पत्रकार एवं अध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग / राजकीय महाविद्यालय, तिजारा (राजस्थान)
अमरीकी सरकार ने तिब्बत मामले के लिये इसी दिसम्बर, २०२१ में विशेष समन्वयक नियुक्त कर स्पष्ट संकेत दिया है कि चीन की विस्तारवादी नीति का अमरीकी विरोध और अधिक आक्रामक होगा। उसकी स्पष्ट मान्यता है कि चीन ने स्वतंत्र तिब्बत पर बलपूर्वक अवैध कब्जा कर रखा है। अपने अवैध कब्जे को उचित ठहराने के लिये चीन सरकार षड्यंत्रपूर्वक तिब्बत का चीनीकरण कर रही है। तिब्बती पहचान मिटाने के लिये तिब्बती भाषा, संस्कृत, कला, इतिहास एवं जीवनशैली में चीनी मान्यताओं को प्राथमिकता दी जा रही है। इससे तिब्बत में तिब्बती ही अल्पसंख्यक हो जायेंगे और उनकी जगह चीनी प्रभुत्व स्थापित हो जायेगा। तिब्बत में सुनियोजित तरीके से चीनियों की बढ़ती आबादी तथा प्रशासन समेत सभी क्षेत्रों में चीनियों का निर्णायक प्रभाव इसी का प्रमाण है। अमरीका यह भी नहीं चाहता कि चीन सरकार तिब्बतियों की सुस्थापित आध्यात्मिक परंपराओं को अपने हित में विकृत करे।
अमरीका के तिब्बत नीति अधिनियम, २००२ के परिणास्वरूप तिब्बती संघर्ष को विश्वस्तर पर जारी सहयोग एवं समर्थन लगातार बढ़ता जा रहा था। इसके बाद अमरीका ने अपने २०२० के तिब्बत नीति और समर्थन अधिनियम द्वारा विश्वजनमत को तिब्बती संघर्ष के पक्ष में ज्यादा मोड़ा है। इसी २०२० के तिब्बत नीति और समर्थन अधिनियम के अनुरूप अमरीका ने उज्राजेया को तिब्बत मामले में विशेष समन्वयक बनाया है। अमरीकी प्रशासनिक ढाँचे में यह पद अत्यन्त महत्वपूर्ण अवर सचिव स्तर का है। अमरीकी कदम से तिब्बतियों एवं तिब्बत समर्थकों को पूरा विश्वास है कि उज्राजेया के प्रयासों से तिब्बत में जारी चीन की दमनकारी नीति पर रोक लगेगी। चीन तिब्बती मठों, आध्यात्मिक स्थलों, संस्थाओ तथा अन्य सभी आध्यात्मिक गतिविधियों से अनुचित नियंत्रण हटाने के लिये बाध्य होगा। तिब्बत को चीन बनाने की उसकी कोशिश प्रभावशून्य हो जायेगी।
नवनियुक्त विशेष समन्वयक को अपने प्रयासों से तिब्बती प्रतिनिधियों के साथ चीन सरकार की वार्ता पुनः प्रारंभ करानी होगी। परमपावन दलाईलामा, तिब्बती जनता द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से संचालित निर्वासित तिब्बत सरकार तथा अन्य तिब्बत समर्थकों के मतानुसार अहिंसक एवं शांतिपूर्ण तिब्बती संघर्ष को समाप्त करने के लिये चीन सरकार यथाशीघ्र दलाई लामा के और तिब्बत सरकार के प्रतिनिधियों के साथ वर्षों से बंद वार्ता प्रारंभ करे। इससे वाद-विवाद (डिबेट) की जगह संवाद (डायलाग) का वातावरण मजबूत होगा। संवाद से चीन की संप्रभुता एवं तिब्बत की स्वायत्तता का समाधान एक साथ हो जायेगा। पूर्ण आजादी की मांग छोड़कर दलाई लामा और निर्वासित तिब्बत सरकार चीन के संविधान एवं उसके राष्ट्रीयता संबंधी कानून के अन्तर्गत तिब्बत के लिए केवल ‘‘वास्तविक स्वायत्तता ‘‘ की मांग कर रहे हैं। इस मध्यममार्ग को मान लेने से तिब्बत और चीन को समान रूप से लाभ होगा।
इस समय चीन सरकार तिब्बती धर्मगुरु परमपावन दलाई लामा के पुनर्जन्म एवं उनके उत्तराधिकारी के चयन की सुस्थापित आध्यात्मिक परंपरा को चुनौती दे रही है। अमरीका समेत विश्वजनमत इसके विरूद्ध है। इसके अनुसार दलाई लामा के पुनर्जन्म के मामले में चीनी हस्तक्षेप पूर्णतः अस्वीकार है। इसका निर्णय परंपरानुसार बौद्ध धर्मगुरु, विद्वान तथा स्वयम् दलाई लामा करेंगे। चीन तिब्बतियों के आध्यात्मिक अधिकारों तथा उनके अन्य सभी मौलिक अधिकारों का सम्मान करे। उनका संरक्षण करे। तिब्बत के अंदर मानवाधिकार हनन के कारण गत कुछ वर्षों में ही कई तिब्बती अपने ही शरीर में आग लगाकर बलिदान कर चुके हैं। चीन अन्य देशों में रह रहे तिब्बतियों को भी प्रताड़ित करने हेतु विभिन्न देशों पर दबाव बनाये रहता है। उनकी सरकारों तथा जनप्रतिधियों को चेतावनी देने में तत्पर रहता है। फिर भी तिब्बती मामले में चीनी हठधर्मिता पूर्णतः निष्प्रभावी है।
वर्ष १९८९ में १० दिसम्बर को दलाई लामा को शांति के लिये नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी विश्व के विभिन्न देशों में इस अवसर पर आयोजित अनेक कार्यक्रमों में चीन की अमानवीय तथा अलोकतांत्रिक उपनिवेशवादी नीति की तीव्र भर्त्सना करते हुए चीन पर अतंरराष्ट्रीय दबाव बढ़ाने का संकल्प लिया गया। भारतीय आयोजनों में कहा गया कि भारतीय जनता लगातार तिब्बती संघर्ष में साथ है। इसमें भारत सरकार एवं प्रांतीय सरकारों का सहयोग और समर्थन अतुलनीय है। अब भारत सरकार इसे राजनीतिक समर्थन खुलकर प्रदान करे। चीन के साथ भारत के संबंध मजबूत करने के लिये तिब्बत समस्या का हल जरूरी है। ‘‘हिन्दी-चीनी भाई भाई‘‘ तथा पंचशील‘‘ जैसे चीनी हथकंडे भारत को नुकसान ही पहुँचायेंगे।
चीन सरकार ने हम भारतीयों की पवित्र कैलाश-मानसरोवर यात्रा को आर्थिक कमाई तथा द्वेषपूर्ण गुप्तचरी का माध्यम बना रखा है। स्वतंत्र तिब्बत में भारतीय स्वतंत्रतापूर्वक कैलाश मानसरोवर जाते थे और तिब्बती भारत में बौद्ध स्थलों की यात्रा करते थे। ये यात्रायें पूर्णतः निःशुल्क थीं। भारतीय शांति, सुरक्षा, समृद्धि एवं स्वाभिमान के लिये बहुत बड़ा खतरा है चीन। डोंकलाम और गलवान घाटी जैसी घटनाओं के प्रति अनेक भारतीय महापुरुषों ने १९४९ से ही सावधान किया था। उनकी आशंका तिब्बत पर चीनी नियंत्रण, भारत पर १९६२ में चीनी आक्रमण तथा बड़े भारतीय भूभाग पर चीनी कब्जे के रूप में सत्र साबित हुई। हमें १४ नवंबर, १९६२ को स्वीकृत सर्वसम्मत संसदीय प्रस्ताव के अनुरूप भारतीय भूभाग को चीनी कब्जे से मुक्त कराना है। भारत भी अमरीका के समान स्पष्ट और कठोर नीति अपनाकर अपने अन्तरराष्ट्रीय उत्तारदायित्व का परिचय दे।