तिब्बत:संक्षिप्त इतिहास
बुद्ध शाक्यमुनि के दुनिया में आगमन से पांच सौ वर्ष पहले (१०६३ ईसा पूर्व) महान शेनराब मीवो नामक एक अर्ध पौराणिक व्यक्तित्व ने शेन जाति के आदि जीववाद में सुधार किया और तिब्बती बॉन धर्म की स्थापना की। नरेश न्यात्री सेनपो से पहले १८ शांगशुग राजाओं ने तिब्बत पर शासन किया था। तिवोर र्सगे झारगुचेन पहले शांगशुग नरेश थे।
शांगशुग सम्राज्य के पतन के बाद १२७ ईसापूर्व मे नरेश न्यात्री त्सेनपो के समय यारलुंग और चोंगयास घाटी में बॉड नामक एक राजशाही अस्तित्व में आयी (जो तिब्बत का वर्तमान नाम है)। तिब्बती राजतंत्र का यह वंश एक हजार वर्ष से भी अधिक समय तक ४१वें नरेश ठ्रि वूदुम सेन तक विद्यमान रहा, जिन्हें आमतौर पर लांग दार्मा के नाम से जाना जाता है।
सांगत्सेन गाम्पो, त्रिसांग देत्सेन और राल्पाचेन इस वंश के सबसे प्रमुख राजाओं में से थे। यह ”तीन महान नरेश” के नाम से प्रसिद्ध हैं।
त्रिसांग देत्सेन के शासन के दौरान (७५५-९७) तिब्बती सम्राज्य अपने चरम पर था और उनकी सेनाओं ने चीन और कई मध्य एशियाई देशो में चढ़ाई की। ७६३ में तिब्बतियों ने तत्कालीन चीन की राजधानी चांग-ऐन (वर्तमान जियान) का घेराव कर लिया। इसके कारण चीनी बादशाह भाग खड़ा हुआ और तिब्बतियों ने वहां एक नये शासक की नियुक्ति की। इस यादगार विजय को ल्हासा में झोल डोरिंग (पत्थर स्तंभ) में दर्च्चाया गया है ताकि भावी पीढ़ियां इसे याद रखे।
इसका एक हिस्सा इस प्रकार हैः
नरेश त्रिसांग देत्सेन एक पारंगत व्यक्ति थे, वह काफी गहन विचार-विमश करते थे ओर उन्होने अपने साम्राज्य के लिये जो कुछ किया वह पूरी तरह सफल था। उन्होने चीन के कई जिलो और किलों पर चढ़ाई की और उन पर अधिकार जमाया। चीनी शासक हेडु की वांग और उनके मंत्री भयभीत हो गये। नरेच्च ने प्रतिवर्ष रेशम की ५०,००० गांठों के नियमित नजराने की मांग की और चीन नजराना देने को विवश हुआ।”
नरेश राल्पाछेन के शासन के दौरान (८१५-३६) तिब्बती सेनाओं को कई बार विजय मिली और ८२१-२२ में चीन के साथ एक शांति समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते के समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते के विवरण वाले शिलालेख तीन स्थानों पर पाये गये है : पहला चांग-ऐन में चीनी बादशाह के महल के दरवाजे पर, दूसरा ल्हासा में जोखांग मंदिर के मुख्य दरवाजे के पहले और तीसरा गुरु मेरू पर्वत पर स्थित तिब्बत -चीन सीमा पर।
८४२ ई० में तिब्बत में नरेश राल्पाछेन के भाई ४१वें नरेश त्रि वुडुम त्सेन की हत्या के बाद युद्धरत राजकुमारों, लॉर्ड और जनरलों में भयानक सत्ता संघर्ष छिड़ गया और महान तिब्बती साम्राज्य कई छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। ८४२ से १२४७ तक का समय तिब्बत के लिए अंधकार का युग रहा।
१०७३ में कॉनचोग ग्यालपो ने शाक्य मठ की स्थापना की। शाक्य लामा सत्ता में आए और १२५४ से १३५० तक तिब्बत पर २० शाक्य लामाओं द्वारा शासन किया गया। शाक्य पंडित के नाम से मशहूर साक्यापा कुंगा ग्यालत्सेन ने मंगोल राजकुमार गोदन (खान वंश) का धर्म परिवर्तन कर उसे बौद्ध बनाया और उसके राज्य पर चढ़ाई करने वाली अपनी सेनाओं को हटा लिया।
१३५८ में यू प्रांत (मध्य तिब्बत) पर नेदांग के राज्यपाल चांगचुब ग्यालत्सेन का अधिकार हो गया जोकागयुद सम्प्रदाय के फामो ड्रगपा शाखा के एक सन्यासी थे। इसके अगले ८६ वर्षों तक तिब्बत पर फामों ड्रग्प्पा वंश के ग्यारह लामाओं का शासन रहा।
१४३४ में पांचवे फामों ड्रुप्पा शासक ड्रकपा गयालत्सेन की मृत्यु के बाद सत्ता रिनपुंग परिवार के हाथ में आ गयी, जिनका डुप्पा ग्यालत्सेन के साथ वैवाहिक संबंध था। १४३६ से १५६६ तक सत्ता रिनपुंग परिवार के प्रमुखों के हाथ में रही। तिब्बत के महानतम विद्वान जोंखपा लोसांग ड्रगपा ने १४०९ में पहले गेलुपा मठ गाडेन की स्थापना की और गेलुग वंश की शुरुआत हुई।
१५४३ में जन्मे सोनम ग्यातसो एक महान अध्यात्मिक और लौकिक ज्ञान वाले विद्वान के रूप मे उभरे। उन्होंने अल्तान बान को बौद्ध धर्म में दीक्षित कराया और बाद में १५७८ में उन्हें दलाई लामा नाम दिया गया जिसका मतलब होता है ”ज्ञान का महासागर”। सोनम ग्यात्सो अपने वंश के तीसरे शासक थे इसलिए उन्हें तीसरा के तीसरे शासक थे इसलिए उन्हें तीसरा दलाई लामा कहा गया। उनके दो पूर्व अवतारों को मरणोपरांत यह सम्मान दिया गया। तिब्बत और मंगोलिया के बीच एक गहरा आध्यात्मिक संबंध विकसित हुआ।
१६४२ में पांचवें दलाई लामा गवांग लोजांग ग्यात्सो ने तिब्बत पर आध्यात्मिक व लौकिक दोनों दृष्टियों से अधिकार कर लिया। उन्होंने तिब्बती सरकार की वर्तमान शासन प्रणाली की स्थापना की जिसे गांदेन फोड्रांग” कहा जाता है। समूचे तिब्बत के शासक बनने के बाद उन्होंने चीन की ओर रूख किया और चीन से मांग की कि वह उनकी संप्रभुता को मान्यता दे। मिंग बादशाह ने दलाई लामा को एक स्वतंत्र और बराबरी का शासक स्वीकार किया। इस बात के प्रमाण हैं कि वह दलाई लामा से मिलने के लिए अपनी राजधानी से बाहर आए और उन्होंने शहर को घेरने वाली दीवार के ऊपर से एक ढाल वाले मार्ग का निर्माण किया ताकि दलाई लामा बिना प्रवेश द्वार तक गये सीधे पीकिंग में प्रवेश कर सकें।
चीन के शासक ने दलाई लामा को न केवल एक स्वतंत्र शासक के रूप में स्वीकार किया, बल्कि उन्हें पृथ्वी पर एक देवता के रूप में भी माना। इसके बदले में दलाई लामा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मंगोलों को इस बात के लिए राजी किया कि वह चीन पर मिंग शासक का आधिपत्य स्वीकार करे।
इसके परिणाम स्वरूप पुरोहित-यजमान संबंध का विकास हुआ जिसने तिब्बत, चीन व मंगोलिया के संबंधों में एक नये वातावरण का निर्माण किया। एक और महत्वपूर्ण घटना थी पांचवे दलाई लामा का यह बयान की उनके निजी शिक्षकों में से एक, पहले पंचेन लामा की श्रेणी को जारी रखा जाये।
महान पाचवें दलाई लामा के यशस्वी शासनकाल के दौरान षडयंत्र और अस्थिरता का दौर भी आया। १६९७ में गद्दी पर बैठाये गये छठे दलाई लामा सांगयांग ग्यात्सो ने राज्य के मामले में रूचि लेने से इंकार किया और वह गलत रास्तों पर चल पड़े।
जब छठें दलाई लामा के उत्तराधिकारी कालसांग ग्यात्सो को पूर्वी तिब्बत के लिथांग में खोजा गया, तो मंगोलों और मांचुओं के विभिन्न जनजातियों में उन पर नियंत्रण के लिए संघर्ष छिड़ गया ताकि वह तिब्बत पर अपना प्रभाव जमा सकें और इसमें मांचुओं को सफलता मिली।
१७२३ में जब मांचू सेना ने अंतिम रूप से ल्हासा को छोड़ा तो उन्होंने दलाई लामा की सेवा के लिए वहां एक रेजिडेंट अथवा अम्बान छोड़ दिया जो वास्तव में मांचुओं निजी हितों की देखभाल के लिए था। यह तिब्बती मामलों में मांचुओं के दखल की शुरूआत थी। मांचुओं ने तिब्बतियों की इच्छा के विरूद्ध तिब्बती रीजेंट के रूप में अपने प्रतिनिधि को रख दिया। कुछ वर्षों के बाद मांचू के प्रतिनिधि की हत्या कर दी गयी और इसके बाद मांचू शासक युंग चेंग ने अपना सैन्य दस्ता भेजा, इस प्रकार पहली बार मांचुओं ने तिब्बत पर चढ़ाई की। तिब्बत पर चढ़ाई की।
१७८६ में गोरखाओं ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई की परिस्थितियो का निर्माण गोरखाओं द्वारा नेपाल पर पूर्ण नियंत्रण के कुछ वर्ष पूर्व हुआ। नेपाल ने तिब्बत को आपूर्ति किये जाने वाले चांदी के सिक्कों में तांबा मिलाना शुरू किया।
१७५१ में सातवें दलाई लामा ने काठमांडू, पाटन और भक्तगांव के जागीरों पर शासन करने वाले तीन नेवारी राजाओं को पत्र लिखकर इस पर विरोध जताया। जब गोरखाओं के मुखिया पृथ्वी नारायण ने नेवारी शासकों को उखाड़ फेंका तो उन्हें भी इस बात से अवगत कराया गया।
२६ वर्षीय आठवें दलाई लामा ने मांचू शासक चिएन लंग से अस्थायी सैन्य सहायता भेजने का अनुरोध किया। १७९२ में तिब्बत में प्रवेश करने वाली मांचू सेना तिब्बतियों के लिए हानिकारक ही साबित हुई और इस सेना ने पुनः मांचू रेजिडेंट की ताकत बढ़ाने का प्रयास किया। इसके बाद चिएन लंग ने पीकिंग से एक स्वर्णकलश भेजा और यह घोषणा की भविष्य में दलाई लामा और अन्य महत्वपूर्ण लामाओं के उत्तराधिकारियों के चयन के लिए इस कलश में सभी उम्मीदवारों का नाम डाला जाएगा और मांचू रेजीडेंट के सामने यादृच्छिक (रैंडम) रूप से कलश से एक नाम
निकाला जाएगा। तिब्बतियों ने इस साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का पालन नहीं किया और तेरहवें दलाई लामा (जिनके चयन के बारे में मांचुओ से सलाह नहीं ली गयी थी) ने सार्वजनिक रूप से इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
इस दौरान तिब्बत पर कई बार चढ़ाई की गयी और ल्हासा का मांचू रेजिडेंट घृणित षडयंत्रों और तिब्बती मामलों में दखलंदाजी करने में लगा रहा। लेकिन तिब्बत ने अपनी संप्रभुता कभी नहीं खोई। तिब्बत के लोगों ने दलाई लामा के नेतृत्व वाले केंद्रीय तिब्बत सरकार को एकमात्र वैधानिक सरकार के रूप में स्वीकार किया।
तिब्बत की संप्रभुता उस समय भी स्पष्ट हुई जब चीन को बताये बिना ही १८५६ में तिब्बत व नेपाल के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। तिब्बत के आंतरिक मामलों के लिहाज से देखा जाए तो ल्हासा में तिब्बत के केंद्रीय सरकार की संप्रभुता उन आंतरिक संघषोर् के दौरान अधिक स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हुई जो १९वीं सदी के मय में शुरू हुए। इनमें एक तरफ न्यारांग के मुखिया थे तो दूसरी तरफ र्देगे के नरेश और होरपा के राजकुमार। न्यारांग के मुखिया द्वारा अपने पड़ोसियों पर चढ़ाई से यह समस्या उत्पन्न हुई थी, इसलिए तिब्बती सरकार ने सेना भेजकर न्यारांग के मुखिया को परास्त किया और उसके स्थान पर एक तिब्बती राज्यपाल नियुक्त किया, जिसे र्देर्गे और होरपा जागीरों के देखभाल की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी।
१८७६ में १३वें दलाई लामा थुपटेन ग्यात्सो ने १९ वर्ष की अवस्था में रीजेंट चोक्यी ग्यालत्सेन कुंडेलिंग से इस राज्य की जिम्मेदारी अपने हाथ में ली। वह एक विशिष्ट व्यक्ति थे और उन्होंने तिब्बत को विशिष्ट व्यक्ति थे और उन्होंने तिब्बत को अंतरराष्ट्रीय मामलों में न्यायसंगत प्रभुसत्ता पुनः हासिल करने में सहायता की।
उस समय ब्रिटिश सरकार का चीन के साथ बहुत गहरा व लाभदायक संबंध बन गया था चीन ने ब्रिटेन को यह समझाने में सफलता हासिल कर ली थी कि तिब्बत पर उसका अधिराज है। इसलिए १३ सितंबर, १८७६ को चीन-ब्रिटेन चेफो समझौते पर हस्ताक्षर किया गया जिसके द्वारा ब्रिटेन को इस बात का अधिकार मिल गया कि वह तिब्बत के अन्वेषण के लिए एक अभियान भेजे। लेकिन यह अभियान नहीं भेजा जा सका क्योकि तिब्बतियों ने उन्हें इसकी अनुमति इस आधार पर नहीं दी कि तिब्बत के लोग चीन के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते। इसी प्रकार के दो और समझौते २४ जुलाई, १८८६ का पीकिंग समझौता और १७ मार्च, १८९० का कलकत्ता समझौता भी तिब्बतियो द्वारा खारिज कर दिया गया। तिब्बती सरकार ने ब्रिटिश लोगों से किसी भी तरह का संबंध रखना स्वीकार नहीं किया, जो कि उनके क्षेत्र के बारे में चीन से बातचीत कर रहे थे। यह लगभग १९००-०१ में रूस व तिब्बत के बीच हुए नये समझौते के अनुरूप ही था। इसके बाद दलाई लामा और रूसी ज+ार के बीच पत्रों व उपहारों का आदान-प्रदान किया गया। इससे तिब्बत के मामले में रूसी हस्तक्षेप के बारे में ब्रिटिश लोगों का संदेह और गहरा हो गया। एशिया में रूस की ताकत बढ़ती जा रही थी जिसके कारण ब्रिटिश सरकार यह सोचने लगी कि उनके हितों पर खतरा मंडरा रहा है। कर्नल यंग हस्बेंड के नेतृत्व में एक ब्रिटिश अभियान दल ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और ३ अगस्त, १९०४ को ल्हासा में प्रवेश किया।
७ सिंतंबर, १९०४ को तिब्बत और ब्रिटेन के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। ब्रिटिश चढ़ाई के दौरान तिब्बत ने एक स्वतंत्र देश के रूप में मामले को संभाला। तिब्बत पर ब्रिटेन की चढ़ाई का पीकिंग ने कुछ खास विरोध नहीं किया।
जब ब्रिटिश लोगों ने तिब्बत पर चढ़ाई की तो १३वें दलाई लामा मंगोलिया चले गये। चीन पर शासन करने वाले मांचुओं ने तिब्बत के मामले में दखल देने का अंतिम प्रयास किया और कुख्यात चाओ अरफेंग के नेतृत्व में एक अभियान भेजा। जब दलाई लामा आमदो प्रांत के कुमबुम मठ में थे तभी उन्हें दो संदेश प्राप्त हुए। एक ल्हासा से, जिसमें उनसे अनुरोध किया गया था कि वह अति शीघ्र ल्हासा लौट आएं क्योंकि लोग उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे और चाओ अरफेंग की सैन्य टुकड़ी का विरोध नहीं कर सकते थे। दूसरा संदेश पीकिंग से आया था जिसमें उनसे चीन की राजधानी की यात्रा करने का अनुराध किया गया था। दलाई लामा ने यह सोचकर पीकिंग जाने का निर्णय लिया कि वह चीनी शासक को इस बात के लिाए राजी कर लेंगे कि वह तिब्बत पर सैन्य आक्रमण रोके और वहां तिब्बत पर सैन्य आक्रमण रोके और वहां से अपनी सेनाएं हटा ले।
लेकिन जब अंतिम रूप से १९०९ में दलाई लामा ल्हासा लौटे तो उन्होंने देखा कि पीकिंग से प्राप्त सभी आश्वासनों के विपरीत चाओ अरफेंग की सैन्य टुकड़ी ने वहां अपने पांव जमा चुके थे। १९१० के वार्षिक मोनलम उत्सव के दौरान जनरल चुंग यिंग के नेतृत्व में लगभग २,००० मांचू व चीनी सैनिको ने ल्हासा में प्रवेश किया और उन्होंने वहां नरसंहार, बलात्कार, हत्या और अत्यधिक विनाच्च की घटनाओं को अंजाम दिया। एक बार पुनः दलाई लामा को ल्हासा छोड़ना पड़ा। उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में शासन करने के लिए एक रीजेंट की नियुक्ति कर दी और यह सोचकर दक्षिणी शहर ड्रोमो की ओर चल पड़े कि यदि आवश्यकता पड़ी तो वह ब्रिटिश भारत में चले जाएंगे। ल्हासा की घटनाओं और चीनी सैन्य टुकड़ी के पीछे लगे होने के कारण उन्हें एक बार पुनः अपना देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। भारत में दलाई लामा और उनके मंत्रियों ने ब्रिटिश सरकार से तिब्बत की सहायता करने की मांग की। जबकि मांचू सैन्य दस्ते ने तिब्बत सरकार को उखाड़ने और तिब्बत को चीन के प्रांतो के अनुसार विभाजित करने का प्रयास किया, ठीक वैसा ही जैसा कि लगभग आधी शताब्दी बाद साम्यवादी चीन ने किया।
जनवरी १९१३ में मंगोलिया के उर्गा नामक स्थान पर तिब्बत व मंगोलिया के बीच एक द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किया गया। उक्त समझौते में दोनो देशों ने अपने को स्वतंत्र और चीन से अलग घोषित किया।
जनवरी, १९१३ में भारत से लौटने के बाद १३वें दलाई लामा ने जल-बैल (वाटर-ऑक्स) वर्ष के पहले महीने के आठवें दिन (मार्च, १९१३) तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता का एक औपचारिक घोषणापत्र जारी किया। तेरहवें दलाई लामा ने अपने शासन काल के दौरान उथल-पुथल के बावजूद अंतरराष्ट्रीय संबंधों की शुरुआत की, आधुनिक डाक व तार सेवाओं की शुरुआत की और तिब्बत को आधुनिक बनाने के प्रयास किये। १७ दिसंबर १९३३ को उनका देहांत हो गया।
इसके बाद उन्हें श्रद्धांजलि प्रदान करने के लिए एक चीनी शिष्टमंडल ल्हासा पहुंचा, लेकिन वास्तव में वे चीन-तिब्बत सीमा के मद्दे को सुलझाने के लिए आये थे। मुख्य प्रतिनिधि के जाने के बाद एक अन्य चीनी प्रतिनिधि ने चर्चा लगातार जारी रखी। चीनी प्रतिनिधि को उसी आधार पर ल्हासा में रहने की अनुमति प्रदान की गयी जिस आधार पर नेपाली और भारतीय प्रतिनिधि वहां रहते थे। लेकिन १९४९ में चीनी प्रतिनिधि को तिब्बत से निकाल दिया गया।
सितम्बर १९४९ में साम्यवादी चीन ने सितम्बर १९४९ में साम्यवादी चीन ने बिना किसी कारण के पूर्वी तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और पूर्वी तिब्बत के राज्यपाल के मुख्यालय चामदो पर अधिकार कर लिया। चीन के इस आक्रमण के विरोध में ११ नवंबर, १९५० को तिब्बत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ में आवाज उठायी। हालांकि अल सल्वाडोर ने इस प्रश्न को उठाया था लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा की संचालन समिति ने इस मुद्दे को टाल दिया।
तिब्बत के समक्ष आ चुके महान संकट को देखते हुए १७ नवंबर, १९५० को परम पावन चौदहवें दलाई लामा ने राष्ट्राध्यक्ष के रूप में पूर्ण आध्यात्मिक व लौकिक सत्ता ग्रहण की, जबकि उस समय वह मात्र छह वर्ष के थे। पीकिंग के दौरे पर गये एक तिब्बती प्रतिनिधि मंडल से जबरदस्ती एक समझौते पर हस्ताक्षर करवाया गया जिसे तथाकथित रूप से ¡Â¡Âतिब्बत के शांतिपूर्ण आजादी के उपाय पर १७ बिंदुओं वाला समझौता” कहा गया। जबकि यह प्रतिनिधिमंडल चीनी हमले के बारे में बातचीत करने के लिए पीकिंग गया था। इस समझौते के लिए तिब्बत के नकली आधिकारिक मुहर का प्रयोग किया गया और तिब्बत में और सैन्य कार्रवाई की धमकी दी गयी।
इसके बाद तिब्बती लोगों के जबरदस्त प्रतिरोध की परवाह न करते हुए चीन ने तिब्बत को अपना एक उपनिवेश बनाने की योजना को लागू करने के लिए उक्त समझौते के दस्तावेज का उपयोग किया।
९ सितम्बर, १९५१ को हजारों चीनी सैनिकों ने ल्हासा में मार्च किया। तिब्बत पर जबरन अधिग्रहण के बाद योजनाबद्ध रूप से यहां के मठों का विनाश किया गया, धर्म का दमन किया गया, लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता छीन ली गयी, बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ्तार और कैद किया गया तथा निर्दोष पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ले-आम किया गया।
ल्हासा पर चीनी कब्जे के विरोध में १० मार्च, १९५९ को तिब्बती लोगों ने राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध शुरू किया। चीनियों ने इसका ऐसा निर्दयतापूर्ण प्रतिकार किया जैसा कि तिब्बत के लोगों ने कभी नहीं देखा था। हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सरेआम चौराहों पर मौत के घाट उतार दिया गया और बहुत से तिब्बतियों को कैद कर दिया गया या निर्वासित कर दिया गया। भिक्षु और भिक्षुणियां चीनी प्रतिशोध के मुख्य निशाने थे। मठों और मंदिरों पर गोले बरसाये गये।
१७ मार्च, १९५९ को दलाई लामा ने ल्हासा छोड़ दिया और अपना पीछा कर रहे चीनियों से बचते हुए राजनीतिक शरण लेने के लिए भारत पहुँच गये। उनके साथ निर्वासित तिब्बतियों का एक भारी जनसमूह था। इतिहास में कभी भी इस प्रकार की परिस्थिति नहीं उत्पन्न हुई थी की इतने तिब्बतियों को अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी हो। इस समय पूरी दुनिया में एक लाख से अधिक तिब्बती शरणार्थी हैं।