दलाई लामा की भूमिका सीमित करने की चीन की चेष्टा के कूटनीतिक निहितार्थ तलाश रहे है: ब्रह्मा चेलानी
हाल ही में चीन के साथ कूटनीतिक तकरार बीजिंग की बड़ी चाल का नतीजा है, जिसे भारत को समझकर उससे निपटना होगा। भारत-चीन सीमा बेहद विवादित क्षेत्र है। 4057 किलोमीटर लंबी यह सीमा विश्व की सबसे लंबी सीमाओं में से एक है। चीन द्वारा बार-बार भारत की सीमा में घुसपैठ के कारण यह अकसर चर्चा में रहती है। चीन सोच समझ कर दोनों देशों के बीच पूर्णत: सहमति के आधार पर सीमा रेखा का निर्धारण नहीं करना चाहता। भारत का करीब 1,35,000 वर्ग किलोमीटर भूभाग चीन के कब्जे में है। यह करीब-करीब कोस्टारिका देश के आकार के बराबर है। फिलहाल चीन अपने 11 पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है। किंतु अगर तुलना करे तो भारत के साथ चीन का सीमा विवाद शेष अन्य सभी देशों के साथ सीमा विवाद से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और बड़ा है। इसी सप्ताह भारत के साथ होने वाली सीमा वार्ता को चीन द्वारा स्थगित किए जाने से भारत को कोई वास्तविक नुकसान नहीं होगा, क्योंकि गत तीस वर्षो से इस प्रकार की वार्ताओं में भारत को उलझाने के अलावा कोई वास्तविक प्रगति नहीं कर रहा है। 2006 से बीजिंग अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से संबंधों के आधार पर इस पर दावा जता रहा है। वह तमाम सेक्टरों में सैन्य भिडं़त के लिए तत्पर दिखता है, जबकि नई दिल्ली सीमा वार्ताओं में उलझी रहती है।
भारत-चीन के बीच सीमा वार्ता द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किन्हीं दो देशों के बीच चलने वाली सबसे लंबी वार्ता है। इन वार्ताओं के माध्यम से चीन बराबर भारत पर दबाव बढ़ाता जा रहा है। उदाहरण के लिए, पाक अधिकृत कश्मीर में हजारों सैनिकों को तैनात कर और भारत के खिलाफ कई तरह से कश्मीर कार्ड खेलकर चीन साफ संकेत दे रहा है कि चीन-पाक गठजोड़ जम्मू-कश्मीर पर भारत को मजबूर कर सकता है। अरुणाचल को लेकर चीन ने जो सैन्य दबाव बनाया है, वह महज कूटनीतिक है। सच्चाई यह है कि जम्मू-कश्मीर पर भारत की कमजोरी चीनी सैन्य घेराबंदी से और बढ़ गई है।
चीन को भारत के खिलाफ पहले अरुणाचल कार्ड और फिर कश्मीर कार्ड खेलने में महज चाल साल लगे है। पाक अधिकृत कश्मीर में चीन के बढ़ते कूटनीतिक दखल के कारण भारत को अब जम्मू-कश्मीर के दोनों छोरों पर पर चीनी सेना का सामना करना पड़ेगा। चीन-पाक के मजबूत होते गठजोड़ के कारण इनमें से किसी भी देश के साथ युद्ध की स्थिति में भारत के खिलाफ दो मोर्चे खुल जाएंगे। हालिया कूटनीतिक तकरार किसी अनिष्ट से कम नहीं है। दलाई लामा की भूमिका को सीमित करने के लिए बीजिंग भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह तिब्बती नेता को कोई सार्वजनिक मंच उपलब्ध न कराए। चीन के साथ नया विवाद दलाई लामा द्वारा धार्मिक सम्मेलन को संबोधित करने मात्र को लेकर नहीं था। चीन का विदेश मंत्रालय बराबर दबाव डाल रहा है कि दलाई लामा को किसी भी प्रकार का सार्वजनिक मंच मुहैया नहीं कराया जाए।
भारत की तिब्बत नीति को अपनी मंशा के अनुरूप ढालने में कामयाब होने के बाद बीजिंग के हौसले बुलंद है। 2003 में अटलबिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीनी के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र [टीएआर] के रूप में दर्शाने वाले नक्शों को स्वीकार कर भारत का महत्वपूर्ण कार्ड गंवा दिया। कुछ वर्षो से चीन भारत की क्षेत्रीय अखंडता की खिल्ली उड़ा रहा है, जबकि भारत अपने तिब्बत रुख में कोई बदलाव करने का इच्छुक दिखाई नहीं दे रहा।
वास्तव में, मनमोहन सिंह द्वारा पहले तो द्विपक्षीय रक्षा विनिमय को स्थगित करने की घोषणा करना और फिर दब्बूपने के साथ इन्हे फिर से चालू करने से बीजिंग की दबंगई बढ़ गई है। भारत ने रक्षा विनिमय इसलिए स्थगित किया था क्योंकि चीन जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए अलग से वीजा जारी कर रहा था। साथ ही चीन ने भारतीय सेना की टीम के प्रमुख के रूप में उत्तरी कमांड प्रमुख को वीजा देने से इनकार कर दिया था। किंतु इस साल के आरंभ में मनमोहन सिंह ने चीन यात्रा में एक ही बार में दो रियायतें दे डालीं। एक तो उन्होंने रक्षा वार्ता और स्टैपल्ड वीजा मामले को अलग-अलग मुद्दा मानते हुए वार्ता फिर से शुरू करने पर सहमति जता दी और दूसरे, भारतीय सैन्य प्रतिनिधिमंडल में से इसके टीम लीडर उत्तरी कमांड प्रमुख का नाम हटाकर चीन की संवेदनाओं का सम्मान किया।
हाल ही में, भारतीय राष्ट्रपति द्वारा नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन का उद्घाटन करने के लिए पहले तैयार होना और बाद में चीन द्वारा तयशुदा सीमा वार्ता स्थगित किए जाने के बाद फैसला पलट देने की आखिर क्या आवश्यकता थी। जिस प्रकार बीजिंग ने रक्षा वार्ता को स्थगित कर भारत को झुकने को मजबूर कर दिया, इससे लगता है कि इस हथकंडे से आगे भी लाभ उठाने का प्रयास करता रहेगा।
चीन ने दलाई लामा पर भारत की फजीहत इसलिए की क्योंकि वह जानता है कि वह भारत के पास बड़ी कूटनीतिक संपदा हैं। अब वह चाहता है कि भारत दलाई लामा को न केवल राजनीतिक मंच बल्कि धार्मिक मंच भी उपलब्ध न कराए। दरअसल, बीजिंग का दावा है कि वह विशुद्ध रूप से धार्मिक व्यक्तित्व नहीं है, बल्कि लंबे समय से अलगाववादी गतिविधियों में लिप्त है। वास्तव में चीन यह याद रखना नहीं चाहता कि उसने 1951 में स्वतंत्र तिब्बत को सेना के बल पर अपने देश में मिला लिया था और अब वह इस कब्जे का विस्तार अरुणाचल को दक्षिण तिब्बत बताकर वहां तक करना चाहता है।
बीजिंग दलाई लामा के लिए धार्मिक मंच भी उपलब्ध न कराने की नई दिल्ली से मांग इसलिए कर रहा है क्योंकि वह दलाई लामा के बहाने भारत पर नियंत्रण करना चाहता है। और हैरत की बात यह है कि इस काम में वह भारत की सहायता चाहता है। वास्तव में, चीन के कदम से संकेत मिलता है कि वह तिब्बत में बढ़ते असंतोष को दबाने और वहां अपना शासन और पक्का करने के लिए वृहद कूटनीति पर चल रहा है। वह तिब्बती बौद्धों को अपने सख्त नास्तिक शासन के अधीन करना चाहता है। पंचेल लामा संस्थान पर कब्जा जमाने से लेकर किसी वरिष्ठ लामा के दिवंगत हो जाने के बाद उसका अवतार खोजने की परंपरागत प्रक्रिया पर नियंत्रण से बीजिंग को दीर्घकालीन लाभ होगा। वर्तमान दलाई लामा की मृत्यु के बाद चीन किसी कठपुतली को अगले दलाई लामा के रूप में पेश करने का इंतजार कर रहा है। केवल भारत के पास चीन की इस कूटनीतिक चाल की काट है, और इसे अपने खुद के हितों के लिए यह करना होगा।