राजनीतिक कार्यां से संन्यास लेने की दलाई लामा की घोषणा तिब्बत के लिए ऐतिहासिक महत्व की है। 1959 में इसी दिन ल्हासा में हजारों तिब्बतियों ने चीन का सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया था । हजारों तिब्बती शहीद हो गए ते। तिब्बती स्वंतत्रता का आंदोलन उसी दिन से किसी न किसी रुप में आज तक चल रहा है। चीन तिब्बत को लेकर चैन से बैठने की स्थिति में नही है। तिब्बत के भीतर वहां का जनसाधारण विद्रोह करता रहता है और तिब्बत के बाहर निर्वासित तिब्बती इस मुद्दे को मरने नहीं देते । ऐसा माना जाता है कि इस आंदोलन की बहुत बडी उर्जा दलाई लामा से प्राप्त होती है । दलाई लामा ने तिब्बत के प्रश्न को विश्व मंच से कभी ओझल नहीं होने दिया , इसलिए चीन के शब्द भंडार में ज्यादा गालियां दलाई लामा के लिए ही सुरक्षित रहती है । दरअसल , साधारण शब्दों में दलाई लामा तिब्बत के धर्मगुरु और शासक है। इतने से ही तिब्बत को समझ जा सकता । यही करण था कि 1959 में जब चीन की सेना ने ल्हासा पर पुरी तरह कब्जा कर लिया, तब माओ ने चीनी सेना से पूछा था कि दलाई लामा कहां है। सेना के यह बताने पर कि वह पकडे नहीं जा सके औऱ भारत चले गए है , माओ ने कहा था कि हम जीतकर भी हार गए है।
अब उन्ही दलाई लामा ने तिब्बत की राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय किया है । वैसे चीन ने तो दलाई लामा की इस घोषणा को सिरे से खारिज करते हुए इसे उनकी एक औऱ चाल बताया है, परंतु तिब्बती जानते है कि यह उनके धर्मगुरु की चाल नही है, बल्कि उनका सोचा -समझा निर्णय है । इसी कारण से निर्वासित तिब्बत सरकार औऱ आम तिब्बतियों में एक भावुक व्याकुलता साफ देखी जा सकती है।
दलाई लामा की उम्र 76 साल हो चुकी है । जाहिर है कि वह भविष्य के बैरे में सोचेंगे ही। यादि तिब्बती स्वंतत्रता का आंदोलन उन्ही के इर्द -गिर्द सिमटा रहा, तो उनके जाने के बाद उसका क्या होगा। दलाई लामा ने इसी को ध्यान में रखते हुए कुछ दशक पूर्व निर्वासित तिब्बत सरकार का लोकतंत्रीकरण कर दिया था । निर्वासित तिब्बती संसद के लिए बाकायदा चुनाव होते है। मंत्रिमंडल का गठन होता है और निर्वासित तिब्बत सरकार लोकतांत्रिक ढंग से कार्य़ करती है । जो लोग इस संसद की बहसों का लेखा -जोखा रखते रहे है, वे जानते है कि संसद में अक्सर तीव्र असहमति का स्वर भी सुनाई देता है । यहां तक कि दलाई लामा के मध्यम मार्ग और स्वतंत्रता के प्रश्न पर भी गरमागरम बहस होती है । निर्वासित तिब्बत सरकार के संविधान में दलाई लामा को भी कुछ अधिकार दिए गए है, लेकिन वह धीरे -धीरे दिए गए है, लेकिन वह धीरे -धीरे उन्हें छोडते जा रहे है। संसत में कुछ सदस्य मनोनीत करने का उनके पास अधिकार था, लेकिन उन्होंने इसे स्वेच्छा से त्याग दिया। जाहिर है, दलाई लामा अपनी गैरहाजियों में तिब्बत के लोकतांत्रिक नेतृत्व को स्थापित करने का प्रयास कर रहे है। दलाई लामा जानते है कि उनकी मृत्यु के उपरांत चीन सरकार अपनी इच्छा से किसी को भी उनका अवतार घोषित कर सकती है और फिर उससे मनमर्जी की घोषणाएं करवा सकते है । इस अशंका को ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने दो कदम उठाए है। पहला , यह घोषणा कि वह चीन के कब्जे में गए तिब्बत में पुनर्जन्म नहीं लेंगे । दूसरा , उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में दलाई लामा के अधिकारों ही समाप्त कर दिया है । भविष्य में चीन यदि किसी मनमर्जी के दलाई लामा से राजनैतिक घोषणाएं भी करवाएगा, तो तिब्बतियों की दृष्टि में उनकी कोई कीमत नहीं होगी।
दलाई लामा के इस कदम से उनके जीवन काल में तिब्बतियों का ऐसा नेतृत्व उभर सकता है , जो अपने बल -बूते इस आंदोलन को आगे बढा सके । दलाई लामा शुरु से ही यह मानते है कि लोकतांत्रिक प्रणाली से ही जन -नेतृत्व उभरता है । वह कहते रहते है कि भारत अपनी समस्याओं से इसलिए जूझने में सक्षम है, क्योंकि यहां शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली है, वे इसे भारत की आंतरिक शाक्ति बताते है । दलाई लामा तिब्बती शासन व्यवस्था में इसी शाक्ति को स्थापित करना चाहते है, ताकि तिब्बती पहचान का आंदोलन कभी मंद न पडे । फिलहाल चाहे दलाई लामा अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएंगे , लेकिन उनका नैतिक मार्गदर्शन तिब्बती समुदाय को मिलता ही रहेगा। उनका यही नैतिक मार्गदर्शन तिब्बत में न नेतृत्व की शाक्ति बनेगा औऱ उसे विभिन्न मुद्दों पर एकमत ने होते हुए भी व्यापक प्रशनों पर साथ चलने की शाक्ति प्रदान करेगा। दलाई लामा ने कहा है कि वह धर्मगुरु के नाते ही अपने दायित्वों का निर्वाह करेंगे। तिब्बत की पहचान का प्रशन भी मूलत धर्म से ही जुडा है। उनके इस कदम से धीरे -धीरे तिब्बतियों का आत्मविश्वास बढेगा औऱ अपने बल बूते लडने की क्षमता भी।
दलाई लामा जानते है कि उनकी मृत्यु के उपरांत नए दलाई लामा के वयस्क होने तक जो शून्य उत्पन्न होगा, उससे तिब्बती निराश हो सकते है औऱ वे भटक भी सकते है । शायद इसीलिए करमापा लामा से उनकी आशा है कि वह इस शून्यकाल में तिब्बतियों का मार्गदर्शन करेंगे। यही कारण रहा होगा कि करमापा लामा को लेकर उठे विवाद में दलाई लामा ने अपना विश्वास स्पष्ट रुप से करमापा में जताया।
कुछ विद्वानों ने हवा में तीर मारने शुरु कर दिए है कि दलाई लामा की घोषणा से भारत और चीन के संबंध सुधरने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह विश्लेषण इस अवधारणा पर आधारित है कि भारत से इसलिए खफा नही है कि यहां दलाई लामा रहते है । चीन के खफा होने का काऱण यह है कि भारत चीन को अरुणाचल और लददाख क्यों नहीं सौंप रहा। चीन भारत के बहुत बडे भू – भाग को अपना मानता है और वह चाहता है कि भारत उसके इस दावे को स्वीकर करे। दलाई लामा के भारत में रहने या न रहने से चीन के इस दावे पर कोई असर नहीं पडता।
(लेखक हिमाचल प्रेदश विवि के धर्मशाला कैंपस के निदेशक है)