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धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश। परम पावन दलाई लामा ने तिब्बती जल-बाघ वर्ष के पन्द्रहवें दिन भगवान बुद्ध के जीवन की एक महान घटना ज्ञान प्राप्ति की महाप्रतिहार्य पूर्व मनाने के लिए तिब्बती मुख्य मंदिर त्सुगलाखांग में प्रवेश किया था। कोविड महामारी से उत्पन्न व्यवधान के कारण जनवरी- २०२० में बोधगया में सार्वजनिक तौर पर दर्शन देने के बाद परम पावन की यह पहली सार्वजनिक उपस्थिति है।
आज का कार्यक्रम १४०९ में ल्हासा के जोखांग में जे त्सोंखापा द्वारा शुरू किए गए महान प्रार्थना उत्सव का हिस्सा था, जो आज भी अनवरत जारी है। त्योहार के प्रत्येक दिन को चार सत्रों में विभाजित किया गया थाः पहला सुबह की प्रार्थना, दूसरा प्रवचन- सत्र, तीसरी दोपहर की प्रार्थना और चौथी तीसरे प्रहर की प्रार्थना। त्योहार में प्रवचन-सत्र के दौरान आर्यशूर की जातकमाला से चौंतीस जातक कथाओं का पाठ किया जाता है। ज्ञातव्य है कि जातक कथाएं बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां है जिसका संचायन चौथी शताब्दी में काव्यात्मक रूप से किया गया था। त्योहार के पंद्रहवें दिन पूर्णिमा को चोंखापा ने सभी प्राणियों के कल्याण हेतु ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा से बोधिचित्त के जागरण के लिए एक बड़ा सार्वजनिक समारोह भी किया।
परम पावन दलाई लामा ने मंदिर में स्थित सिंहासन पर विराजमान होने के बाद अपना प्रवचन शुरू कियाः
‘मैंने मेडिकल चेक-अप के लिए अभी दिल्ली जाने के बारे में सोचा था। हालांकि, मैं अस्वस्थ महसूस नहीं करता। वास्तव में, मैं किसी भी चीज के लिए फिट महसूस करता हूं, इसलिए मैंने नहीं जाने का फैसला किया। आमतौर पर सर्दियों के दौरान मैं बोधगया जाता हूं। लेकिन इस साल भी मैंने धर्मशाला में आराम करने और चीजों को आसान बनाने का फैसला किया। मैंने एक भविष्यव्यकता (तिब्बतीः मो) भी फेंका जो यह दर्शाता है कि यह करना बेहतर होगा।
तो आज मैं जातकमाला से पाठ सुनाने जा रहा हूं।
अब प्रश्न यह है कि बुद्ध प्राणिमात्र को कैसे लाभ पहुंचाते हैं? वे अहितकर कर्मों को जल से नहीं धोते और न अपने हाथों से प्राणियों के कष्ट दूर करते हैं और न ही अपनी अनुभूति को दूसरों में प्रतिरोपित करते हैं। वह दुखी प्राणियों के मन को शांत करने के साधन के रूप में इस तरह के सत्य का उपदेश देकर, अपने द्वारा अनुभव की गई वास्तविकता को प्रकट करके प्राणियों को मुक्त करते हैं।
‘बुद्ध ने पहले चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी। फिर बाद में गिद्धकूट पर्वत के शिखर पर उन्होंने अपने सिद्धांत के सार रूप में सम्यक ज्ञान की शिक्षाओं को प्रस्तुत किया, जिन्हें हृदय सूत्र में प्रस्तुत किया गया है और जिसका हम नियमित रूप से पाठ करते हैं।’
‘मैं शून्य का उपदेश देने के लिए उसका चिंतन करने की पूरी कोशिश करता हूं, जो मुझे नकारात्मक भावनाओं से निपटने में मददगार लगती है।’
‘विनाशकारी भावनाएं दुख का कारण बनती हैं। यदि आप उन्हें कम कर सकते हैं तो आप स्वाभाविक रूप से शांति महसूस करेंगे। हम तिब्बतियों का अवलोकितेश्वर और जागृत मन के साथ एक विशेष संबंध है। इसका इरादा अन्य प्राणियों की मदद करना है और बुद्धत्व तक पहुंचना है।’
इसके बाद ‘हृदय सूत्र’ का पाठ हुआ, जिसमें लामाओं की वंश परंपरा की प्रार्थना की जाती है। इसमें पिछले कई दलाई लामाओं का उल्लेख है। अंत में सिक्योंग पेन्पा छेरिंग, निर्वासित तिब्बती संसद के अध्यक्ष खेंपो सोनम तेनफेल और उपाध्यक्ष डोल्मा छेरिंग ने मिलकर परम पावन को एक मंडल भेंट किया।
इसके बाद सभी ने मक्खन वाली चाय और खीर का आनंद लिया। इस दौरान परम पावन ने तिब्बत में एक अवसर का स्मरण किया जब एक समारोह में भाग लेने वाले एक गणमान्य व्यक्ति की मूंछ पर चावल का एक दाना चिपक गया था। इस अशुद्ध स्थिति को उजागर करके उन महोदय को शर्मिंदा करने के बजाय एक परिचारक ने सहज रूप से अपनी समझ वाली कविता की कुछ पंक्तियों का उच्चारण किया और उनकी मूंछें साफ कर दीं।
‘मैं उल्लेख कर रहा था कि तिब्बतियों का अवलोकितेश्वर के साथ एक विशेष संबंध है। हम इसे सम्राट सोंगत्सेन गोम्पो के संबंध में देखते हैं, जो बुद्धिमान और कुशल राजा थे। उन्होंने तिब्बती लिपि बनाने का फैसला किया। हालांकि, चीन और तिब्बती के बीच संस्कृति और घनिष्ठ संबंधों के बावजूद, उन्होंने इसे चीनी परंपरा के आधार पर तैयार नहीं करवाया, बल्कि इसे तैयार करने के लिए संस्कृत देवनागरी लिपि को मॉडल के रूप में चुना था। यह लिपि अभी भी संपूर्ण तिब्बत में समान उपयोग में है।
‘इसके बाद आठवीं शताब्दी में राजा ठ्रिसोंग देत्सेन ने भारत से आचार्य शान्तरक्षित को आमंत्रित किया, जिन्होंने तिब्बत में उस शिक्षा की स्थापना की जिसे बुद्ध ने ‘गहन और शांतिपूर्ण, जटिलता से मुक्त, असंबद्ध प्रकाश-एक अमृत-समान धर्म’ के रूप में वर्णित किया। इसी समय हमने बौद्ध साहित्य का तिब्बती में अनुवाद करना शुरू किया। तिब्बती संस्कृति को खत्म करने के हालिया प्रयासों और इसके साथ बुद्ध की शिक्षाओं के बावजूद हमने बौद्ध परंपरा को जीवित रखा है। इसका एक कारण अवलोकितेश्वर में तिब्बतियों का अटूट विश्वास है। और जैसे-जैसे समय बीत रहा है, चीन में अधिक से अधिक लोग तिब्बती बौद्ध धर्म में रुचि ले रहे हैं।’
हमने इस जिस शिक्षण को संरक्षित किया है वह वास्तविकता के अनुरूप है। दुनिया में कई धर्म हैं, लेकिन बौद्ध धर्म केवल तर्क और कारण पर आधारित है। अगर मैं इसमें अपनी भूमिका के बारे में सोचूं तो मैं कुंबुम मठ के पास अमदो प्रांत में पैदा हुआ था। अक्षर “अ, क, म” ल्हामो लात्सो झील की सतह पर परिलक्षित होते हैं, जिससे मेरी खोज हुई। उसके बाद मैं मध्य तिब्बत आया जहां मैं बौद्ध धर्म के अध्ययन और अन्वेषण में गहरी ध्यान केंद्रित किया था। इसके बाद तिब्बत से निर्वासन में मैं विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले कई लोगों से मिला हूं और उनमें से कई ने मेरे द्वारा बौद्ध धर्म के मन और भावनाओं के बारे में कही गई बातों में रुचि दिखाई है।
‘हम यहां इस विशेष अवसर पर खुद को यह याद दिलाने के लिए एकत्र हुए हैं कि बुद्ध की शिक्षाओं का यह खजाना केवल अध्ययन और साधना के माध्यम से संरक्षित किया जा सकता है और ऐसा करने से हम दुनिया के कई हिस्सों में अन्य लोगों को लाभान्वित कर सकते हैं। ‘मध्यम मार्ग में प्रवेश’ यह स्पष्ट करता है कि वसुबंधु और दिग्नाग जैसे विद्वान आचार्य भी शून्यता की शिक्षा को पूरी तरह से नहीं समझ पाए थे। ‘यह शिक्षा, जो कि तर्क और कारण पर आधारित है, हमें भीतर की विनाशकारी भावनाओं का सामना करने में लाभ देती है।’
स्कूली बच्चों को संबोधित करते हुए परम पावन ने उनसे कहा कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से तिब्बतियों के लिए समर्पित स्कूलों की निर्माण करने का अनुरोध किया, जहां तिब्बती विद्यार्थी तिब्बती भाषा में अध्ययन कर सकें। उन्होंने कहा कि यद्यपि वे शारीरिक रूप से निर्वासन में हैं लेकिन भारत तथा अन्य देशों में रह रहे तिब्बती लोग अपनी परंपराओं, धर्म और संस्कृति के निकट महसूस करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि इस परंपरा को संरक्षित रखने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रयास करते हैं और आप सब भी इस विरासत को संरक्षित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए।
आगे उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि वह बुजुर्ग हो रहे हैं लेकिन उन्होंने सभी को यह अश्वासन दिया कि वे एक दशक या उससे अधिक समय तक जीवीत रहेंगे और लोगों को नेतृत्व तथा प्रोत्साहित करते रहेंगे। उन्होंने कहा कि उनके घुटनों में चोट लगी है, लेकिन वे चलने की छड़ी पर भरोसा करते हुए नेतृत्व प्रदान करने की आश जताई है।
‘हम महान प्रार्थना महोत्सव के अवसर पर यहां एकत्र हुए हैं और मैं आपसे अपने साहस को बढ़ाने की आग्रह करता हूं। आप अपने आप को बुद्ध के अनुयायी, आर्य नागार्जुन और उनके शिष्यों तथा दिग्नाग और उनके अनुयायियों के रूप में सोचें। आप जो सुनते हैं, उसपर प्रश्न पूछा करें। पूछो क्यों? स्कूलों में दर्शनशास्त्र के शिक्षकों को न केवल कविता बल्कि दार्शनिक सोच भी पढ़ाना चाहिए।’
उन्होंने ध्यान केंद्रित करते हुए कहा कि बुद्ध की शिक्षाओं का सार मन को अनुशासित करना है। यह उल्लेख करते हुए कि वह सभी महान धार्मिक परंपराओं- हिंदू, ईसाई, मुस्लिम, यहूदी, सिख आदि का सम्मान करते हैं। परन्तु उन सभी धर्मों में केवल बौद्ध धर्म तर्क और कारण पर आधारित है।
उन्होंने कहा कि भारत सरकार के अतिथि के रूप में, मैं यहां निर्वासन में रहता हूं। लेकिन मेरे विचार हमेशा तिब्बत और हमारी तिब्बती सांस्कृतिक परंपराओं पर रहते हैं।’
इसके बाद बोधिचित्त के जागरण पर केंद्रित आम समारोह के दौरान परम पावन ने अपने श्रोताओं को आश्वस्त महसूस करने की सलाह दी कि वे बुद्ध के एक प्रामाणिक अनुयायी से सभी प्राणियों के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने का संकल्प प्राप्त कर रहे हैं। उन्होंने उन्हें अवलोकितेश्वर के अनुयायियों के रूप में अनित्यता, पीड़ा, निस्वार्थता और शून्यता से संबंधित शिक्षाओं पर चिंतन करने और इस परंपरा को जीवित रखने के लिए दृढ़ संकल्प करने के लिए प्रोत्साहित किया।
प्रवचन का समापन धन्यवाद मंडल की प्रस्तुति के साथ-साथ ‘शिक्षाओं के फलने-फूलने के लिए प्रार्थना’ और शुभ छंदों के पाठ के साथ हुआ।