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चीन और तिब्बत के बीच एक 17-सूत्रीय विवादास्पद समझौता 1951 में हुआ था, जिसके आधार पर बीजिंग ने स्वतंत्र हिमालयी देश पर कब्जा कर लिया था। इस समझौते पर तिब्बत से दबाव डालकर हस्ताक्षर करवा लिए गए थे और चीन द्वारा तुरंत बाद इसकी शर्तों का उल्लंघन कर लिया गया था। अधिकार समूहों और विशेषज्ञों ने समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर की 70 वीं वर्षगांठ पर उक्त विचार व्यक्त किए।
दस्तावेज़ पर 23 मई, 1951 को हस्ताक्षर किए जाने की 70वीं वर्षगांठ से दो दिन पहले 21 मई को जारी एक सरकारी श्वेत पत्र में चीन ने कहा कि समझौते ने तिब्बत को ‘चीन के अन्य जातीय समूह के साथ एकता, प्रगति और विकास की उज्ज्वल सड़क पर आगे बढ़ने के लिए मुक्त कर दिया था।’
ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में तिब्बती भाषा के व्याख्याता चुंग त्सेरिंग ने एक साक्षात्कार में आरएफए की तिब्बती सेवा को बताया कि हालांकि, समझौते में इस्तेमाल की गई भाषा स्पष्ट करती है कि तिब्बत के पास अपनी सरकार, सेना, संस्कृति और परंपराओं के साथ एक स्वशासी क्षेत्र था ।
त्सेरिंग ने कहा, ‘चीन में 55 अल्पसंख्यक जातीय क्षेत्रों में से तिब्बत एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसके साथ चीनी सरकार ने ऐसा समझौता किया है। इसलिए हमें यह विचार करना होगा कि यह तिब्बत को अद्वितीय और विशिष्ट बनाता है।’
त्सेरिंग ने कहा, ‘यदि हम 17-सूत्रीय समझौते को विस्तार से देखें तो कोई भी देख सकता है कि तिब्बत में अपनी सरकार, राजनीतिक और धार्मिक नेता, विशिष्ट सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड, सैन्य और भाषा के साथ संपूर्ण देश की विशेषताएं हैं।’
उन्होंने कहा, ‘और अब, जब कोई 70 साल बाद भी इस समझौते को देखता है, तो ये तथ्य और भी स्पष्ट होते हैं।’
विशेषज्ञ कहते हैं कि समझौते को चीन द्वारा तिब्बत पर जबरन थोपा गया था। चीन ने देश के पूर्वी हिस्से में तिब्बती सेना को हराया था और यदि तिब्बती सरकार द्वारा बीजिंग में बातचीत करने के लिए भेजा गया प्रतिनिधिमंडल चीनी मांगों के आगे नहीं झुकता तो वह बाकी तिब्बत में पूर्ण पैमाने पर युद्ध की धमकी दे रहा था।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर जिग्मे येशे कहते हैं, ‘और बाद में चीन ने समझौते में उल्लिखित तिब्बत की सरकार के कामकाज या तिब्बत के शासक और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा की स्थिति और भूमिका में हस्तक्षेप नहीं करने की प्रतिज्ञा का उल्लंघन तो किया ही, अपने हिस्से का भी सम्मान नहीं किया।’
येशे ने कहा, ‘उन्होंने तिब्बत पर अपने कब्जे को तेज करने और तिब्बत की अनूठी पहचान को नष्ट करने के लिए तुरंत तिब्बती लोगों पर अविश्वसनीय अत्याचार करने शुरू कर दिए।’
भारत के सारनाथ में उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर त्संगटुक टोपला ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यह कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बती सरकार पर जबरन थोपा गया समझौता था।’ उन्होंने कहा कि चीन अब 17 सूत्रीय समझौते को तिब्बत पर अपने कब्जे को सही ठहराने के लिए और तिब्बत पर अपने दावों के लिए नैतिक और अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करने के लिए भी उद्धृत करता है।’
टोपला ने कहा कि लेकिन चीन ने ‘तिब्बती लोगों की धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और आदतों’ का सम्मान करने और उनकी रक्षा करने के अपने वादे को जल्दी से तोड़ दिया। और इसलिए, परम पावन दलाई लामा ने 1959 में भारत के तेजपुर में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को दिए गए एक बयान में समझौते का खंडन किया था।
टूटे हुए वादे
तिब्बत में चीन की नीतियां और व्यवहार आज दिखाते हैं कि बीजिंग 70 साल पहले किए गए वादों से कितना आगे निकल गया है, वाशिंगटन स्थित इंटरनेशनल कंपेन फॉर तिब्बत ने 21 मई को एक बयान में दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने की सालगिरह को याद किया।
आईसीटी ने कहा, ‘समझौते के बाद से सात दशकों में, चीनी सरकार ने एकतरफा रूप से तेजी से कठोर नीतियां लागू की हैं जो तिब्बती संस्कृति और धर्म को कमजोर करती हैं और तिब्बती लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित करती हैं।’
अधिकार समूह ने कहा कि इसने तिब्बती भाषा के उपयोग को भी कमतर कर दिया है और तिब्बत के प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों पर चीन का दावा किया है। दूसरी ओर, चीनी प्रवासियों की बढ़ती संख्या इस क्षेत्र में बाढ़ की तरह आ रही है।
आईसीटी ने कहा, चीन ने तिब्बत के स्वतंत्र इतिहास से इनकार किया है और निर्वासित दलाई लामा के मध्यम मार्ग नीति दृष्टिकोण को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है। हालांकि मध्यम मार्ग दृष्टिकोण बीजिंग के शासन में रह रहे तिब्बतियों के लिए मजबूत भाषा अधिकारों सहित अधिक सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता का आग्रह करते हुए चीन के एक हिस्से के रूप में तिब्बत की स्थिति को स्वीकार करता है।
आईसीटी ने कहा कि चीन के जनवादी गणराज्य ढांचे के भीतर सभी तिब्बतियों के लिए वास्तविक स्वायत्तता की मांग करने की दलाई लामा की नीति न केवल उनके दूतों द्वारा चीनी सरकार के समक्ष प्रस्तुत की गई है, बल्कि बाद में सार्वजनिक भी की गई है।
उन्होंने कहा कि चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को परस्पर संतोषजनक समाधान के माध्यम से तिब्बती समस्या को हल करने की दलाई लामा की प्रतिबद्धता के बारे में मूर्ख नहीं बना सकता।
डराने–धमकाने की कोशिश
लंदन स्थित फ्री तिब्बत ने 25 मई के एक बयान में कहा कि चीनी अधिकारी अब तिब्बत में सुरक्षा उपायों को कड़ा कर रहे हैं, क्योंकि चीन जुलाई में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना की 100वीं वर्षगांठ की ऐतिहासिक तारीख के करीब पहुंच रहा है।
अधिकार समूह ने कहा, ‘यह कदम संभवतः तिब्बतियों को ऐसे समारोहों के दौरान अपने देश पर कब्जे का विरोध करने से डराने- धमकाने का एक प्रयास है।’ समूह ने आगे कहा कि मध्य तिब्बत के दोर्जे ड्रैक मठ में तिब्बती भिक्षुओं और भिक्षुणियों को हाल ही में कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियां का समर्थन करने वाले बैनरों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था।
फ्री तिब्बत ने कहा कि तिब्बत की क्षेत्रीय राजधानी ल्हासा में मठों में सैकड़ों अन्य लोगों को चीनी साम्यवाद और कानूनों के बारे में उनके ज्ञान पर परीक्षण किया गया। दूसरी ओर आगामी शताब्दी वर्ष की तैयारी को लेकर अप्रैल के अंत में ‘चीनी सरकार और प्रचार का जश्न मनाते हुए बड़ी संख्या में सुलेख का जबरन निर्माण कराया गया।’
एक बयान में, जॉन जोन्स-अभियान और फ्री तिब्बत के अनुसंधान प्रबंधक ने कहा कि विश्व नेताओं को अब तिब्बती लोगों को लेकर मोलभाव का रुख नहीं अपनाना चाहिए और न ही तिब्बत के धीरे-धीरे मानचित्र से मिटा दिए जाने तक हाथ पर हाथ रखकर खड़े देखते रहना चाहिए।’
जोंस ने कहा कि बीजिंग द्वारा तिब्बत का दमन और उसके बारे में सच्चाई को अवरुद्ध करने के प्रयास ‘तेजी से बदतर हो जाएंगे जब दुनिया की निगाहें 2022 के शीतकालीन ओलंपिक के लिए चीन पर होंगी।’
उन्होंने कहा, ‘अगर दुनिया के देश चीन के इन अत्याचारों की लीपापोती करने से बचना चाहते हैं तो उन्हें अगले साल बीजिंग में एथलीटों को भेजने की अपनी योजना बदलनी चाहिए और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शीतकालीन खेलों का बहिष्कार करना चाहिए।’
इस साल ओलंपिक के बहिष्कार को लेकर आह्वान की आवाज तेज हुई है। आलोचकों ने न केवल तिब्बत का हवाला दिया, बल्कि निकटवर्ती झिंझियांग में उग्यूर तथा अन्य तुर्क मुसलमानों की सामूहिक कैद और बीजिंग द्वारा जुलाई- 2020 के मध्य में हांगकांग में घोर दमन के लिए बनाए गए कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने का भी हवाला दिया है।
दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायी चीन के शासन के खिलाफ 1959 के असफल तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह के बाद भारत और दुनिया के अन्य देशों में निर्वासन में रह रहे है।
चीनी अधिकारियों ने इस क्षेत्र पर अपनी कड़ी पकड़ बनाए रखी, तिब्बतियों की राजनीतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित किया और तिब्बतियों को चीनी उत्पीड़न, यातना, कारावास और न्यायेतर हत्याओं का दंश झेलना पड़ रहा है।
आरएफए की तिब्बती सेवा द्वारा रिपोर्ट। तेनज़िन डिकी द्वारा अनुवाद। रिचर्ड फिनी द्वारा अंग्रेजी में लेखन।