पंडित जवाहर लाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री
(१) ७ दिसम्बर, १९५० को लोकसभा में संबोधन
तिब्बत चीन के समान नही है, इसलिए किसी कानूनी या संवैधानिक तर्क-विर्तक के बजाय अंतिम रूप में तिब्बत के लागों की इच्छा को ही प्रधान मानना होगा। मैं समझता हूँ कि यह एक तर्कसंगत बात है।
मुझे चीन सरकार से यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है कि तिब्बत पर उनकी प्रभुसत्ता या आधिपत्य हो या न हो, निशचित रूप से किसी भी सिद्धांत के अनुसार तिब्बत के संबंध में अंतिम आवाज किसी और की नहीं बल्कि तिब्बत के लोगो की ही होनी चाहिए।
(२) २७ अप्रैल, १९५९ को लोकसभा में बयान
दो या तीन साल पूर्व जब चाउ एन लाई भारत आए तो वह तिब्बत पर पर्याप्त समय तक चर्चा करने के लिए अच्छी तरह तैयार थे। हम लोगों ने इस मसले पर स्पष्ट और पूरी बात की। उन्होंने मुझसे कहा कि हालांकि तिब्बत लंबे समय तक चीन का हिस्सा रहा है लेकिन अब वह तिब्बत को चीन का एक हिस्सा नहीं मानते। तिब्बत के लोग चीन के लोगों से अलग हैं। इसलिए वह तिब्बत को एक स्वायत्तशासी क्षेत्र मानते हैं जिसे स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि किसी के लिए भी यह कल्पना करना निरर्थक है कि चीन तिब्बत पर साम्यवाद थोपने जा रहा है। ३) २४ मई, १९६४ को लिखा उनका अंतिम पत्र
देहरादून
२४ मई, १९६४
मेरे प्रिय गोपाल सिंह,
तुम्हारा २० मई का पत्र प्राप्त हुआ। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि वर्तमान परिस्थितियों मे हम तिब्बत के लिए क्या कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत पर प्रस्ताव पारित करवाने का बहुत लाभ नहीं है क्योंकि चीन उसमें शामिल नहीं है। तिब्बत में जो कुछ हुआ हम उससे उदासीन नहीं हैं लेकिन इसके बारे में कुछ प्रभावी कदम उठाने में हम असमर्थ हैं।
आपका
जवाहरलाल नेहरू