पर्दाफाशा, 6 जुलाई, 2013
धर्मशाला| हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला और कर्नाटक के बाइलाकुप्पे में शनिवार सुबह हजारों की संख्या में तिब्बती शरणार्थी अपने आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के 78वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में जमा हुए।
धर्मशाला में दलाई लामा के कार्यालय के एक अधिकारी ने बताया की शरणार्थी बौद्धभिक्षु और दलाई लामा के शुभचिंतक उनके जन्मोत्सव में भाग लेने पहुंचे। आध्यात्मिक गुरु की दीर्घायु और अच्छे सवास्थ्य के लिए प्रार्थना भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में स्थित तिब्बती शरणार्थी शिविरों में की गई। धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय है।
अधिकारी ने बताया कि दलाई लामा बाइलाकुप्पे में समारोह में हिस्सा ले रहे हैं। बाइलाकुप्पे, भारत में तिब्बती शरणार्थियों का एक सबसे बड़ा गढ़ है।
तिब्बती भाषा में दिए गए अपने संक्षिप्त संबोधन में नोबल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा ने निर्वासित तिब्बतियों के प्रति आतिथ्य प्रदर्शित करने के लिए भारत सरकार और भारतीय जनता को धन्यवाद दिया।
सेंट्रल तिब्बतन एडमिनिस्ट्रेशन (सीटीए) के मंत्रिमंडल के सदस्य और निर्वासित प्रधानमंत्री लोब्सांग सांगेय भी बाइलाकुप्पे में आयोजित समारोह में मौजूद थे। धर्मशाला के पास मैक्लियोडगंज में स्थित दलाई लामा के आधिकारिक भवन के समीप शिखर पर स्थित सुगलगखांग मंदिर में भी विशेष प्रार्थना की गई जहां भारी वर्षा के बावजूद सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया।
तिब्बत के लोगों के लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राजनेता और दलाई लामा के राजनीतिक उत्तराधिकारी सांगेय ने एक बयान में कहा कि निर्वासित तिब्बती लोकतंत्र दलाई लामा के दशकों के प्रयास का परिणाम है।
छह जुलाई, 1935 को पूर्वोत्तर तिब्बत के तक्तसर गांव में जन्मे दलाई लामा की जिंदगी में उस समय एक नया मोड़ आया, जब वह दो वर्ष के थे और उन्हें 13वें दलाई लामा थुबतेन ज्ञात्सो का अवतार माना गया। 1959 में तिब्बत में चीनी सरकार के खिलाफ असफल विद्रोह के बाद उन्हें देश छोड़कर भारत में शरण लेना पड़ा था।
तिब्बत में अहिंसा और लोकतंत्र की स्थापना के लिए चलाए गए अभियान के लिए दलाई लामा को 1989 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। देश छोड़कर भारत में बसने के समय से ही तिब्बत की स्वायत्तता के लिए उनका संघर्ष लगातार जारी है।
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