन ने बगल के तिब्बतियों और अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवकों को तिब्बत में जाने की अनुमति नहीं दी।
भूकंप के एक हफ़्ते बाद यानी १६ जनवरी को चीन ने अपने द्वारा निरीक्षण किए गए १४ जलविद्युत बांधों में से पांच को नुकसान पहुंचने की बात कबूल की। इसने छह गांवों से लगभग १५०० लोगों को निकालकर ऊंची जगहों पर पहुंचाया गया। लेकिन यह हिमशैल का सिरा हो सकता है।
हिमालय क्षेत्र में भूकंप क्यों?
नेपाल और तिब्बत को भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के सक्रिय भूकंपीय क्षेत्रों और दोष रेखाओं पर कहा जाता है। भारतीय टेक्टोनिक प्लेट धीरे-धीरे उत्तर की ओर बढ़ रही है और यूरेशियन प्लेट को पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से धकेल रही है। इससे नीचे की धरती पर मजबूत दबाव बन रहा है, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में भूकंप आ रहे हैं। कई लोग इस क्षेत्र में भूकंपों का कारण भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के इसी टकराव को मानते हैं। यह हिमालयी क्षेत्र को बहुत ही अनिश्चित और भूकंप-प्रवण क्षेत्र में रखता है।
हालांकि उपरोक्त स्पष्टीकरण भूकंप के प्रमुख कारणों में से एक हो सकता है, लेकिन यह झटकों का एकमात्र स्रोत नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में लगातार और बार-बार भूकंप एक और कहानी बताते हैं। २००८ में पूर्वी तिब्बत के न्गाबा क्षेत्र में ७.९ तीव्रता के भूकंप में लगभग १२,००० लोग मारे गए थे। २०१० में पूर्वी तिब्बत के क्यगुडो (युशु) में ७.० तीव्रता का भूकंप आया। नेपाल २०१५ में आए ७.८ तीव्रता के भूकंप का केंद्र था, जिसने ९००० से अधिक लोगों की जान ले ली और पांच लाख से अधिक घर नष्ट हो गए। मई २०२१ में ७.३ तीव्रता के भूकंप ने दक्षिणी किंघई को हिला दिया। रिपोर्ट कहती है कि चीन के सीसीटीवी के अनुसार, ‘शिगात्से भूकंप केंद्र के २०० किलोमीटर के भीतर पिछले पांच वर्षों में तीन या उससे अधिक तीव्रता के २९ भूकंप आए हैं।’ इसने यह भी बताया कि १९५० के बाद से ल्हासा ब्लॉक में छह या उससे अधिक तीव्रता के २१ भूकंप आए हैं, जिनमें २०१७ का मेनलिंग भूकंप ६.९ तीव्रता का सबसे बड़ा था।
तिब्बत ही क्यों?
तिब्बत में ही अचानक इतने भूकंप क्यों आ रहे हैं? तिब्बतियों ने पहले कभी इतनी बार भूकंप का अनुभव नहीं किया है। मेरे माता-पिता ने कभी भी भूकंप का अनुभव करने के बारे में कुछ नहीं कहा, और यहां तक कि प्राचीन तिब्बती लोकगीतों और लोककथाओं में भी भूकंप का शायद ही कभी उल्लेख किया गया हो। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय और यूरेशियन प्लेटें बार-बार क्यों टकराने लगी हैं? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिस पर हम सभी को विचार करना चाहिए।
भारतीय और यूरेशियन प्लेटें इसमें भूमिका निभा सकती हैं, पर हम अन्य कारकों को भी खारिज नहीं कर सकते। वैज्ञानिकों सहित कई लोग बार-बार के भूंकप के लिए मानवीय कारकों को जिम्मेदार मानते हैं जैसे कि चीन द्वारा तिब्बती नदियों पर बांध बनाना, वनों की कटाई, अत्यधिक खनन और तिब्बती पठार का सैन्यीकरण।
चीन ने १९५० से तिब्बत पर कब्जा कर रखा है। तब से चीन हमेशा तिब्बत को शोषण के लिए एक उपनिवेश और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में अपने आधिपत्य को आगे बढ़ाने के लिए एक सैन्य अड्डे के रूप में देखता रहा है। इन गतिविधियों से होने वाले व्यवधान भूकंप का कारण बनते हैं, जिससे ये मानव निर्मित आपदाएं बन जाती हैं और सीसीपी शासन इनके लिए जिम्मेदार है।
अब सीसीपी शासन द्वारा तबाह और अतिशोषित तिब्बती पठार ने विरोध करना शुरू कर दिया है तथा क्षेत्र में मंडरा रहे विनाशकारी संकट तथा पड़ोसी राज्यों के लिए घातक और विनाशकारी नतीजों के बारे में खतरे की घंटी बजा दी है।
एशिया में बहने वाली नदियां
विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. इस्माइल सेरागेल्डिन ने सही कहा है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। अगर तिब्बत में चीन जो कर रहा है, उसे कोई संकेत माना जाए तो यह सच है और खतरा बहुत निकट है।
तिब्बत को एशिया का जल मीनार कहा जाता है। एशिया की दस सबसे बड़ी नदियां और उनकी सहायक नदियां १.८ अरब से ज़्यादा लोगों को पेयजल प्रदान करती हैं। ये सब तिब्बती पठार से निकलती हैं। तिब्बत में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे ज़्यादा ग्लेशियर (४६,०००) और पर्माफ्रॉस्ट भी हैं। अक्सर इसे तीसरा ध्रुव और दुनिया की छत कहा जाता है।
चीन इन नदियों पर विशाल बांध बनाकर नियंत्रण करना चाहता है। अगर वह ऐसा करता है तो वह तटवर्ती देशों पर अपना आधिपत्य जमा लेगा।
तिब्बत की चार प्रमुख नदियां: तिब्बत की चार प्रमुख सेंगे खाबाब, लैंगचेन खाबाब, माजा खाबाब और तचोग खाबाब नदियां भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सिंधु, सतलुज, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियां हैं। सिंधु नदी भारत, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में २६.८ करोड़ लोगों को पेयजल प्रदान करती है। यह नदी पहले से ही चीनी बांधों के कारण सूख रही है।
भारत का ब्रह्मपुत्र नद पश्चिमी तिब्बत में तचोग खाबाब के नाम से निकलता है। यह दक्षिण-पूर्व भारत-तिब्बत सीमा के साथ १६२५ किलोमीटर बहता है। यह क्यीचू नदी और अन्य नदियों से जुड़ता है और यारलुंग संगपो (ब्रह्मपुत्र) के रूप में पूर्व में आगे बहता है। फिर मेटोक काउंटी में यह एक तीव्र यू-टर्न लेता है और भारत की ओर अरुणाचल प्रदेश और बांग्लादेश में उतरता है। तिब्बत में अपने उद्गम स्रोत से बंगाल की खाड़ी तक २९०० किलोमीटर बहनेवाला यह नद भारत के मीठे जल संसाधनों का ३०% हिस्सा प्रदान करता है। (आईसीआईएमओडी २०/०३/२०२४)
ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों पर बांध
चीन ने इन नदियों के जल प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए कई बांध बनाए हैं। ये रन-ऑफ-द-रिवर बांध परियोजनाएं नहीं हैं, जैसा कि चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विश्वास दिलाना चाहता है। सीसीपी इन बांधों के पीछे जलविद्युत की अपनी भूख मिटाने से कहीं अधिक भयावह राजनीतिक और आधिपत्यवादी एजेंडा रखती है।
इसने सिंधु और सतलुज नदियों पर बांध बनाए हैं। यारलुंग सांगपो (ब्रह्मपुत्र नदी) पर जांगमू, यमद्रोक, पंगडुओ, झिकोंग, जियाचा और लाल्हो के छह प्रमुख बांधों से संतुष्ट नहीं होकर, चीन मेटोक क्षेत्र में अपने १३७ अरब डॉलर के मेगा-बांध परियोजना पर काम कर रहा है। यह वह महत्वपूर्ण बिंदु है जहां तिब्बती नदी भारत और बांग्लादेश में बहने के लिए एक तेज यू-टर्न लेती है। परियोजना की लागत दुनिया भर में अन्य सभी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से अधिक होने की सूचना है। यहां तक की इसकी लागत चीन के थ्री गॉर्जेस बांध से अधिक है, जिसे वर्तमान में दुनिया का सबसे बड़ा बांध माना जाता है।
चीन का कहना है कि तिब्बती पठार के लिए स्वच्छ ऊर्जा की खोज के साथ-साथ बांध निर्माण भी जारी है। लेकिन चीनी भूविज्ञानी फैन ज़ियाओ का कहना है, ‘यारलुंग नदी के आसपास के क्षेत्र में बहुत कम लोग रहते हैं और इतनी बिजली की ज़रूरत नहीं है कि इसकी अर्थव्यवस्था छोटी होनी चाहिए।’
अकेले जांगमू बांध से सालाना २.५ अरब किलोवाट बिजली पैदा होती है। यारलुंग सांगपो पर अन्य बांधों से पनबिजली के साथ इसे मिलाकर कुल उत्पादन बहुत ज़्यादा है।
फिर चीन को भूवैज्ञानिक आपदा के बड़े जोखिम के बावजूद ३०० अरब किलोवाट क्षमता वाले इस मेटोक बांध की क्या ज़रूरत है? चीनी भूविज्ञानी फैन ज़ियाओ ने बीजिंग की विवादास्पद मेगा-बांध बनाने की योजना के खिलाफ़ चेतावनी दी। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में उन्होंने इसे भूवैज्ञानिक रूप से अस्थिर जैव विविधता हॉटस्पॉट के रूप में उद्धृत किया है जो अपूरणीय पर्यावरणीय क्षति का कारण बन सकता है। (बिजनेस स्टैंडर्ड ०७ जनवरी, २०२५)।
मेकांग को हथियार बनाएगा चीन
तिब्बत की नदियां- ड्रिचू और माचू, यांग्त्से और हुआंगहो पीली नदियों का स्रोत हैं, जो चीनी सभ्यता का उद्गम स्थल हैं। तिब्बत की ग्याल्मो न्युलचू नदी चीन, म्यांमार और थाईलैंड में नुजियांग, थालवीन और सालवीन के रूप में बहती है। तिब्बत की ज़ाचू नदी प्रसिद्ध मेकांग नदी का स्रोत है जो चीन, म्यांमार, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम में बहती है और पूरे क्षेत्र के लोगों को ताज़ा पानी और आजीविका के स्रोत प्रदान करती है।
अकेले मेकांग नदी पर चीन ने ११ विशाल बांध बनाए हैं, जिनमें विशाल थ्री गॉर्जेज बांध भी शामिल है। कई और के लिए योजना अभी भी बनाई जा रही है। ५००० किलोमीटर लंबी मेकांग नदी कभी-कभी निवासियों को चेतावनी देती रहती है। इसी से यह हताश प्रयासों में समाचारों में आती है कि यह सूख रही है और मर रही है। इसके अलावा मेकांग नदी के ऊपरी हिस्से पर बांधों का निर्माण निचले देशों के साथ किसी भी परामर्श या सूचना साझा किए बिना किया गया।
तिब्बत की नदियों पर पूर्ण नियंत्रण के साथ चीन निचले इलाके के देशों पर भू-राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए ‘खुले और बंद नल की नीति’ को अपनाता है। बांधों को खोलने या बंद करने की धमकी और बाढ़ या सूखे का कारण बनने के लिए पानी का हथियार के तौर पर इस्तेमाल करके नदी के किनारे के देशों को डरा-धमकाकर चीनी हुक्म के आगे झुकने के लिए मजबूर किया जाता है। इससे इन क्षेत्रों की सरकार और लोग सीसीपी के हुक्म और दया पर छोड़ दिए जाते हैं।
पर्यावरण और मानवीय क्षति
तिब्बती पठार पर चीन के बांध बनाने के उन्माद के बारे में कहा जाता है कि यह मुख्य भूमि की जल की कमी और जलविद्युत की भूख को मिटाता है। यह शी जिनपिंग की तिब्बत को ‘पश्चिम-पूर्व विद्युत संचरण परियोजना’ के लिए आधार बनाने की नीति से स्पष्ट है। हालांकि यह तिब्बत, चीन और अन्य पड़ोसी देशों को भूकंप, बाढ़ और बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय क्षति के निरंतर बड़े जोखिम में छोड़ देता है।
बांध बनाने के इस उन्माद का एक और मुख्य और महत्वपूर्ण कारण निचले देशों पर भू-राजनीतिक लाभ प्राप्त करना है। यह खतरनाक है। यह सभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की सुरक्षा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चीन को बांधों को हथियार बनाने से रोकना चाहिए।
एक तीसरा कारण भी है: जबरन स्थानांतरण। ये बांध निर्माण और खनन परियोजनाएं कम्युनिस्ट शासन को विकास और बेहतर आवास के बहाने तिब्बतियों को उनके पारंपरिक घरों और बस्तियों से जबरन स्थानांतरित करने का बहाना प्रदान करती हैं। चीन ने अपने जल और खनिज संसाधनों का दोहन करने के लिए बड़ी संख्या में तिब्बतियों को जबरन स्थानांतरित किया है। यह प्रथा उन लोगों को अनिश्चित स्थिति में छोड़ देती है और उन्हें अल्प सरकारी सब्सिडी पर निर्भर रहना पड़ता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि २००० से अब तक ९,३०,००० से अधिक तिब्बतियों को विस्थापन के लिए मजबूर किया गया है।
विशाल बिजली उत्पादन की लागत
तिब्बत नीति संस्थान के एक शोध फेलो डेचेन पाल्मो लिखते हैं, ‘पिछले सात दशकों में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने ८७,००० से अधिक बांधों का निर्माण किया है। सामूहिक रूप से वे ३२५.२६ गीगावॉट बिजली पैदा करते हैं, जो ब्राजील, अमेरिका और कनाडा की संयुक्त क्षमता से अधिक है। दूसरी ओर इन परियोजनाओं के कारण २.३ करोड़ से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा है।’
फरवरी २०२४ में तिब्बतियों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अपील और विरोध के बावजूद चीन ने सिचुआन के खाम क्षेत्र के डेरगे में कामटोक बांध का निर्माण कर दिया। तिब्बत वॉच के अनुसार, बांध से नदी के दोनों किनारों से १२ गांवों को स्थानांतरित करने की आशंका थी, जिससे लगभग ४२८७ लोग प्रभावित हुए।
हम अभी भी नहीं जानते कि उस समय गिरफ्तार किए गए १००० लोगों का क्या हुआ।
कुछ वैज्ञानिकों ने पहले आए भूकंपों के लिए बड़े बांधों को जिम्मेदार ठहराया है। सबसे कुख्यात बात यह है कि २००८ में वेंचुआन भूकंप में जिपिंगु बांध की भूमिका सवालों के घेरे में है।
२०१० में अंतरराष्ट्रीय नदियों के सलाहकार नोट के अनुसार, ‘यांग्त्से नदी के ऊपरी हिस्से में स्थित युशू काउंटी, चीन में योजनाबद्ध बांध निर्माण का केंद्र है। जैसा कि हम दुनिया भर में १०० से अधिक प्रलेखित मामलों से जानते हैं, ऊंचे बांध भूकंप को आमंत्रित कर सकते हैं। मई २००८ के विनाशकारी सिचुआन भूकंप को जिपिंगपु बांध से जोड़ने के पुख्ता सबूत हैं।’
टिक-टिक करता टाइम बम
भू-रणनीतिकार ब्रह्मा चेलानी लिखते हैं, ‘नई बांध परियोजना चीन को सीमा पार नदी के प्रवाह पर नियंत्रण प्रदान करेगी, जिससे उसे भारत के विशाल और तिब्बत-सीमावर्ती अरुणाचल प्रदेश पर अपने क्षेत्रीय दावे का लाभ उठाने का मौका मिल जाएगा। अरुणाचल ताइवान के क्षेत्रफल से लगभग तीन गुना बड़ा है।’
ऑस्ट्रेलियाई सामरिक नीति संस्थान ने रिपोर्ट की है कि ‘चीन चुपचाप और अपरिवर्तनीय रूप से भारत के साथ विवादित क्षेत्रों सहित सीमावर्ती क्षेत्रों पर अपने नियंत्रण को वैध बनाने के लिए काम कर रहा है।’ चीन क्षेत्रीय विवादों का मुकाबला करते हुए बेहतर बातचीत की स्थिति हासिल करने के लिए भारत, नेपाल और भूटान के साथ सीमावर्ती क्षेत्रों को स्थानांतरित और आबाद कर रहा है।
पेंटागन की २०२१ की वार्षिक रिपोर्ट से पता चला है कि चीन ने भारत के साथ विवादित क्षेत्र के भीतर आवास परिसरों का निर्माण किया है। ये परिसर अरुणाचल प्रदेश के पास मेगा-बांध परियोजना के करीब हैं। यह वही सलामी-स्लाइसिंग रणनीति है जिसका इस्तेमाल चीन दक्षिण-पूर्व चीन सागर में अतिक्रमण करके क्षेत्रों पर दावा करने के लिए करता है। इसने जापान और फिलीपींस सहित हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लोगों को हाई अलर्ट पर रखा है।
कुछ रिपोर्टों के अनुसार, १९५४ से २००३ के बीच देश के ८५,३०० बांधों में से ३४८४ ढह गए। चीन के बांध आलोचक फैन ज़ियाओ ने चेतावनी दी है कि देश के खराब तरीके से निर्मित और खतरनाक जलाशय टाइम बम हैं जो किसी भीषण बाढ़ या अन्य अप्रत्याशित घटना की स्थिति में उजागर होने का इंतज़ार कर रहे हैं।
हाल ही में अपडेट की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘इसका एक उदाहरण २००१ की आपदा है जब तिब्बत में एक कृत्रिम बांध के ढह जाने से २६ लोगों की मौत हो गई और अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी के किनारे १४० करोड़ रुपये (१.६ करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक) की संपत्ति को नुकसान पहुंचा।’
निष्कर्ष
उपर्युक्त चेतावनियों से पता चलता है कि चीन की अनियंत्रित बांध निर्माण और खनन गतिविधियां सिर्फ़ तिब्बत की समस्या नहीं हैं। वे भारत, नेपाल, भूटान और मेकांग के किनारे बसे देशों के लिए एक टाइम बम हैं। इन तटीय देशों को तिब्बतियों के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाना चाहिए ताकि चीन को तिब्बती नदियों पर बांध बनाने से रोका जा सके और ताज़े पानी का मुक्त मार्ग सुनिश्चित किया जा सके।
चीन की यह आधिपत्यवादी विस्तारवादी नीति सफल नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा, सीसीपी शासन को चेतावनी दी जानी चाहिए और बहुत देर होने से पहले चीन को इस महा आपदा के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।