तिब्बत: आत्मदाह का ताप
राधा भटट
इस पत्र के माध्यम से मैं आपका ध्यान तिब्बत में हो रही आत्मदाह की भयानक घटनाओं की तरफ खींचना चाहती हूं। बिना किसी को नुकसान पहुंचाए अपने प्राणों को न्योछावर कर देने का यह दुखद सिलसिला पिछले कर्इ महीनों से लगातार जारी है। अब तक कोर्इ 120 लोग अपनी जान दे चुके हैं। चीन में बाहर निकलने वाली खबरों पर बेहद कड़ी निगरानी रखी जाती है। तो भी अपने प्राण होम कर देने की जो वजह सामने आ रही है वह एक-सी है: तिब्बत की आजादी और परम पावन दलार्इलामा की घर वापसी।
पिछले दौर में संसार के नक्शे में कर्इ बदलाव हुए हैं। पड़ौसी राज्य नेपाल और भूटान में राजशाही का अंत हुआ है और लोकतंत्र की वापसी हुर्इ है। उधर सोवियत रूस और चेकोस्लोवाकिया जैसे देशों में स्वतंत्र हुए नए राज्यों का उदय हुआ है। तिब्बत के लोगों को इस सबसे प्रेरणा मिली है। उन्हें गरिमा के साथ जीने का अवसर और बुनियादी मानव अधिकार प्राप्त करने की आशा की दिशा में बढ़ने का बल मिला है। इसी से पता चलता है कि अपना विरोध जताने के लिए तिब्बत के लोग आत्मदाह जैसे कठोर कदम उठाने की जरूरत क्यों महसूस करते हैं। अपनी हताशा और निराशा को जाहिर करने का दूसरा कोर्इ जरिया उन्हें नजर नहीं आ रहा है।
दुर्भाग्य से चीन की सरकार इस दुखद प्रसंग में किसी भी तरह का सकारात्मक माहौल नहीं चाहती। आत्मदाह के इस भयानक सिलसिले को रोकने के लिए मेरा आप से निवेदन है कि आप स्वयं चीन की सरकार से इस विषय पर संवाद स्थापित करें। उनके नुमाइंदों को इस बात के लिए तैयार किया जाए कि वे तिब्बत के लोगों की चिंताओं व कष्टों को शांति से सुनें और उन पर कुछ सकारात्मक कदम उठाने का प्रयास करें।
इन दुखद घटनाओं से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ आपका ध्यान विशेष रूप से खींचना चाहती हूं:
अब तक आत्मदाह करने वाले लोगों में 90 प्रतिशत युवा हैं। इनकी सभी की उम्र 30 वर्ष से नीचे है। इनमें से कोर्इ भी युवा अपने आध्यात्मिक गुरु दलार्इ लामा से कभी नहीं मिला था और न उसने स्वतंत्र तिब्बत को देखा था। अलबत्ता जन्म से लेकर अपने दाह तक तो आजाद तिब्बत के विचार और परम पावन के विरुद्ध लगातार चलने वाला साम्यवादी दुष्प्रचार रोजाना खुराक की तरह पिलाया गया था।
इन आत्मदाहों की कोर्इ दो तिहार्इ घटनाएं उन इलाकों में हुर्इ हैं, जिन्हें चीन तिब्बत का हिस्सा भी मानने से इन्कार करता है। सन 1951 में जब चीन ने तिब्बत का अधिग्रहण किया था, उस समय ये इलाके ‘खाम और ‘आमदो प्रांत में आते थे। सन 1960 में तिब्बत के पुनर्गठन के बाद चीन ने इन इलाकों को युन्नान, सीचुआ, क्यूंघर्इ और गांजू में मिला लिया था। इस सबसे साफ होता है कि चीन तिब्बत की सम्प्रभुता और उसके अस्तित्व को लेकर कितना नकारात्मक रहा है।
इतना ही नहीं पिछले कुछ सालों में तिब्बत में हान चीनियों को बाहर से लाकर बड़ी संख्या में बसाया गया है। इस नर्इ आबादी के बीच तिब्बती अपने ही घर में पराए और अल्पसंख्यक होकर रह गए हैं।
इन सारी ओछी हरकतों के बावजूद तिब्बती लोगों ने आत्मदाह के माध्यम से अपने आप को ही भयंकर क्षति पहुंचाना तय किया, बजाय नर्इ आबादी यानी हान चीनियों और पुलिस पर बम, चाकू गोली चलाने के। ऐसी भी खबरें लगातार आती रही हैं कि चीन की पुलिस ने आत्मदाह कर रहे युवाओं को बचाने के बदले, उन पर लात-घूंसे चलाने तक का बेहद भद्दा काम किया है। कर्इ मामलों में तो हान चीनियों ने आग में लिपटे सत्याग्रहियों को पत्थर तक मारने का काम किया है। आत्मदाह के ऐसे कर्इ मामलों में उन युवाओं की जान बचार्इ जा सकती थी। लेकिन चीनी पुलिस ने ऐसे लोगों के तुरंत उपचार की कोर्इ सुविधा कभी भी उपलब्ध नहीं करार्इ।
आत्मदाह की ये दुखद घटनाएं कोर्इ एक दिन का परिणाम नहीं हैं। यह तो एक औपनिवेशिक शासक द्वारा लंबे समय से जीने के अधिकार की घोर उपेक्षा का परिणाम है। उपेक्षा इतनी कि अकेलेपन की गहरार्इ तक पहुंच जाए।
तिब्बत की भीतरी हालत और उसके सारे पक्षों को देखकर ऐसा लगता है कि सही सोचने वाले हम कुछ लोगों ने, दुनिया के देशों ने अपनी नैतिक जिम्मेवारी ठीक से नहीं निभार्इ है। पहले तो हमने साम्राज्यवादी चीन के फोर्मुले को तिब्बत के लिए ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। दूसरे हमने यह भी विश्वास कर लिया कि एक शकितशाली एकाधिकारवादी सरकार तिब्बत जैसे छोटे राष्ट्र की आजादी का सम्मान करेगी। हमने तिब्बत को चीन से अलग रखने की कोर्इ कोशिश नहीं की। हम अपने को इस भयानक अन्याय का साझीदार बनने से रोक सकते थे।
हमें पूरा यकीन है कि तिब्बत की समस्या केवल और केवल आपसी बातचीत के जरिए ही सुलझार्इ जा सकती है। लिहाजा हमें दुनिया के मंच पर एक आम राय बनाने की जरूरत है। ऐसा करके हम तिब्बत की समस्या का शांतिपूर्ण हल ढूंढ़ने के लिए चीन पर नैतिक दबाव डाल सकते हैं। तिब्बत के विषय में आखिरी आवाज तिब्बत की ही होनी चाहिए, किसी और की नहीं। हमें यकीन है कि कोर्इ भी सभ्य शकित या देश तिब्बती लोगों के निर्णय की स्वतंत्रता में बाधक नहीं बन सकता।
महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी के नाते हम लोग उचित और सार्थक प्रयासों में पूरा विश्वास रखते हैं। इसलिए हम आशा करते हैं कि महामहिम और आपकी सरकार के अन्य सम्मानीय सदस्य, और आपके देश के प्रतिष्ठित नागरिक सभी अपने तई चीन की सरकार से तिब्बत में सदभावपूर्ण माहौल बनाने के लिए कहेंगे। आप सबका ऐसा मिला जुला आग्रह तिब्बत को उसकी आजादी और मानव अधिकार दिलाने में सहायक होगा।
हमारी इन कोशिशों से तिब्बती युवाओं का अनमोल जीवन बच सकता है। आज ये युवा अपने को अलग-थलग महसूस करते हैं। वे एक सम्मानजनक जीवन जीने के अपने मूल अधिकार से वंचित हैं।
हमारा यह छोटा-सा कदम हमारी पीढ़ी को शर्मसार होने से बचा सकता है। जब हमें कुछ कहना चाहिए, पर हम कहते नहीं, चुप रह जाते हैं तो हम पाप ही करते हैं। इसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पूरा संसार हमारे इस सामूहिक और अहिंसात्मक प्रयत्न की सराहना करेगा। हमारे लिए उन युवाओं को भूल जाना, जो जीवन के सबसे जरूरी अअधिकार की मांग करते हुए आत्मदाह कर रहे हैं, कितना दुखद है। मानव सभ्यता के इतिहास में शायद ही अपने अधिकार को पाने के लिए आत्मदाह जितना भयानक विकल्प कभी आया हो!
तिब्बत के युवाओं के प्रति हमारी यह उपेक्षा, हमारा यह असहयोग दुर्भाग्य से उन हजारों लोगों और आंदोलनों को एक गलत संकेत देगा जो आज अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज हमारा यह विचित्र मौन उन्हें अपने रास्ते तक बदलने के लिए मजबूर कर सकता है।
सभी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को लिखे एक लंबे पत्र के कुछ प्रमुख अंश।
लेखिका गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष हैं।
सुरेन्द्र कुमार: सचिव, गांधी शांति प्रतिष्ठान
221-223 दीनदयाल उपाध्याय मार्ग
नर्इ दिल्ली-110002
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