dalailama.com / थेकछेन छोलिंग, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत। आज २३ दिसंबर की सुबह भारतीय प्रबंधन संस्थान, रोहतक के निदेशक प्रोफेसर धीरज शर्मा ने परम पावन दलाई लामा का ‘करुणा और बुद्धि से चुनौतियों का सामना’ विषय पर संस्थान द्वारा आयोजित एक वार्तालाप का गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्होंने आशा व्यक्त की कि परम पावन के पास आज की दुनिया में कलह और संघर्ष में फंसे लोगों के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ हो सकता है। हालांकि, बाकी लोग आराम से रहते हैं। यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें कुछ लोग दूसरों को करुणा की दृष्टि से देखने में विफल रहते हैं, क्योंकि वे अपने स्वयं के अधिकार के प्रति जागरूक रहते हैं।
परम पावन ने उत्तर दिया, ‘मैं भारतीय मित्रों से बात करने का अवसर पाकर अत्यंत प्रसन्न हूं। चीन और भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं, लेकिन यह भारत है जिसने अहिंसा और करुणा की अपनी कई हज़ार साल पुरानी परंपराओं को बिना किसी नुकसान के संरक्षित किया है। इतना ही नहीं, इस देश में दुनिया की तमाम धार्मिक परंपराएं एक साथ रहती हैं। यहां धार्मिक सहिष्णुता की काफी पुरानी परंपरा है। हालांकि, हमेशा कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परेशानी पैदा करते हैं, लेकिन कोई नुकसान न करने के महत्व का मतलब है कि धार्मिक सद्भाव कायम है।
‘विद्वान इन परंपराओं को अपनाने वाले बेहतर दार्शनिक दृष्टिकोण पर बहस कर सकते हैं। लेकिन, सामान्य लोगों के दृष्टिकोण और व्यवहार के संदर्भ में भारत इस बात का उदाहरण पेश करता है कि धार्मिक परंपराएं शांति से साथ-साथ रह सकती हैं।’
तथापि जहां तक आधुनिक शिक्षा का संबंध है, इसमें भौतिकवादी जीवन शैली पर शायद बहुत अधिक बल दिया गया है। इसका मतलब है कि करुणा को शामिल करने और पाठ्यक्रम में कोई नुकसान न करने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
पिछली शताब्दी में, महात्मा गांधी ने दिखा दिया कि कैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहिंसा का उपयोग प्रभावी ढंग से किया जा सकता है। इसके बाद, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में ऐसे ही नेताओं ने उनका उदाहरण प्रस्तुत किया। आज की दुनिया में जहां नैतिक सिद्धांतों में काफी कमी है, लेकिन भारत में करुणा के महत्व को प्रकट करने की क्षमता है।
हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि युवा पीढ़ी इसका अनुकरण करे। चूंकि हम सभी इंसान हैं, इसलिए हमें एक-दूसरे से गर्मजोशी के साथ पेश आने की जरूरत है। हम में से प्रत्येक की एक मां भी रही है और उसने हमें जो देखभाल और स्नेह दिया और जिसके कारण हम आज जीवित हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारा जीवन इस तरह से शुरू होता है कि करुणा हमारे स्वभाव का हिस्सा होता है।
सदियों की लड़ाई और हथियारों के निर्माण में संसाधनों को नष्ट करने के बाद हमें करुणा, अहिंसा और व्यापक दुनिया में कोई नुकसान नहीं करने के विचारों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसका एक तरीका आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान को ‘अहिंसा’ और ‘करुणा’ के साथ जोड़ना है। इन दिनों मैं जिन वैज्ञानिकों से मिलता हूं, वे व्यक्ति और समाज दोनों पर पड़ने वाले प्रभावों के लिए मन की शांति खोजने के महत्व की सराहना करते हैं। मेरा मानना है कि भारत धर्मनिरपेक्ष रूप से प्राचीन और आधुनिक स्रोतों से ज्ञान के संयोजन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।’
संकाय सदस्यों, छात्रों और आईआईएम रोहतक समुदाय के सदस्यों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए परम पावन ने भारत की इस बात के लिए फिर से प्रशंसा की कि दुनिया के सभी धार्मिक संप्रदाय यहां फलते-फूलते हैं। प्रत्येक धर्म करुणा को बढ़ावा देने के तरीके सिखाता है।
उन्होंने सुझाव दिया कि अधिकार की भावना के साथ चरम इच्छाओं को प्राप्त करने की कोशिश करना अदूरदर्शी है। क्योंकि हमारे सामने उपस्थित चुनौतियां साफ-साफ कह रही हैं कि हमें पूरी दुनिया और पूरी मानवता को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। बहुत अधिक भौतिकवादी होना भी इसी तरह अदूरदर्शी है। जीवन का उद्देश्य एक दूसरे को नुकसान पहुंचाना और मारना नहीं है, बल्कि मानवता की एकता को ध्यान में रखते हुए सहयोगी समुदाय को बढ़ावा देना है। करुणा के सिद्धांतों पर आधारित और कोई नुकसान न करने वाले समुदाय अधिक शांतिपूर्ण दुनिया बनाने में योगदान करते हैं।
परम पावन ने घोषणा की कि हमें इसी ग्रह पर साथ-साथ रहना है। इसलिए, दूसरों को दुश्मन के रूप में देखना अच्छी बात नहीं है। चूंकि तिब्बतियों और चीनियों को अंततः एक साथ रहना है, इसलिए एक-दूसरे से लड़ना और मारना किसी काम का नहीं है। हम जहां भी रहें, हमारा लक्ष्य बेहतर शांतिपूर्ण विश्व बनाना होना चाहिए।
जलवायु संकट और इसके गंभीर परिणाम हमें बता रहे हैं कि हमें साथ मिलकर काम करना सीखना चाहिए, क्योंकि हमें भी साथ रहना है। हमें पृथ्वी की रक्षा करने और मनुष्यों और अन्य प्राणियों के जीवन को संरक्षित करने की आवश्यकता है।
परम पावन ने कहा कि संघर्ष को दूर करना संभव है। उन्होंने पिछली शताब्दी के दो विश्व युद्धों के बाद हुई दो सकारात्मक घटनाओं की ओर इशारा किया। एक संयुक्त राष्ट्र का उदय और दूसरा यूरोपीय संघ (ईयू) की स्थापना। सदियों के संघर्ष और युद्ध के बाद जर्मनी और फ्रांस के नेताओं ने फैसला किया कि अब बहुत हो गया है और यूरोप के बड़े सामान्य हितों को अब सभी यूरोपीय देशों के सामने रखने का समय है। परम पावन ने सुझाव दिया कि बेहतर होगा जब अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के राष्ट्र इस उदाहरण का अनुसरण करेंगे।
कुल मिलाकर, परम पावन ने व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने और हमारे सामने आने वाले मुद्दों पर दीर्घकालिक रुचि लेने का सुझाव दिया। अनेक ऐसी समस्याएं होती हैं, जो केवल संकीर्ण दृष्टि से देखने से ही और भी विकराल हो जाती हैं। उन्होंने सलाह दी कि मीडिया को बुनियादी मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि योग्यतम के जीवित रहने (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) की धारणा पुरानी है। प्रतिस्पर्धा केवल सीमित मूल्य की होती है जब हम सभी को एक साथ रहना होता है। अब केवल अपने अल्पकालिक हित के बारे में सोचना ही काफी नहीं है।
यह पूछे जाने पर कि वे खुद को ‘भारत का पुत्र’ होने का दावा क्यों करते हैं, उन्होंने सहमति व्यक्त करते हुए कहा की कि उनका जन्म तिब्बत में हुआ था। लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि तिब्बती संस्कृति बुद्ध की शिक्षाओं में निहित है, खासकर वे शिक्षाएं जो नालंदा विश्वविद्यालय में पल्लवित-पुष्पित हुई थीं। उन्होंने घोषणा की कि जब से उन्होंने भारतीय पुस्तकों, भारतीय आचार्यों के कार्यों का अध्ययन किया है, बचपन से ही उनका मन भारतीय विचारों से भरा हुआ है। राजनीतिक कठिनाइयों के परिणामस्वरूप वह भारत सरकार के अतिथि बन गए। यह एक ऐसा देश है, जहां वह स्वतंत्रता का अनुभव करते है।
जैसा कि उन्होंने पहले उल्लेख किया था, चीन और भारत पृथ्वी पर दो सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं। लेकिन यह भारत ही है जहां लोकतंत्र पनपता है और धार्मिक स्वतंत्रता फलती-फूलती है। जैसे-जैसे अधिक से अधिक वैज्ञानिक मन और भावनाओं के कामकाज में रुचि लेते हैं, प्राचीन भारतीय ज्ञान के प्रति जिज्ञासा बढ़ रही है। भारत के ये सभी गुण गौरव के स्रोत हैं।
प्रो.धीरज शर्मा ने सुबह की बातचीत में भाग लेने के लिए परम पावन को धन्यवाद दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि दर्शकों ने उनके कहने से बहुत कुछ सीखा है। अपनी ओर से परम पावन ने उत्तर दिया कि वे भारतीय मित्रों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर पाकर बहुत खुश हैं और बदले में उन्होंने भी धन्यवाद दिया।