(12 सितंबर, 2012 द डिप्लोमैट)
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के कालोन ट्रिपा डा. लोबसांग सांगे ने सारांश सहगल से एक खास बातचीत में चीन के भीतर तिब्बतियों के हाल में शुरू हुए आत्मदाह के सिलसिले, कभी दलार्इ लामा के पास रहे राजनीतिक पद पर कार्य करने के अपने अनुभव और चीन के आगामी नेतृत्व परिवर्तन के बारे में अपने विचारों पर विस्तार से बात की।
आपने हाल में ही कालोन ट्रिपा के रूप में अपने पद का एक साल पूरा कर लिया है, निर्वासित तिब्बतियों के राजनीतिक मामलों को देखते हुए आपको कैसा लगा? तिब्बत के भीतर की हालत काफी चिंताजनक है और तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बती भयंकर रूप से पीडि़त है, इसलिए अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं और स्थिति की गंभीरता मेरे काम को कठिन बना रही है। हालांकि, पिछले साल हम तिब्बत के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर एकजुटता और तिब्बती भावना को जिंदा और मजबूत बनाए रख सके। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी तिब्बत के हित पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है और कर्इ सरकारों ने अपनी तरफ से बयान जारी किए हैं। अब भी, हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से कुछ ठोस कार्रवार्इ का इंतजार है। दुर्भाग्य से चीन सरकार ने तिब्बत के प्रति अपनी नीतियों में ज्यादा बदलाव नहीं किया है और वह अब भी अपनी कठोर नीति को जारी रखे हुए है। इस मामले में हम ज्यादा प्रगति नहीं कर पाए हैं। कुल मिलाकर पिछला साल स्थिर रहा है, जो कि अपने आप में महत्वपूर्ण है। जब परमपावन दलार्इ लामा ने अपने सभी राजनीतिक अधिकार चुने हुए नेता को सौंप दिए तो तिब्बतियों में इसे लेकर भारी बेचैनी थी। लेकिन अब यह बेचैनी काफी कम हो गर्इ है और तिब्बती अब परमपावन दलार्इ लामा के इस दृषिटकोण को स्वीकार करने लगे हैं कि तिब्बती अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम होंगे और आंदोलन का नेतृत्व खुद करेंगे।
आप अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही दुनिया भर की यात्रा करते रहे हैं। दुनिया के कर्इ प्रमुख देशों की सरकारों की तरफ से आपको कैसी प्रतिक्रिया मिली है? लोग आमतौर पर तिब्बत के मसले पर सहानुभूति रखते हैं और तिब्बतियों के समर्थन में बयान जारी करना चाहते हैं। हालांकि, कुछ सरकारें चीन सरकार पर वास्तव में इस बात पर दबाव बनाने के मामले में ज्यादा हिचक रही हैं कि वार्ता के माध्यम से वह शांतिपूर्ण समाधान पर आगे बढ़े। मैंने यह देखा है कि हाल का रुख सकारात्मक रहा है और अब ज्यादा सरकारें चीन से सीधे इस मसले पर बात करने को इच्छुक दिख रही हैं। फिर भी हम चाहते हैं कि इस मामले में और कदम उठाए जाएं।
हाल में नर्इ दिल्ली में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में आपने यह स्वीकार किया था कि दलार्इ लामा के राजनीतिक पद की जगह लेना कठिन है। आपको किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है? क्या आपको निर्वासित तिब्बतियों के बीच किसी तरह की घरेलू आलोचना का सामना करना पड़ रहा है?
कभी-कभी इसमें थोड़ी मुशिकल होती है। आखिरकार मैंने परमपावन से राजनीतिक जिम्मेदारी ली है जिनकी दुनिया भर में ख्याति एक नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, वैशिवक शांति के अगुआ और दुनिया के प्रख्यात अहिंसा समर्थक के रूप में रही है। इसलिए, निशिचत रूप से हमारे सामने कर्इ चुनौतियां आने वाली हैं, यह काम अपने आप में कठिन है। शुरुआती स्वीकृति और मान्यता बढ़ रही है, इस तरह हम प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी हमें बहुत दूर जाना है।
पिछले एक साल में तिब्बत में करीब 51 लोग आत्मदाह कर चुके हैं। अब तिब्बत के भीतर के हालात कैसे हैं?
तिब्बत के भीतर की सिथति बहुत गंभीर है। चीन सरकार ने तिब्बत को एक तरह से बाहरी दुनिया के लिए बंद कर दिया है, किसी भी पत्रकार या पर्यटक को वहां जाने की इजाजत नहीं दी जा रही है। राजधानी ल्हासा से बाहर रहने वाले तिब्बती जब ल्हासा जाते हैं तो उन्हें वहां से भगा दिया जाता है। यहां तक कि ल्हासा के लोग भी डर के माहौल में जी रहे हैं, उदाहरण के लिए हर कुछ मील पर जांच चौकी बनार्इ गर्इ है, जो कि मनुष्यता और मनुष्य के एक सामाजिक प्राणी होने के खिलाफ जाता है। चीन सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों के साथ यह व्यवस्था कायम की है। यह बहुत दु:खद है। जिन 51 लोगों ने आत्मदाह किया है उनमें से 41 का निधन हो चुका है। इससे पता चलता है कि तिब्बत के भीतर के हालात इतने गंभीर और हताशाजनक हैं कि तिब्बती जिंदा रहने की जगह मरना पसंद कर रहे हैं।
आपको तिब्बत के भीतर रहने वाले तिब्बतियों से कैसे संकेत मिल रहे हैं?
उनका कहना है कि चीनी शासन इतना दमनकारी है कि उसमें रहना संभव नहीं है जिसकी वजह से वे आत्मदाह कर रहे हैं। इसके साथ ही तिब्बत के तीनों क्षेत्रों में एकजुटता और भावना इतनी मजबूत बनी हुर्इ है वे हार नहीं मान रहे बलिक लगातार चीनी नीतियों का विरोध कर रहे हैं।
ऐसा लगता है कि आत्मदाह के प्रति अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बहुत फीकी प्रतिक्रिया दिखार्इ है, खासकर चीन सरकार पर दबाव बनाने के मामले में। इस पर आपका क्या नजरिया है?
यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। हम इस बारे में दिए बयानों का स्वागत करते हैं और मिल रही सहानुभूति की तारीफ करते हैं, लेकिन अब हम यह देखना चाहते हैं कि चीन सरकार पर दबाव बनाने के मामले में ठोस कार्रवार्इ की जाए। हम यह चाहते हैं कि चीन के दौरे पर जाने वाले विदेशी प्रतिनिधियों को तिब्बती इलाकों में जाने और इस बात की जांच करने की इजाजत दी जाए कि वहां क्या चल रहा है, ताकि सच बाहर आ सके। चीन सरकार हम पर (निर्वासित तिब्बतियों) पर आरोप लगा रही है कि हम सच नहीं बोल रहे, लेकिन हम यह नहीं स्वीकार कर सकते कि चीन सरकार जो कह रही है वही सच है। चीन सरकार यदि सच बोल रही है तो उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तिब्बत का दौरा करने और चीन सरकार के दावों की जांच करने का मौका देना चाहिए। इसी प्रकार, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी चीन सरकार से यह कहना चाहिए कि हम तिब्बती इलाकों तक पहुंचना चाहते हैं ताकि खुद ही यह निर्धारण कर सकें कि वहां क्या हो रहा है। इससे यह तय हो सकेगा कि इस मामले में सबसे अच्छे तरीके से कैसे आगे बढ़ा जाए और अंतरराष्ट्रीय समुदाय चीन सरकार को इस मामले में सुझाव और सिफारिश दे सकता है कि इस मामले में आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है।
तिब्बत मसले पर अमेरिका और भारत का रुख क्या है? भारत ने तिब्बती जनता के लिए सबसे ज्यादा किया है क्योंकि तिब्बती प्रशासन का केंद्र यहीं है, यहां बहुत बड़ी संख्या में तिब्बती रहते हैं। भारत सरकार तिब्बती स्कूलों को सबिसडी भी देती है, तो हम आम मानवीय सोच के प्रतिफल हैं। जहां तक अमेरिका की बात है, विदेश मंत्री हिलेरी किलंटन ने हाल में चीन सरकार से आग्रह किया है कि वह तिब्बत मसले को हल करने के लिए तिब्बती नेतृत्व के साथ वार्ता में शामिल हो। अमेरिकी सदन कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया है कि इस मसले को हल करने के लिए बहुपक्षी रवैए के साथ एक कान्टैक्ट ग्रुप का गठन किया जाना चाहिए। ये सभी विचार स्वागतयोग्य है, लेकिन हम इस मामले में कुछ ठोस नतीजा चाहते हैं।
चीन-तिब्बत वार्ता के विफल रहने पर आपका क्या नजरिया है?
इसमें गतिरोध मुख्यत: चीन सरकार की कठोर नीतियों की वजह से आया है। उन्होंने लगातार एक अपारदर्शी प्रक्रिया अपनाया है जिसमें उन्होंने हमें कभी भी साफ संकेत नहीं दिया। हम चाहते हैं कि जल्द से जल्द और सार्थक वार्ता शुरू हो, उनकी अनिच्छा ने ही इस प्रक्रिया को बाधित कर रखा है।
बीजिंग से वार्ता करने के लिए नियुक्त दलार्इ लामा के दो दूतों ने इस साल इस्तीफा दे दिया. इससे क्या संदेश निकलता है?
इस्तीफा देकर उन्होंने यह साफ कर दिया है कि तिब्बत में वर्ष 2008 से लगातार खराब होते हालात और आत्मदाहों की लगातार बढ़ती संख्या के बीच चीन सरकार से कोर्इ प्रतिक्रिया न मिलने पर वे काफी हताश महसूस कर रहे हैं। हमारे तरफ से दूतों ने कहा है कि जनवरी 2010 से जून 2012 के बीच उन्होंने वार्ता करने का प्रयास जारी रखा लेकिन चीन सरकार ने उनकी पहल पर कोर्इ सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दिखार्इ। इन दूतों के इस्तीफे ने यह साफ कर दिया है कि फिलहाल उन्हें वार्ता की कोर्इ संभावना नहीं दिख रही है। अब जब भी भविष्य में फिर से वार्ता की संभावना बनेगी, उम्मीद है कि चीन में नेतृत्व परिवर्तन के बाद ऐसा हो, तो हम किसी भी समय, किसी भी जगह वार्ता के लिए तैयार रहेंगे।
बीजिंग से वार्ता करने के लिए अगले दूत कौन हो सकते हैं?
इस साल के अंत तक चीन के नेतृत्व में परिवर्तन होने जा रहा है। हम देखना चाहते हैं कि यह कैसे होता है। हमने कोर्इ अंतिम समय-सीमा नहीं तय कर रखी है। जैसे ही चीन सरकार इच्छा दिखाएगी और वार्ता शुरू करने के लिए राजी होगी, वार्ता में शामिल होने के लिए परमपावन दलार्इ लामा की तरफ से नए दूत सामने आ जाएंगे।
अब समूचे तिब्बती संघर्ष की जिम्मेदारी आपके कंधे पर है. आपको कैसा लग रहा है?
किसी के लिए भी यह काफी कठिन काम है और तथ्य यह है कि इसके लिए मुझे चुना गया है। मैं इसकी शिकायत नहीं कर सकता और न ही इसे छोड़ना चाहता हूं। मैं ध्वज को आगे बढ़ाने को प्रतिबद्ध हूं और तिब्बती आंदोलन की तरफ से कठोर मेहनत करूंगा जो कि वार्ता के माध्यम से अहिंसक तरीके से इस मसले के हल के लिए चलाया जा रहा है।
हाल में एक साक्षात्कार में दलार्इ लामा ने इस बारे में कुछ उम्मीद जतार्इ है कि चीन में नेतृत्व परिवर्तन का तिब्बतियों के लिए क्या मतलब हो सकता है। क्या बीजिंग में नए
प्रशासन के सत्ता संभालने के बाद आपको किसी बड़े नतीजे की उम्मीद है?
मैं उम्मीद करता हूं कि नया नेतृत्व नए लोगों, नए विचारों और नर्इ नीतियों वाला हो और वह कुछ बदलाव करे। लेकिन पिछले 50 वर्षों के इतिहास को देखते हुए आशावादी होने की बहुत मजबूत वजहें नहीं दिखतीं।
ज्यादातर निर्वासित तिब्बती आपसे यह अपेक्षा करते हैं कि चीन के साथ वार्ता को आगे बढ़ाएं, क्या आप चीनी अधिकारियों के संपर्क में हैं?
एक प्रशासनिक प्रमुख होने के नाते इसके लिए मेरी राजनीतिक जिम्मेदारी है, इसलिए यह हमारा निर्णय होगा। हम अनौपचारिक संपर्क में रहे हैं, लेकिन अभी तक कोर्इ औपचारिक संपर्क नहीं बनाया गया है।
क्या हम 17वें करमापा ओग्येन त्रिनले दोरजी के लिए निर्वासित तिब्बती आंदोलन में भविष्य में कोर्इ और प्रशासनिक या राजनीतिक भूमिका की उम्मीद कर सकते हैं?
फिलहाल तो नहीं, लेकिन अगर लोग उन्हें चुनते हैं तो ऐसा हो सकता है। कोर्इ भी तिब्बती चुनाव लड़ने के योग्य है और हमारी निर्वाचन प्रणाली ऐसी है कि कोर्इ भी किसी को नामांकित कर सकता है। इसके बाद यह उन पर निर्भर होगा कि वे उम्मीदवार बने रहना चाहते हैं या नहीं।
तिब्बतियों की दूसरी विशेष महासभा सितंबर के अंत में होने जा रही है। क्या आप हमें बता सकते हैं कि इस बैठक में किन बातों पर चर्चा होगी?
मुख्यत: तिब्बत के भीतर आत्मदाहों और दमनकारी नीतियों की वजह से सिथति की गंभीरता को देखते हुए हमारी चर्चा का केंद्र यही होगा कि इस परिसिथति से अच्छे तरीके से कैसे निपटा जाए। इसमें यह चर्चा की जाएगी कि ऐसी गतिविधियों और कार्यक्रमों का आयोजन किस तरह से किया जाए कि तिब्बती जनता की पीड़ा सबके सामने आ सके और इस पीड़ा को दूर करने के लिए प्रशासन एवं लोगों की तरफ से सहयोग का कैसे रास्ता निकाला जा सके।
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के कालोन टि्रपा के रूप में आप अभी तक अपनी सबसे बड़ी उपलबिध किसे मानते हैं?
तिब्बती एकजुटता और जोश को जिंदा और मजबूत बनाए रखने, तिब्बती मसले को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उठाने और इस मसले को हल करने के लिए चीन सरकार पर दबाव बनाने की दिशा में मैं कुछ प्रगति कर पाया हूं। घरेलू स्तर पर हमने प्रशासनिक सुधारों, शिक्षा और सूचना प्रौधोगिकी के क्षेत्र में कुछ प्रगति की है।
क्या आपको लगता की दलार्इ लामा द्वारा समर्थित मध्यम मार्ग नीति और आपकी कभी विजय होगी?
जी हां, इसलिए तो मैं अमेरिका से लौटकर आया हूं। मैंने यहां आने और सिथति से खुद दो-चार होने लिए हार्वर्ड की अपनी नौकरी और सबकुछ छोड़ दिया है। आज नहीं तो कल हमें सफलता जरूर मिलेगी।