अमर उजाला, 12 जुलाई 2015
निरूपमा राव, लेखक
बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा के 80 वें जन्मदिन के मौके पर उनके संदेशों और उनके जीवन पर काफी कुछ लिखा गया है और लिखा जा रहा है। लेकिन हाल ही में आई दो किताबों ने भारत में कुछ कम ही ध्यान खींचा है, जबकि ये किताबें तिब्बत के इतिहास पर खासी रोशनी डालती हैं। ये किताबें हैं, तिब्बतः एन अनफिनिश्ड स्टोरी और दूसरी है द नूडल मेकर ऑफ कलिमपोंग। इसमें से पहली किताब कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के विद्वानों लेजली और स्टीफन हाल्पर ने लिखी है और यह बात खासतौर से रेखांकित करने वाली है कि लेखकों ने किस तरह चीनी विदेश मंत्रालय के आर्काइव तक अपनी पहुंच बनाई। उन्होंने तिब्बत पर अमेरिकी नजरिये को स्पष्ट करने के साथ ही 1940 के दशक के आखिर और 50 के दशक में भारत की तिब्बत नीति का विश्लेषण भी किया है।
1950 में जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत की ओर मार्च किया था, उस वक्त पूर्वी तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासक नाग्बो जिग्मे ने निर्देश के लिए ल्हासा संपर्क किया, मगर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। वायरलेस से जवाब आया, ‘अभी काशगा (सत्तारूढ़ परिषद) के पिकनिक का समय है और सभी इसमें व्यस्त हैं।’ इसके बाद जो कुछ हुआ वह इतिहास है। तिब्बत द्वारा संयुक्त राष्ट्र से मदद पाने की कोशिश भी बुरी तरह नाकाम रही।
जब चीनी सेना तिब्बत की ओर कूच कर रही थी, उस वक्त भारतीय कैबिनेट के कई सदस्य यह मान रहे थे कि भारत को इस घटनाक्रम से निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए। उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने तिब्बत में चीन के प्रवेश की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की थी। 11 नवंबर, 1950 के हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने उनका यह बयान छापा, ”पारंपरिक रूप से शांतिप्रिय तिब्बती लोगों के खिलाफ तलवार का इस्तेमाल अन्यायपूर्ण है। ”
हालांकि भारत ने बीजिंग के साथ कामकाजी रिश्ते को बाधित नहीं किया। लेखकों द्वारा चीनी आर्काइव से हासिल की गई जानकारी के मुताबिक 15 अगस्त, 1950 को चीन में भारत के राजदूत के एम पनिक्कर ने चीन के उप विदेश मंत्री से कहा कि भारतीय सरकार तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को मान्यता देती है और भारत सरकार की तिब्बत को लेकर एकमात्र चिंता सीमा पर सैन्य गतिविधियों के मद्देनजर कबायली अशांति से संबंधित है। पनिक्कर को बाद में यह एहसास हुआ कि उन्होंने सूजरेन्टी (आधिपत्य) की जगह सॉवर्निटी ( संप्रभु) शब्द का प्रयोग किया था। नवंबर, 1950 में भाषा संबंधी इस भेद के बारे में उन्होंने चीनी विदेश विभाग को पत्र भी लिखा था। 29 अप्रैल, 1954 को जब भारत और चीन ने पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, भारतीय सरकार ने स्वीकार किया था कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है।
लेखकों ने तिब्बती विद्रोहियों को चीन से लड़ने के लिए सीआईए द्वारा प्रशिक्षण देने की भी बात की है। इसमें दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोनडुप की बड़ी भूमिका थी। तिब्बती यह मानते थे कि अमेरिकी उन्हें आजादी हासिल करने में मदद करेंगे। मगर, एक अमेरिकी अधिकारी थामस पैरेट का कहना था कि दलाई लामा के प्रति हमारी सहानुभूति है, लेकिन हमें अपने हितों को भी देखना है।
दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोनडुप की जीवनी द नूडल मेकर ऑफ कलिमपोंगः द अन्टोल्ड स्टोरी ऑफ माई स्ट्रगल फॉर तिब्बत, एक ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित है, जोकि तिब्बत के समकालीन इतिहास का न केवल एक अहम किरदार है, बल्कि कुछ अहम घटनाओं का चश्मदीद भी। इन दिनों वे कलिमपोंग में रह रहे हैं, जहां वे एक नूडल फैक्टरी के मालिक हैं और जिन्हें उनके इस पेशे के कारण नहीं, बल्कि चीन से उनके संपर्क, दलाई लामा और चीनी सरकार के बीच मध्यस्थता की उनकी भूमिका और अमेरिका तथा भारत की खुफिया एजेंसियों से उनके संपर्क के कारण याद रखा जाएगा। उन्होंने लेखिका एनी थर्सटन (जिन्होंने द प्राइवेट लाइफ ऑफ चेयरमैन माओ नामक किताब भी लिखी है) को बताया कि उनकी जिंदगी साजिशों और जटिलताओं के जाल में उलझी रही है और आकर्षक है, क्योंकि यह फंतासी नहीं, बल्कि हकीकत से जुड़ी है। इतिहास के छात्रों को रेटिंग रिनपोचे की हत्या से जुड़े घटनाक्रम पर थोनडुप का पक्ष पढ़ना दिलचस्प लगेगा। इसके साथ ही 1948 के आसपास उनकी भारत यात्रा से जुड़ा प्रसंग भी दिलचस्प है। उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू को तिब्बत का सच्चा शुभचिंतक भी करार दिया। नेहरू को कम्युनिस्टों पर संदेह था और उन्होंने तिब्बती सरकार को चीन द्वारा कब्जा करने की आशंका भी जताई थी। थोनडुप के मुताबिक उस वक्त भारत तिब्बत को सैन्य प्रशिक्षण और हथियारों की आपूर्ति के रूप में सैन्य मदद को तैयार था।
थोनडुप लिखते हैं कि ल्हासा के नजदीक हवाई पट्टी बनाने सहित इस तरह की मदद की पेशकश पर तिब्बत सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। तिब्बत में चीन के प्रवेश के समय तिब्बत के शासकों ने भारतीयों की ओर से की गई पेशकश में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसके बाद भारत का नजरिया भी बदल गया। भारत ने यह महसूस किया कि तिब्बत में चीन की मौजूदगी की सच्चाई को स्वीकार करना होगा। 1956 में जब दलाई लामा पहली बार भारत आए थे, तब उनके परिवार और उनका कार्यालय चाहता था कि वह भारत में शरण मांगें। लेकिन उसी समय चीन के प्रधानमंत्री झाऊ एनलाई भी भारत प्रवास पर थे और उन्होंने नेहरू को आश्वस्त किया था कि दलाई लामा की सुरक्षा का खयाल रखा जाएगा। इसके बाद भारत ने दलाई लामा से कहा कि उन्हें तिब्बत लौट जाना चाहिए। लेकिन इसके महज दो वर्ष बाद ही स्थितियां बदल गई। दलाई लामा ने भारत से शरण मांगी और तबसे वे यहीं हैं।
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