WEBDUNIA, 4 मार्च 2014
चीन की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति तिब्बतियों के चौदहवें सर्वोच्च धर्मगुरु दलाई लामा से 21 फरवरी को व्हाइट हाउस में मिले। ओबामा की दलाई लामा से यह तीसरी मुलाकात थी। यद्यपि अमेरिका आधिकारिक तौर पर तिब्बत की स्वतंत्रता को मान्यता नहीं देता किन्तु मानवाधिकारों के शोषण के विरुद्ध अपनी नाखुशी कई मर्तबा जाहिर कर चुका है। भेंट के बाद चीन ने अमेरिका पर उसके घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया।
तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा दुनिया के सम्मानित धर्मगुरुओं में से एक हैं। सन 1989 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। दलाई लामा एक नाम नहीं वरन तिब्बतियों के लिए धर्म संस्था है। उनका विश्वास है कि दलाई लामा देवता के प्रकट रूप हैं तथा तिब्बत के संरक्षक संत हैं, जिन्होंने मानवता की सेवा के लिए अपने स्वयं के निर्वाण को टाल कर पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया है। वे तिब्बतवासियों की कामना के अनुसार हर बार पुनर्जन्म लेते हैं। पुनर्जन्म किसने और कहाँ लिया है, इसकी पहचान तिब्बती संतों द्वारा की जाती है।
किन्तु चीन उन्हें एक उग्रवादी, अलगाववादी एवं ‘भेड़ की खाल में भेड़िया’ कहता है। चीन दलाई लामा पर विरोध प्रदर्शनों के आयोजन करवाने के आरोप लगाता रहा है और दलाई लामा को लेकर कई बार अमेरिका को संबंध बिगड़ने की चेतावनी दे चुका है। चीनी सरकार उन देशों का पुरजोर विरोध करती है जो दलाई लामा से मिलते हैं। चीन के अनुसार जो देश या राजनेता दलाई लामा से मिलता है वह स्वतंत्र तिब्बत का पक्षधर और चीन का दुश्मन माना जाएगा। सन 2012 में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के दलाई लामा से मिलने पर चीन इतना नाराज़ हुआ कि लगभग एक वर्ष तक उसने इंग्लैंड के साथ उच्चस्तरीय कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए। बाद में कैमरून के यह कहने पर कि निकट भविष्य में उनका दलाई लामा से मिलने का कोई इरादा नहीं है, तब कहीं संबंध सामान्य हुए।
भारत ने दलाई लामा को एक शरणार्थी की तरह सन 1959 से अपने संरक्षण में रखा हुआ है। वहीं चीन भारत से दलाई लामा का प्रत्यावर्तन चाहता है। यही मुख्य वजह है भारत और चीन के संबंधों में खटास आने की।
धर्म और राजनीति का समागम अनिष्ट का कारक होता है। जब धर्म का राजनीति में प्रवेश होता है तो राजनीति को शुद्ध नहीं करता किन्तु स्वयं अशुद्ध हो जाता है, परन्तु यहाँ दलाई लामा अपवाद हैं। दलाई लामा आधुनिक युग के ऐसे ऋषि हैं, जिन्होंने धर्मगुरु और राजनेता की भूमिका बिना विवाद के निभाई। अपनी प्रजाति के निर्विवाद धर्मगुरु तो वे हैं ही, साथ में भी उन्होंने विश्व में अपना एक सम्मानित स्थान बनाया है। जापान, अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महशक्तियों के शासनाध्यक्ष दलाई लामा के सामने नतमस्तक हैं। काश, चीन को यह बात समझ में आ जाती कि दलाई लामा को साथ रखने का मतलब क्या होता है?
सारी शक्तियों को जोड़ने का काम दलाई लामा कर सकते हैं। चीन को सही दिशा दे सकते हैं। सच तो यह है कि डरा-धमकाकर नहीं अपितु प्यार से दुनिया को जीता जा सकता है। सन 2009 से अभी तक कोई 120 तिब्बती आत्मदाह कर चुके हैं। तिब्बती आत्मदाह तो कर सकते हैं किन्तु मानव बम बनकर किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते यही तो दलाई लामा की सीख है। चीन पर तिब्बत में राजनैतिक और धार्मिक अत्याचारों के आरोप हैं। आज यह ऋषि अपनी प्रजाति को चीन के जुल्मों के तले पिस जाने से बचाने के लिए अपने स्वाभिमान का गला घोंटकर चीन की कई अनैतिक मांगों को मानने और चीन के आधिपत्य को स्वीकारने के लिए तैयार है बशर्ते तिब्बतियों की सांस्कृतिक विरासत को कुचला न जाए। वे थोड़ी-सी स्वायत्तता चाहते हैं जिसका अमेरिका भी समर्थन करता है किन्तु चीन को मंजूर नहीं।
सरल, अहिंसक, सुसंस्कृत तिब्बती कुचले जा रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि मानव को कुचलने से संस्कृतियां विलुप्त नहीं होतीं। न तो हिटलर यहूदियों को समाप्त कर सका और न ही शक्तिशाली अमेरिका तालिबानियों को। यह चीन को जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना ही निर्दोष मानवता के रक्तपात का दोष उसके सर पर कम होगा। भारत का प्रत्येक नागरिक भी तिब्बतियों के इस अहिंसक आंदोलन से सम्पूर्ण सहानुभूति रखता है।