पायोनियर, 24 मई, 2018
जैसा कि बीजिंग सैन्य / नागरिक सिद्धांत को तेजी से कार्यान्वयन कर रहा है और विशेष रूप से मीडिया को साधने की नीति को तेज कर रहा है, उसे देखते हुए भारत को भी तैयार रहना चाहिए। यह भी तय है कि कल की किसी भी लड़ाई में सूचना महत्वपूर्ण हिस्सा बनने वाला है।
2003 में, चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग ने ‘तीन वारफेयर’ की अवधारणा को मंजूरी दी। इनके नाम हैं (1) सामरिक मनोवैज्ञानिक परिचालनों का समन्वित उपयोग; (2) प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मीडिया को साधना (3) विदेशों में लक्षित दर्शकों की धारणाओं में बदलाव करने के लिए डिज़ाइन किया गया कानूनी युद्ध।
हाल के महीनों में, बीजिंग इस सैन्य / नागरिक सिद्धांत, विशेष रूप से ‘मीडिया को साधने’ के कार्यान्वयन को तेज कर रहा है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में पिछले सप्ताह प्रकाशित एक लेख को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। इसमें चीन द्वारा भारत के साथ लगती सीमा पर बड़े पैमाने पर खनन अभियान की बात कही गई है। यहां सोने, चांदी और अन्य कीमती खनिजों का एक बड़ा खान पाया गया है। इस लेख में तर्क दिया गया है कि यह ” भारत के साथ एक नया सैन्य प्रतिस्पार्द्धा को जन्म दे सकता है।
हालांकि अरुणाचल प्रदेश के उत्तर में ल्हंकत्से काउंटी में बड़े पैमाने पर कोई खनन नहीं देखा गया है, लेकिन लेखक इस क्षेत्र पर चीनी दावों से इसे जोड़ते हैं: ‘परियोजना से परिचित लोगों का कहना है कि खनन का काम बीजिंग के एक महत्वाकांक्षी परियोजना का बहाना भर है। असल बात तो यह है कि इसके माध्यम से चीन दक्षिण तिब्बत (अरुणाचल के लिए चीनी नाम), पर अपने दावे को मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा है जो वर्तमान में भारतीय नियंत्रण में है।’
लेख 1959 में लोंगजू सीमा घटना, 1962 का भारत-चीन युद्ध, चीनी दावों और इस दुर्लभ धरती के भारी खजाने को एक साथ मिलाकर देखता है। कहानी का दुखद पहलू यह है कि लेख की तुरंत प्रतिलिपि बनाई गई और पीटीआई ने इसे जारी कर दिया। और अगली सुबह, पूरे भारतीय मीडिया ने इस मुद्दे को हाथों हाथ लिया और दक्षिण चीन सागर में चीनी प्रगति के साथ तिब्बती पठार पर होने वाली घटनाओं को जोड़ दिया।
विडंबना यह है कि एक दिन बाद अति राष्ट्रवादी चीनी टैबलायड द ग्लोबल टाइम्स ने लेख को ‘चीन-भारतीय संबंधों में कटूता पैदा करनेवाला एक कपटपूर्ण रिपोर्ट’ घोषित कर दिया। इसने कहा कि इस लेख ने आग लगाने का काम किया है, लेकिन इस बात पर से संतोष व्यक्त किया कि भारतीय प्रधानमंत्री की वुहान यात्रा के बाद दोनों देशों ने आपसी विश्वास को मजबूत करने में बड़ी प्रगति हासिल की है, इसके अलावा चीन ने कहा है कि ‘सीमा विवादों को उकसाने का उसका कोई इरादा नहीं है’।
ग्लोबल टाइम्स ने कहा कि हालांकि ‘रिपोर्ट में तथ्यात्मक सबूतों की गंभीर कमी थी और यह अगंभीर किस्म के थे’। भारतीय मीडिया ‘इस तरह के विषय को देख बेचैन हो उठा” कई चीनी लोगों को प्रथम दृष्टमया यही लगा कि यह विश्वसनीय रिपोर्ट नहीं है। एक भूवैज्ञानिक द्वारा भूगर्भीय बिंदु को उद्धृत करते हुए इसे अस्पष्ट तथ्य वाला बताया गया और विशेषज्ञ ने इसे खारिज कर दिया।’
पहले कपटपूर्ण रिपोर्ट छापने के पीछे बीजिंग का नाटकीय कदम है। चीन को यह अच्छी तरह से पता है कि बीजिंग में कुछ भारतीय संवाददाता किसी रिपोर्ट का बिना जांच- परख के नकल करने में माहिर हैं। इसीलिए वह ऐसा करता है और बाद में आग लग जाने पर वह आग पर पानी डालना शुरू कर देता है। इसे समझना बहुत ही मुश्किल है।
यह पहली बार नहीं है, जब साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने ऐसा किया है। 29 अक्टूबर, 2017 को जैक मा के अख़बार ने रिपोर्ट प्रकाशित किया कि चीनी इंजीनियरों ने ऐसी तकनीकों का परीक्षण किया है, जिनका उपयोग दुनिया का सबसे लंबे तिब्बत से झिंजियांग तक पानी ले जाने के लिए बनने वाले 1000 किलोमीटर का सुरंग बनाने के लिए किया जा सकता है। इस रिपोर्ट के छपते ही फिर से भारतीय मीडिया जाल में फंस गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आने वाले महीनों में भारत को सूचना युद्ध के लिए तैयार रहना होगा।
चीनी मीडिया के प्रचार का एक और पसंदीदा विषय भारत के साथ 1962 का युद्ध रहा है। बीजिंग इस कहानी को बार बार नए सिरे से लिखने और इसे दक्षिण तिब्बत जाने वाले अपने लाखों नागरिकों को बेचने के लिए उत्सुक रहता है। इसका विचार यह साबित करना है कि भारत ने अक्तूबर 1962 में चीन पर हमला किया था।
अक्तूबर 2017 के अंत में डोकलॉम एपिसोड की एक शाखा के रूप में, Sina.com ने ‘स्व-रक्षा प्रति आक्रमण की 55वीं वर्षगांठ मनाने के लिए’ फोटो का एक एल्बम प्रकाशित किया। ध्यान दें कि बीजिंग की नजर में यह शस्त्र सज्जा से हीन और बिना तैयारी के भारतीय सैनिकों द्वारा चीन पर किया गया हमला था। और कोई चारा न देख चीन ने प्रति आक्रमण कर सैकड़ों भारतीय जवानों और अधिकारियों को मार गिराया था।
तस्वीरों में से एक में जनवरी 1963 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को ल्हासा में पोटाला पैलेस के सामने से परेड करते जाते हुए दिखाया गया है। इससे चीन ने 1962 के युद्ध को 2017 के भूटान में डोकलाम गतिरोध के साथ जोड़कर दिखाने की कोशिश की है। ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओ त्से तुंग ने एक बार अनुमान लगाया था कि 1962 के युद्ध के भारत की ‘शर्मिंदगी’ से 10 वर्षों तक सीमा सुरक्षा और शांति बरकरार रह सकती है। इतिहास ने साबित कर दिया है कि इस शांति की अवधि अनुमान से अधिक लंबी है। आज 55 साल बाद भारत ने एक बार फिर चीन को उकसाया। संदेश स्पष्ट था। 1962 के युद्ध के समय भी सूचनाओं की भारी कमी पहले से मौजूद थी।
अप्रैल 1 9 63 की अपनी मासिक रिपोर्ट में सिक्किम के राजनीतिक अधिकारी ने नई दिल्ली को सूचित किया था कि ‘चीनी अधिकारियों ने इस महीने की शुरुआत में घोषणा की थी कि तिब्बत में चीनी सीमावर्ती गार्ड 3,213 भारतीय कैदी सैनिकों को रिहा करेंगे, जिसमें एक ब्रिगेडियर (जॉन दलवी), 26 फील्ड ग्रेड अधिकारी और 2 9 कंपनी ग्रेड अधिकारी शामिल होंगे।’
राजनीतिक अधिकारी ने रिपोर्ट में कहा: ‘चीन की प्रचार तंत्र ने यह साबित किया है कि भारतीय कैदी तिब्बत में सुखद आनंद की स्थिति में रह रहे हैं। हिरासत शिविर को सुरम्य परिवेश में स्थापित किया गया था, जहां भारतीय कैदी अपना समय खेल या मछली मारने में बीता रहे हैं और परम आनंद ले रहे हैं। यहां का भोजन इतना अच्छा माना जाता है कि चीनी बयान के मुताबिक भारतीय कैदी प्रति व्यक्ति 1.35 किलोग्राम तक खाना खा रहे थे। बीमारों को दी जानेवाली सेवा और देखभाल इतनी अभिभूत करने वाली है कि कई भारतीय सैनिक कैदी यह कहते पाए गए है कि उनके माता-पिता ने भी उनकी इतनी प्रेमपूर्ण देखभाल नहीं की है।’
भारतीय पीओडब्ल्यू ने इसके विपरीत रिपोर्ट दी ; भारतीय कैदी सैनिकों ने ठंडे तिब्बती पठार पर अपने कैद के महीनों के दौरान केवल मूली खाई और अत्यधिक पीड़ा का सामना किया। आज, चीनी प्रचार तंत्र अपने लाभ के लिए फिर 1962 के संघर्ष का उपयोग कर रहा है।
तिब्बनतन ऑटोनॉमस रिजन (टीएआर) के राज्यपाल चे दल्हा (उर्फ क़िझाला) ने हाल ही में लोहित घाटी में मैकमोहन रेखा के उत्तर में झायूल का दौरा किया। उसी घाटी में लगभग 50 किलोमीटर दक्षिण, वालॉन्ग की नवंबर 1962 में प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यहां भारतीय सैनिकों और विशेष रूप से भारतीय सेना के छह कुमाऊं रेजिमेंट ने चीनी बढ़त को रोकने में सफलता हासिल की थी और इसके लिए भारी कीमत चुकाई थी। यहां भारी संख्या में चीनी सैनिक हताहत हुए थे।
चीन ने झायूल में अपने सैनिकों की मौत के सम्मान में हीरो मेमोरियल पार्क बनाया है। अपनी यात्रा के दौरान चे ने ग्रामीणों से कहा कि जनता को हमेशा अपने क्रांतिकारी शहीदों की यादों को संजो कर रखना चाहिए। उन्होंने युद्ध स्मारक पर 447 क्रांतिकारी शहीदों के लिए पुष्पांजलि अर्पित की।
यह कहानी अब लाखों चीनी पर्यटकों को बताई जाएगी कि कैसे भारतीयों ने हमारी सेना पर हमला किया। संयोग से, चे ने ग्रामीणों को अजनबियों या संदिग्ध व्यक्तियों (भारतीय?) पर नजर रखने का आग्रह किया। उन्होंने उनसे जिरह करने और भारतीय सीमा पर किसी तरह की गतिविधि के बारे में पीएलए को रिपोर्ट भेजने आग्रह भी किया।
एक और स्मारक त्सोना काउंटी में थगला रिज के उत्तर में स्थित है। जनरल झांग गुहुआ, जिन्होंने 1962 में पीएलए के अभियान का नेतृत्व किया था, का फॉरवर्ड कमांड पोस्ट है। इसको फिर से स्थापित किया गया और पर्यटकों के लिए खोला गया है। यह मर्मांग गांव में स्थित है, जो मैकमोहन रेखा के उत्तर में पहली चीनी बस्ती है।
इस स्थल पर स्थित राष्ट्रीय स्तर की ऐतिहासिक स्थल पर चीन-भारत आत्म रक्षा प्रति आक्रमण युद्ध का भी उल्लेख किया गया है। यहां पर्यटकों का स्वागत करने के लिए होटलों की भरमार हैं। कल की किसी भी लड़ाई के लिए ‘सूचना’ निश्चित रूप से का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। क्या भारत ने इसे समझ लिया है? निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है। इस बीच, भारतीय पत्रकारों को लिखते समय तथ्यों को सावधानी से सत्यापित करने की बात भी समझ लेनी चाहिए।