तिब्बत.नेट, 4अप्रैल, 2019
ज़मलहा तेम्पा ग्याल्सेन,
पर्यावरण रिसर्च फेलो, तिब्बत पॉलिसी इंस्टीट्यूट
तिब्बत पर चीन का नवीनतम श्वेत पत्र एक बार फिर से बीजिंग के तिब्बत के इतिहास को समझने को लेकर पूरी कमजोरी और सरकारी दस्तावेजों से आगे जाकर भी चीजों को पढ़ने की उसकी अनिच्छा को उजागर करता है।
‘डेमोक्रेटिक रिफॉर्म इन तिब्बत- 60 ईयर ऑन’ शीर्षक का श्वेत पत्र तिब्बती पठार पर चीनी कब्जे और तिब्बती लोगों के दमन के 60वें वर्ष को चिह्नित करने के लिए 27 मार्च, 2019 को जारी किया गया था।
श्वेत पत्र में औपनिवेशिक अहंकार का धमाकेदार प्रदर्शन करते हुए तिब्बत की पारिस्थितिकी पर एक संक्षिप्त अध्याय शामिल किया गया है। इसमें कहा गया है, ‘पुराने तिब्बत में, एक अत्यंत अविकसित अर्थव्यवस्था के साथ लोग केवल प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल रह सकते थे- वे प्रकृति से जो कुछ संसाधन प्राप्त हो सकता था, उसी पर गुजर बसर करते थे।‘ पत्र में तिब्बत के गौरवशाली इतिहास को न तो सही-सही रेखांकित किया गया है और न ही हजारों वर्षों से तिब्बती लोगों द्वारा पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों का कोई श्रेय उन्हें दिया गया है।
वास्तव में, यह अपने प्राकृतिक वातावरण की पवित्रता के प्रति तिब्बती लोगों का विश्वास था जो कि अपने गहन ज्ञान और कौशल के साथ मिलकर आसपास के वातावरण के साथ सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व बनाए रखने के लिए था। तिब्बतियों के इस व्यवहार ने 1959 में चीनी कब्जे तक दुनिया के सबसे ऊंचे पठार को संरक्षित कर रखा था। दिसंबर 2018 में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) द्वारा जारी तिब्बत की पारिस्थितिकी पर एक श्वेत-पत्र में कहा गया है कि ‘ऐतिहासिक रूप से तिब्बतियों ने अपने पर्यावरण की रक्षा की है और उसका सम्मान किया है। तिब्बतियों ने न केवल पठार की बदलती परिस्थितियों के अनुकूल सफलतापूर्वक खुद को अनुकूलित किया है बल्कि वहां एक शक्तिशाली सभ्यता को भी और समृद्ध किया है।‘हाल के वर्षों में कई वैज्ञानिक अध्ययनों ने पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण पारिस्थितिक स्थलों की पवित्रता में तिब्बती लोगों की सांस्कृतिक मान्यताओं की सकारात्मक भूमिका की पुष्टि की है।
तिब्बती ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार, महान शांग शुंग शासनकाल के दौरान पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को बड़े पैमाने पर शुरू किया गया था। इसके बाद 7वीं शताब्दी में तिब्बत के 33वें सम्राट राजा सोंत्सेन गोम्पो के शासनकाल में संरक्षण प्रयासों को और मजबूत किया गया। उन्होंने आदेश जारी किए जिसमें प्रजा को जानवरों को नुकसान पहुंचाने और मारने से रोका गया था। तिब्बत में फागमोड्रुप वंश के संस्थापक ताई सीटू चंगचूब ग्यालत्सेन (1302-1364) ने सालाना 2,00,000 पेड़ लगाने की एक सामान्य नीति लागू की और नए लगाए गए पेड़ों की रक्षा के लिए एक वन अधिकारी नियुक्त किया। इसी तरह तिब्बत में 5वें दलाई लामा और 13वें दलाई लामा के शासनकाल में महत्वपूर्ण पारिस्थितिक स्थलों पर शिकार और पेड़ों कटाई पर सख्त रोक लगा दी गई। लेकिन जब पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएमए) ने 1950 में तीन अलग-अलग चीन-तिब्बत सीमा मोर्चों से तिब्बत में प्रवेश किया तो पूरे तिब्बत पठार पर पर्यावरणीय विनाश का अभूतपूर्व मंजर दिखाई देने लगा। यह श्वेत पत्र तिब्बत में चीन के पर्यावरण विनाश के 60 वर्षों में एक त्वरित झलक देने के लिए तिब्बत में तीन पर्यावरणीय मुद्दों पर संक्षेप में ध्यान केंद्रित करता है।
1. चीनी आक्रमण के दौरान और बाद में बड़े पैमाने पर शिकार हुए जिसके कारण वन्य जीवों में अचानक कमी आई
25 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले तिब्बती पठार को क्षेत्र के शुरुआती खोजकर्ताओं द्वारा एक महान प्राणी उद्यान के रूप में देखा गया था। कुछ वैज्ञानिकों ने इसकी ज्ञात जैव विविधता की तुलना अमेज़न के वर्षावन से की है।
तिब्बत में सांस्कृतिक जीवन पद्धति बॉन और बौद्ध- दोनों परंपराओं से बहुत प्रभावित थी। यहां जनता को वाणिज्यिक शिकार के लिए कड़ाई से मनाही थी। तिब्बत में महान शासकों ने अपने इतिहास के विभिन्न अवधियों के दौरान कई पारिस्थितिक स्थलों पर शिकार पर प्रतिबंध लगाने के लिए सख्त निर्देश जारी किए। 1950 के दशक से पहले तिब्बती व्यापारियों और उत्तरी मैदानों के विशाल घास के मैदानों से यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों के यात्रा विवरणों में असंख्य जंगली जानवरों के बड़े झुंड दिखाई देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। लेकिन चीनी कब्जे के साथ तिब्बत ने प्राकृतिक पर्यावरण और इसके वन्य जीवों को कम से कम नुकसान पहुंचाने की अपनी सदियों पुरानी परंपरा को अचानक ध्वस्त होते देखा। निर्वासन के दौरान कई बुजुर्ग तिब्बती चीनी आक्रमण के दौरान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) द्वारा मशीनगनों का उपयोग कर जंगली जानवरों के झुंडों का शिकार करने में संलग्न होने के गवाह रहे हैं। कब्जे के बाद तिब्बत में तैनात कुछ पीएलए सैनिक अक्सर नदियों और झीलों में डायनामाइट विस्फोट का इस्तेमाल करते रहे हैं ताकि सैकड़ों मछलियों को तुरंत पकड़ा जा सके। चीनी अधिकारियों ने स्थानीय तिब्बती समुदायों से कड़ी आपत्ति के बावजूद इस तरह के शिकार 1990 के दशक में भी काफी संख्या में किए हैं।
तिब्बत में चीनी सरकारी अधिकारियों ने दुर्लभ जानवरों के वाणिज्यिक शिकार के लिए लाइसेंस जारी किए जबकि कई अधिकारी अपने मनोरंजन के लिए शिकार में लगे हुए थे। इस तरह के सरकारी रवैये ने 1980 के दशक और 1990 की शुरुआत में तिब्बत में बड़े पैमाने पर अवैध शिकार को बढ़ावा दिया। कुछ बर्बर शिकारियों ने इस क्षेत्र में सोनम धर्गे और अन्य वन्य-जीवन संरक्षण स्वयंसेवकों को भी मार डाला।
2. चीन प्रायोजित उद्यमों के द्वारा तिब्बत में वनों की अत्यधिक कटाई से बड़े पैमाने पर बाढ़ आईं
1949 तक तिब्बत का वन प्रभाग पूरे मध्य एशिया में सबसे पुराने वन भंडार में से एक था, जो मुख्य रूप से पूर्वी अमदो, दक्षिण-पूर्वी खाम और दक्षिणी तिब्बत के कोंगपो क्षेत्र में बहुतायत रूप में पाया जाता था। लेकिन तिब्बत के आक्रमण ने इस क्षेत्र को चीनी राज्य-प्रायोजित उद्यमों के शोषण दोहन के लिए खोल दिया। चीन दुनिया में लकड़ी के सबसे बड़े उपभोक्ताओं में से एक रहा है। इसने पूरे क्षेत्र में निर्दयतापूर्वक वनों की कटाई की। तिब्बत का वन क्षेत्र 252 लाख हेक्टेयर से घटकर 135 लाख हेक्टेयर रह गया है। यहां के वन क्षेत्र में 1950 से 1985 के बीच ही अनुमानित रूप से 46% की कमी आई है। एक अनुमान के अनुसार इस कमी का बाजार मूल्य (2000 में बाजार का अनुमान) 54 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर था। तिब्बत के कुछ हिस्से में पानी के जमाव के कारण 1998 के यांग्त्ज़े बाढ़ और 2010 के ड्रुक्चु नदी में भयानक पैमाने पर बाढ़ आईं।
अ) 1998 का यांग्त्ज़े की बाढ़
1998 में चीन में यांग्त्ज़े नदी की बाढ़ 44 वर्षों में सबसे भयानक बाढ़ थी। चीन के आधिकारिक अनुमान के अनुसार, बाढ़ ने 3000 से अधिक लोगों की जिंदगियां लील लीं, डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हुए और 22 करोड़ 30 लाख लोगों को प्रभावित होना पड़ा जो चीन की तत्कालीन आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा था। चीनी वैज्ञानिकों द्वारा आपदा के बाद के एक अध्ययन ने यांग्त्ज़े घाटी में अत्यधिक जल जमाव को, विशेष रूप से तिब्बती क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर जल जमाव को बाढ़ के प्राथमिक कारणों में से एक के रूप में चिहि्नत किया था।
संयुक्त राष्ट्र की आपदा आकलन और समन्वय टीम (यूएनडीएसी) द्वारा सितंबर 1998 में अंतिम रिपोर्ट में इस बाढ़ के प्राथमिक कारण के रूप में तिब्बत में अत्यधिक वनों की कटाई को भी उजागर किया गया था। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि आपदा के प्राथमिक कारणों में अत्यधिक वर्षा थी, जिससे बर्फ पिघल रही थी। तिब्बत पठार और पूर्वी तिब्बत में नदी की धारा के मुहाने के आसपास बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई थी।
1949 और 1998 के बीच पूर्वी खम के जंगलों से चीनी राज्य प्रायोजित उद्यमों के द्वारा करों और मुनाफे के रूप में 24 करोड़ 10 लाख अमेरिकी डॉलर की आय हुई। व्यापक और अस्थिर औद्योगिक जमाव विनाशकारी 1998 यांग्त्ज़े बाढ़ तक जारी रहा, लेकिन बड़े पैमाने पर वनों की कटाई अभी भी कोंगपो के कई हिस्सों में जारी है। क्षेत्र में हाल में आई कुछ बाढ़ और भूस्खलन इसके परिणामस्वरूप हो सकता है। तिब्बत में पेड़ों की कटाई एक प्रमुख रोजगार था। उदाहरण के लिए कोंगपो क्षेत्र में 20,000 से अधिक चीनी सैनिक और तिब्बती कैदी पेड़ों की कटाई और ढुलाई में लगे हुए थे।
रिसर्च एंड मार्केट्स (जनवरी 2019) की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन में लकड़ी की खपत 2013 से 2017 के बीच लगभग 18% बढ़कर 19 करोड़ 25 लाख घनमीटर हो गई।
ब) 2010 का ड्रुक्चु की बाढ़
8 अगस्त 2010 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत में अमदो के ड्रुक्चु क्षेत्र में भारी बारिश से भूस्खलन और कीचड़ का पहाड़ बह निकला। चीन की एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, मिट्टी की चट्टान का प्रवाह काउंटी सीट में लगभग 5 किलोमीटर लंबे, 300 मीटर चौड़े और 5 मीटर गहरे क्षेत्र में था, जिसमें 20 लाख घनमीटर से अधिक कीचड़ और चट्टानें थीं जो घाटी से नीचे बह रही थीं। इसने क्षेत्र में बिजली, दूरसंचार और पानी की आपूर्ति को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया। कीचड़ के इस स्खीलन ने 300 से अधिक घरों को नष्ट कर दिया और लगभग 700 घरों को क्षतिग्रस्तड़ कर दिया।
स्थानीय तिब्बती लोगों का आरोप है कि नदी घाटी इलाके में इस आपदा के लिए स्थानीय चीनी अधिकारी जिम्मेदार हैं। दरअसल, चीन ने 2005 में एक नई नीति जारी की थी जिसके अनुसार ड्रुक्चुज नदी का दोहन करने के लिए जंगल को साफ करना है। इसी नीति के तहत क्षेत्र में नदी घाटी के साथ 156 जल विद्युत स्टेशन स्थापित होने हैं।
इसी तरह का निष्कर्ष एक प्रकाशन (जियोफिजिकल रिसर्च जर्नल: एटमॉस्फियरस, एजीयू पब्लिकेशन 2014) में भी आया था। इसमें कहा गया था कि अगस्त 2010 में ड्रुक्चु नदी में बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलन का असली कारण अत्यधिक वर्षा थी। यह भारी वर्षा मई 2008 के वेन्चुआन भूकंप के कारण हुई जिससे ड्रुक्चु क्षेत्र के वनस्पति से आच्छादित क्षेत्र में गंभीर नुकसान हुआ था।
3. खदान के प्रदूषित कचरे से नदी प्रदूषित हुई
तिब्बत में व्यवस्थित और बड़े पैमाने पर खनन की शुरुआत 1960 के दशक में चीनी उपस्थिति में हुई। चीन ने तिब्बत पर कब्जे की शुरुआत से ही तिब्बत में खनिज भंडार के लिए सर्वेक्षण करना शुरू कर दिया था। तिब्बत में चीन के अधोसंरचना विकास का बड़ा उद्देश्य तिब्बत में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की गति को तेज करना रहा है। चीन की खनन गतिविधियों के विनाशकारी और अनैतिक तरीकों ने पूरे तिब्बत में आक्रोश पैदा किया और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे। 2009 से तिब्बत में खनन के खिलाफ 30 से अधिक विशाल सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हुए हैं, क्योंकि चीनी खनन कंपनियां घास के मैदान और नदियों को प्रदूषित कर रही हैं या उन्हेंह पूरी तरह से नष्ट कर रही हैं।
अ. मिंग्या क ल्हाग जल प्रदूषण
रोंडा लिथियम कंपनी लिमिटेड नामक एक लिथियम खनन कंपनी ने पूर्वी तिब्बत में मिंग्या ल्हायांग में लिचू नामक एक स्थानीय नदी में खदान के जहरीले कचरे को छोड़ दिया, जिससे गंभीर जल प्रदूषण पैदा हुआ और नदी में बड़ी संख्या में मछलियों की मौत हो गई। इससे तबाह हुए सैकड़ों स्थानीय तिब्बती 4 मई 2016 को सड़क पर उतर आए और खनन कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन शुरु कर दिया। स्थानीय सरकार ने प्रदर्शनकारियों को सूचित किया कि इसने अस्थायी रूप से खनन गतिविधियों को रोक दिया है, लेकिन स्थानीय लोगों ने जल्द ही महसूस किया कि सरकार उनसे झूठ बोल रही है क्योंकि खदान से निरंतर खनन गतिविधियों की सूचना मिल रही है। ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है जब नदी के जल को प्रदूषित किया गया है। 2013 में भी उसी नदी को लिथियम माइन कचरे से प्रदूषित किया गया था, जिससे जलीय जानवरों की मौत हो गई और स्थानीय लोगों के सामने पेयजल का संकट पैदा हो गया।
ब. डोल्कर गांव में जल प्रदूषण
23 सितंबर 2014 को इसी तरह के एक मामले में तिब्बत की राजधानी ल्हासा के पास लुंड्रुप काउंटी के डोल्कंर और ज़िबुक गांवों में 1,000 से अधिक स्थानीय तिब्बतियों ने जियामा कॉपर पॉली-मेटेलिक खदान द्वारा अपनी नदी को प्रदूषित करने के खिलाफ विरोध- प्रदर्शन किया। खदान एक नदी के करीब स्थित है जिसका उपयोग स्थानीय लोग पीने के पानी, सिंचाई और पशुओं को पानी पिलाने के लिए करते हैं। मुख्य रूप से, स्थानीय अधिकारियों ने घोषणा की कि नदी में जल प्रदूषण प्राकृतिक कारकों के कारण हुआ है न कि खनन कंपनी द्वारा किया गया है। लेकिन 2010 में प्रकाशित एक शोध लेख- में कहा गया है कि ‘ग्यामा घाटी में तिब्बती नदी के उपरी जल की गुणवत्ता पर खनन गतिविधि का पर्यावरणीय प्रभाव पड़ रहा है।‘
जियांग नाम के एक चीनी वैज्ञानिक ने जोर देकर कहा कि घाटी में कई खनन और प्रसंस्करण इकाइयां व्यापक पर्यावरणीय चिंताओं को पैदा कर रही हैं क्यों कि इनके कारण भारी मात्रा में खतरनाक भारी धातुएँ जमा होती हैं। जैसे सीसा, तांबा, जस्ता और मैगनीज आदि। इस लेख में आगे कहा गया है कि जमाव से रिसने वाले पानी और कणों के क्षरण के माध्यम से नदी जल के दूषित होने का खतरा होता है और इसीलिए भविष्य में स्थानीय पर्यावरण के लिए भारी खतरा पैदा हो गया है नीचे की ओर बहनेवाली नदियों के पानी की गुणवत्ता के लिए यह एक संभावित खतरा बना हुआ है।
गांव के एक स्थानीय निवासी ने रेडियो फ़्री एशिया (सितंबर 2014 में) को बताया, ‘अतीत में हमारी नदियां स्फीटिक की तरह स्वच्छ थीं। पहाड़ों और घाटियों को उनकी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता था। लेकिन अब नदियों को खानों से निकलने वाले जहरीले कचरे ने प्रदूषित कर दिया है।‘ यह स्पष्ट रूप से स्थानीय पर्यावरण के तेजी से विनाश का संकेत है।
निष्कर्ष
चीन का श्वेत पत्र तिब्बतियों द्वारा चीनी कब्जे से पहले प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में अक्षम होने का वर्णन करता है, जबकि तिब्बती प्राकृतिक वातावरण पर कहर बरपाने वाले चीनी सरकार की नैतिक ज्ञान की कमी से बहुत आहत हैं। चीन का दावा है कि उन्हों ने हाल के वर्षों में पर्यावरण संरक्षण परियोजनाओं पर लाखों खर्च किया है, लेकिन उन्होंने तिब्बत में खनन और अन्य संसाधनों के दोहन खरबों कमाया भी है।
उदाहरण के लिए, चाइना गोल्ड इंटरनेशनल द्वारा जारी 2019 का उत्पादन और संचालन रिपोर्ट यह बताता है कि 2017 की इस अवधि में जियामा खदान से तांबा उत्पादन 35,844 टन (लगभग 790 लाख पाउंड) से 54% बढ़कर 55,025 टन (लगभग 12.13 करोड़ पाउंड) हो गया है। इसी तरह 2017 की समान अवधि में सोने का उत्पादन 47,710 औंस की तुलना में बढ़कर 70,262 औंस हो गया था। 2007 में चीनी भू- वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने अनुमान लगाया कि तिब्बती पठार में लगभग तीन से चार करोड़ टन तांबे का भंडार, चार करोड़ टन जस्ता और कई अरब टन लोहा है। इसी तरह यूलॉन्ग तांबा खदान में 78 लाख टन से अधिक तांबे का ज्ञात भंडार है। यह चीन में सबसे बड़ा और एशिया में दूसरा सबसे बड़ा भंडार माना जाता है।
ऐसे में जब चीन की सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियां तिब्बत में खनन, डैमिंग, लॉगिंग और पर्यटन गतिविधियों से अरबों कमा रही हैं, पिछले 60 वर्षों में तिब्बती पठार पर पर्यावरण विनाश का स्तधर अपने ज्ञात इतिहास में अभूतपूर्व रहा है और इसकी कीमत चुका रहा है।