दलाई लामा ने कहा है कि भारत- चीन की स्थायी शांति के लिए वे तिब्बत की बलि दे सकते हैं।
बहुत कम लोग ऐसे होंगे, जो भारत और चीन के बीच शांतिपूर्ण संबंध के पक्ष में न हों। दुनिया की एक तिहाई आबादी वाले इन दो देशों के बीच टकराब की हालत में एशिया में ही नहीं, शेष दुनिया में भी शांति की कल्पना असंभव है। लेकिन भारत में कुछ ऐसे अतिउत्साही लोग भी है, जो मान बैठे हैं कि भारत और चीन के बीच तनाव का इकलौता कारण तिब्बत है। उनका कहना है कि अगर भारत सरकार दलाई लामा को भारत से निकाल दे या तिब्बत का मुद्दा छोड़े दे, तो भारत-चीन रिशते फिर से हिंदी-चीनी भाई भाई की बुलंदियों पर पहुंच जाएंगे।
काश, दुनिया इतनी आसान होती। काश, चीन की भूख की सीमाएं उतनी ही होर्ती और संकुचित होर्ती-जैसी कुछ भले लोग मान बैठे हैं। अगर ऐसा होता तो भारत सरकार को इस तरह का शर्मनाक कदम उठाने की शयद जहमत ही नहीं उठानी पड़ती। क्योंकि खुद दलाई लामा कह चुके हैं, अगर तिब्बत जैसे छोटी सी आबादी वाले देश को बलिदान करके चीन और भारत जैसे विशाल आबादी वालें देशों के बीच स्थायी शांति की गारंटी मिलती है, तो हम तिब्बतियों को भारत के लिए यह बलिदान देकर बहुत खुशी होगी। एक पेचीदा समस्या के इतने आसान हल पर कूदने से पहले इस सचाई को समझना होगा कि चीन की समस्या केवल तिब्बत तक सीमित नहीं है। तिब्बत की तरह सिंच्यांग (पूर्वी तुर्किस्तान), भीतरी मंगोलिया और मंचूरिया समेत 50 से ज्यादा देश हैं, जिन पर जबरन कब्जा करके सोवियत संघ के अंदाज में आज का पीपल्स रिपब्लिक आँफ चाइना बना है। चीन में इन तीन उपनिवेशों की पहचान और तिब्बत की तरह आजादी की ललक आज भी कायम है। इन तीनों का कुल क्षेत्रफल आज के चीन का आधा है।
चीन तो माओ के समय से विशव- विजय का सपना पाले हुए है। इसलिए भारत से चीन की नाराजगी तिब्बत की वजह से नहीं, बल्कि इस कारण है कि पूरे दक्षिण एशिया में भारत ही ऐसा अकेला देश हैं, जो अपने आकार और ताकत की वजह से चीन के एशिया विजय अभियान की राह का रोड़ा बना हुआ है। भारत-चीन संबंधों की घटनाबार समींक्षा दिखाती है कि ये संबंध भारत की सदाशयता से नहीं, बल्कि चीनी शासकों के तत्कालीन भू-राजनीतिक इरादों और स्वार्थो से संचालित होते हैं। क्या कारण है कि भारत ने तो चीन को ताइवान की जगह संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलाने और सुरक्षा परिषद का स्थापी सदस्य बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, लेकिन वही चीन आज भारत को सुरक्षा परिषद में घुसने से रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
भारत के खिलाफ पाकिस्तान को खड़ा करने के लिए चीन ने उसे चोरी छिपे न्यूक्लियार मदद देकर परमाणु हथियारों से लैस किया। इसके साथ-साथ चीन ने भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमर और बांग्लादेश में एक खास कूटनीतिक अभियान चलाया हुआ है, जिसमें वह काफी हद तक सफल भी हुआ है। पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह में चीन ने नया नौसैनिक अड्डा बनाकर चीनी नौसेना को न केवल हिंद महासागर और अऱब सागर में नई पैठ दे दी है, बल्कि पाकिस्तान पर परंपरागत भारतीय नौसैनिक दबदबे को भी बुरी तरह कुंद कर दिया है। काराकोरम राजमार्ग के कारण अब चीनी सेनाएं पाकिस्तान के जमीनी रास्ते से खाड़ी और अरब सागर तक पहुंचकर भारत के लिए कभी भी संकट पैदा कर सकती हैं।
चीन ने भारत के खिलाफ ऐसा ही खेल नेपाल और म्यांमर में खेला है। म्यांमर में भारतीय सीमाओं के साथ चीन ने हवाई पटि्टयां विकसित करके, कोको द्वीप पर नौसैनिक चौकियों की सुविधा लेकर और म्यांमर को दक्षिण तक सड़के बनाने में मदद देकर बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर में भारत के लिए नया खतरा खड़ा कर दिया है।
नेपाल में चीन ने भारत की सीमाओं तक सड़कों की ऐसी व्यवस्था सुनिशिचत कर ली है, जिससे चीनी सेनाएं भारत के उत्तराखंड, बिहार और पशिचम बंगाल की सीमाओं पर कुछ घंटों में पहुंच सकती हैं। उधर चीन और बांग्लादेश के बीच तीसरे देश के खिलाफ सैनिक संधि है, जिसका एकमात्र निशाना भारत है। भारतीय रक्षा विशेषझ इस आशंका से परेशान हैं कि चीन मौका पड़ने पर नेपाल और बांग्लदेश के रास्ते मात्र 24 किलोमीटर चौडी चिकन नेक को काटकर भारत के सातों उत्तर-पूर्वी राज्यों को भारत से काट सकती है। नेपाल से आंध्र प्रदेश तक तैयार की जा रही चीन की नक्सली ग्रेट वॉल शायद ऐसे ही मौके के लिए बनाई जा रही है। पाकिस्तान में इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिकी दबाव बढ़ने पर उनके अधिकांश संगठानों ने बांग्लादेश में ठिकाने बना लिए हैं। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में चीन की मदद से चलने वाले हथियारबंद आंदोलन के कई कैंप अब बांग्लादेश और म्यांमार में स्थानांतरित किए जाचुके हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में लशकर-ए-तैयबा और जमात-उद-दावा पर प्रतिबंधों के प्रयासों को पिछले दो साल में तीन बार रोककर चीन सरकार इन आतंकवादी संगठनों के प्रति अपने प्यार को पहले ही दिखा चुका है। अगर कभी इस बात का खुलासा हो कि कशमीर और भारत के दूसरे हिस्सों में धमाके करने वाले इस्लामी आतंकवादी संगठनों को बांग्लादेश में चीन की मदद भी मिलती है, तो इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए।
इन स्थितियों को देखते हुए यह समझना जरूरी है कि भारत और चीन के बीच असली समस्याएं तिब्बत से कहीं बड़ी हैं। समझने वाली बात है कि दक्षिणी एशिया में चीन ये सारे दांव सिर्फ इसलिए चल पा रहा है, क्योंकि तिब्बत पर कब्जा करके चीन को इन देशों तक सीधी पहुंच मिल गई है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर तिब्बत की बढ़ती लोकप्रियता पर चीन की तिलमिलाहट के कारण तिब्बत को एकमात्र समस्या मान लेने से असली भारतीय हितों की गंभीर अनदेखी होगी। तिब्बत का सवाल अब अंतरराष्ट्रीय रूप ले चुका है। भारत अगर इसमें सक्रियता दिखाने को फिलहाल ठीक नहीं मानता तो उसे इस तुरूप के पते को सही वक्त के लिए संभाल कर रखना चाहिए। बाढ़ की आशंका में सूखे के दिनों में मटकी फोड़ने वालों को इतिहास अपने तरीके से सबक सिखता है।
लेखक, विजय क्रांति