डॉ भीमराव अम्बेडकर ने तिब्बत के लिए कहा था यदि भारत ने तिब्बत को मान्यता दी होती , जैसी 1949 में चीन को दी गई थी तो आज भारत -चीन सीमा विवाद न होकर तिब्बत -चीन सीमा विवाद होता । डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था -चीनियों ने तिब्बत को लूटा है । तिब्बत को चीन के लोह शिंकचे से आजाद कर उसे तिब्बतियों को सौपंना होगा। सबसे तल्ख टिप्पणी लोहिया जी ने की थी – कौन कौम अपने बडे देवी -देवताओं को परदेस में बसाती है , वह भी शिव और पार्वती को । मैकमोहन रेखा हिन्दुस्तान और चीन की रेखा तो है नहीं , हो रही तो कैलाश मानसरोवर उसकी रखवाली में रहेंगे । तिब्बत हमार भाई है।
तीन अलग- अलग राजनीतिकों की टिप्पणियों थी । तिब्बत को लेकर भारत हमेशा अपनी नीतियों को स्पष्ट नहीं कर पाया । उसने चीन के डर से तिब्बत को चीन का भाग मान लिया,वहीं अरुणाचल प्रदेश में चीन का हस्तक्षेप हमेशा बढता रहा है।
पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडीस ने पडौसी देशों में सबसे बडा शत्रु राष्ट्र चीन को घोषित कर दिया था , लेकिन विदेश नीति के चलते पूर्व प्रधानमंत्री के दबाव में उन्होंने अपने बयान को वापस ले लिया। चीन एक विस्तारवादी देश रहा है। उसकी कथनी और करनी में हमेशा अंतर रहा है । चिंतक एंव लेखक निर्मल वर्मा ने ठीक लिखा था कि तिब्बत हमारी (20वीं) सदी का अंतिम उपनिवेश है । जिसकी संस्कृति , राजनीति , आस्मिता और पर्यावरण को पिछले 40 वर्षो से योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया जा रहा है। तिब्बत धर्मगुरु दलाई लामा के निर्वासन की वर्षगांठ हर बरस 10 मार्च को मनाता है । पिछले दिनों 49 वीं वर्षगांठ पर हो रहे शांतिपूर्व आयोजन को फौज ने कुचल दिया । बौद्ध भिक्षुओं ने दमन के खिलाफ ल्हासा में प्रदर्शन किया । अनेक भिक्षु मारे गए। कई घायल हुए । निहत्थों पर गोलीबारी ,21 वीं सदी के सभ्य और लोकतांत्रिक विश्व की प्रथम घटना है । चीनी सरकार की हिंसा की निंदा समूचे विश्व ने की , लेकिन भारत की तिब्बत नीति खामोश रही ।
तिब्बत स्वतंत्र देश रहा है, सन् 1821 के चीन -तिब्बत युद्ध में तिब्बत की जीत हुई थी । तिब्बत -चीन का मुख्य शासक भी रहा । 1947 में नई दिल्ली में एफ्रो एशियाई देशों के सम्मेलन में तिब्बत ने देश के रुप में हिस्सा लिया था । भारत में अंग्रेजी राज के समय तिब्बत में भारतीय मुद्रा चलन में थी । भारत की फौज तिब्बत में भारत की डाक सेवाएं थी। 1949 में चीन पर कम्युनिस्टों का कब्जा किए बगैर चीन की आजादी अधूरी है । माओ ने 2 वर्ष बाद ही 1951 में तिब्बत पर हमला कर दिया । कम्युनिस्ट पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत को कुचल दिया । चीन और तिब्बत के बीच 17 सूत्रीय समझौता हुआ । इसमें धार्मिक -सस्कृतिक , बोलने की अभिव्यक्ति जैसी मामले भी थे । उन्हीं दिनों पवित्र दलाई लामा देश को छोडकर निर्वासित होकर तिब्बत की सीमा और भूटाना देश तक जा पहुंचे थे, लेकिन पुन वह देश के लिए लौटकर तिब्बत जा पहुंचे । उस समय उनकी उम्र भी परिपक्व नहीं थी ।
1959 में खंभा विद्रोह हुआ। चीनी सेनाओं ने ल्हासा को चारों ओर से घेर लिया । बाद में शस्त्र बल से उस पर कब्जा भी कर लिया । तब इसकी सूचना तत्कालीन राष्ट्रपति माओत्से तुंग को दी गई तो माओ ने पुछा था कि दलाई लामा कहां हैय बताया गया कि दलाई लामा तो नहीं पकडे जा सके , वे सही -सलामत भारत चले गए है तो माओ ने कहा था कि तब प्रसन्न होने की कोई बात नहीं , हम जीतकर भी हार गए है।
दलाई लामा तिब्बत एंव तिब्बती राष्ट्रीयता के मूर्तिमाम प्रतीक है और वे जब तक सुरक्षित है, तब तक तिब्बत स्वतंत्र है । ऐसा आम तिब्बती विश्वास करता है । तिब्बत की जमीन पर कोई दूसरा कब्जा कर सकता है परन्तु दलाई लामा के सुरक्षित और स्वतंत्र रहने से तिब्बत की राष्ट्रीयता एंव आत्मा स्वतंत्र है , ऐसा मानना चाहिए । तिब्बत वासियों को साम्यवादी बनाने की कोशिश पिछले 55 वर्षें से बराबर चल रही है, लेकिन तिब्बती लोगों ने साम्यवाद को किताबों के माध्यम से नहीं, बल्कि चीन सारकर के अत्याचारों के माध्यम से भोगा भी है और देखा भी । तिब्बत में 6000से ज्यादा बौद्धमठ थे , अब 100 भी नहीं बचे है । पवित्र दलाई लामा के चित्र घरों में लगाने पर चीनी सैनिक, तिब्बतियों को देशद्रीही करार देते है। पिछले पांच दशकों में तिब्बत की पहचान को जिस तरह से चीनियों ने नष्ट करने का प्रयास किया, वह अत्यधिक घटिया है । हजारों -लाखों मुसलमानों को ल्हासा के छोटे- छोटे कस्बों में बसाया जा रहा है । लहासा तिब्बतियों के लिए कोई साधारण नगर नहीं है । वह भी दलाई लामा की तरह तिब्बती राष्ट्रीयता व धर्म का मूर्तिमान प्रतीक है ।
तिब्बत को लेकर भारत का मौन अत्यधिक दुखद है। एक ओर तो हम तिब्बतियों को शरण दे रहे है । उनकी शिक्षा, स्वास्थय पर लाखों रुपए प्रतिवर्ष खर्च कर रहे है , वहीं दूसरी ओर उन्हें उनके देश में लौटाने का कोई भी वातावरण तैयार नहीं कर रहे है । यह एक चिंतनीय विषय है . केन्द्र में कभी भी, कोई भी सरकार रही उसकी नीति तिब्बत पर चीन को खुश करने की ही रही और यह नीति आज भी जारी है।
तिब्बत पर भारत मौन क्यों है ?
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