तिब्बत और चीन के बीच युद्ध और विजय
समीक्षक: थुबतेन सामफेल
पुस्तक: टे्रजडी इन क्रिम्जन: हाउ द दलार्इ लामा कांगकर्ड द वल्र्ड बट लास्ट द बैटल विद चाइना
लेखक: टिम जानसन
नेशन बुक्स, न्यूयार्क, 2011, 333 पेज, कीमत 26.99 डालर
इसमें कोर्इ रहस्य नहीं है कि आखिर संपादक किसी किताब के लिए किसी एक की जगह दूसरा शीर्षक पसंद करते हैं। वे ऐसे शीर्षक पसंद करते हैं जिनसे किताबें बेचने में मदद मिले। यदि शीर्षक से ही किताबें बिकती हों तो टिम जानसन की नर्इ किताब को बेस्ट सेलर होना चाहिए। जानसन एक पुराने अनुभवी पत्रकार हैं जिन्होंने बीजिंग में रहकर छह साल तक नाइट रिडर और मैक क्लैची के लिए चीन की रिपोर्टिंग की है। उनका रचना संसार वह पूरी दुनिया है जिस पर दलार्इ लामा ने विजय पार्इ है। वह लिखते हैं, “दुनिया के सबसे मान्य नेताओं में से एक हो चुके वह नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथ किंग जूनियर और महात्मा गांधी की ऊंचार्इ तक पहुंच चुके हैं।” उनके इस विशाल रचना संसार की पृष्ठभूमि में तिब्बत है जो लेखक के अनुसार, ßअसंभव जैसा असाधारण है, जंगल में एक जोखिम वाले शांत आर्किड पौधे जैसा…एक ऐसी प्रजाति जो विलुप्त होने के कगार पर है।
ये दो ताकतें, एक देश और एक नेता, जो दुनिया पर एक कमजोर सा असर डाल रहा हो उसे भी एक ताकतवर और ज्यादा वास्तविक चीन की छाया धूमिल कर दे रही है, वह चीन जो “1.3 अरब लोगों वाला एक विशालकाय…लगातार ताकतवर और संपन्न होती ताकत…एक किशोर जैसा अल्हड़ है और जहां तेजी से विकास हो रहा है।” इन तीन विषयों दलार्इ लामा, तिब्बत और चीन को दुनिया सम्मोहन, सहानुभूति और आशंका के साथ देखती है और उनके बीच युद्ध लड़े और जीते जाते हैं, इन सबके मिश्रण ने टिम जानसन की कथा को एक दिलचस्प कहानी में बदल दिया है। इस वजह से लेखक यह मानता है कि इस पुस्तक को उन्होंने पर्याप्त प्रभावी तर्क दिए हैं जिससे इस पुस्तक को थोड़ा ज्यादा बेचने योग्य नाम दिया जा सके: हाउ चाइना कांगर्ड द वल्र्ड बट लास्ट द बैटल टु द दलार्इ लामा।
इस पुस्तक में एक रोचक कहानी पुनर्जन्म और तिब्बत में बौद्ध धर्म के फिर से उभार के बारे में है। एक करिश्मार्इ और तिब्बत तथा बाहरी दुनिया में भी काफी सम्मानित गुरु स्वर्गीय खेनपो जिग्मे फुंसोक ने करीब 30 साल पहले पूर्वी तिब्बत में सरथार बौद्ध एकेडमी की स्थापना की थी। तिब्बती में सरथार बौद्ध एकेडमी को लारुंग गर के रूप में जाना जाता है, जो एक व्यापक नोमैड शिविर होते हैं जिनमें मठ जैसा स्वरूप नहीं होता ताकि नए मठों के निर्माण पर चीन द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से बचा जा सके। अपने चरम समय में इस एकेडमी में समूचे तिब्बत, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया से करीब 10,000 छात्र जुड़े थे, जो लेखक के मुताबिक “जीवित बुद्ध के रूप में पूज्यनीय इसके संस्थाप की प्रसिद्धि और बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर खिंचे चले आए थे।” इसमें से करीब 1000 चीनी विधार्थी भी थे, जो ज्यादातर मुख्य भूमि चीन से आए थे। इस एकेडमी द्वारा दी जाने वाली बौद्ध शिक्षा की गुणवत्ता पुराने जमाने के तिब्बत के सर्वश्रेष्ठ मठ विश्वविधालयों और मौजूदा निवार्सन की शिक्षा के मुकाबले की है। यह एकेडमी पहले से ही और अब भी भिक्षुओं, भिक्षुणियों और आम विधार्थियों, सबके लिए खुला है।
दुर्भाग्य से 1990 के दशक के अंत और 2000 की शुरुआत में चीन में फालुन गोंग का आतंक छा गया जिसकी वजह से देश में तमाम संगठनों की जड़ खोदी जाने लगी। एक समय तो फालुन गोंग के सदस्य चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से भी ज्यादा 7 करोड़ तक पहुंच गए थे। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी की तरह ही सिचुआन प्रांत के अधिकारी भी दहशत में आ गए कि पार्टी के नियंत्रण के बाहर रहने वाले इतने लोगों की संस्था किस तरह की मुसीबत खड़ी कर सकती है। जुलार्इ 2001 में प्रांतीय अधिकारियों ने इस एकेडमी को “अवैध” घोषित कर दिया। डिमोलिशन दस्ते के धावा बोल देने के कुछ समय बाद ही अधिकारियों ने यह स्वीकार किया कि 1,875 आशियानों को जमींदोज कर दिया गया। वहां से बाहर के सभी विधार्थियों को इलाके से निकाल कर अपने घर जाने को कह दिया गया।
टिम जानसन ने वर्ष 2008 में तिब्बत में शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों की लहर के बाद उस लारुंग घाटी की यात्रा की थी, जहां यह एकेडमी सिथत है। प्रांतीय अधिकारियों द्वारा करीब एक दशक पहले सरथार बौद्ध एकेडमी को बर्बाद कर देने के बावजूद लेखक ने लारुंग घाटी में जो कुछ देखा उसने उसे हैरान कर दिया। वह लिखते हैं, “सरथार में वर्ष 2001 में हजारों भिक्षुओं और भिक्षुणिया को वहां से जाने को मजबूर किए जाने के बाद बहुत से ऐसे लोग पहाड़ों के ऊपर चले गए और बाद में एकेडमी में लौट आए। अब उनकी जनसंख्या पहले से ज्यादा हो गर्इ है… पहाड़ों की ढलानों पर जहां तक नजर जाती है, हजारों साधारण गवंर्इ झोपडि़यां बनी हुर्इ हैं… इससे कुछ मिनट की ही यात्रा करने के बाद घाटी में नीचे की ओर कक्षाएं खत्म होने के बाद हजारों भिक्षुणियां लकड़ी की इमारतों से बाहर निकलती दिख रही हैं…मैं पहले कभी ऐसे किसी तिब्बती बौद्ध केंद्र में नहीं गया था, जहां इतनी बड़ी संख्या में हान चीनी जाति के लोग भी हों। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि आखिर यहां अलग बात क्या है। कुछ चीनी लोग ताइवान, सिंगापुर और मलेशिया से आए थे, लेकिन ज्यादातर मुख्य भूमि चीन से थे।” इस एकेडमी में बड़ी संख्या में चीनी विधार्थियों का रहना निशिचत रूप से यह साबित करता है कि तिब्बत के साथ चीन का राजनीतिक टकराव आम चीनी मर्दों-औरताें को तिब्बती बौद्ध संस्कृति का आलिंगन करने और उसका फायदा उठाने से नहीं रोक पाता। टिम जानसन को जो बात बहुत उल्लेखनीय लगी, वह यह थी कि आखिर किस तरह से “संभवत: चीन में तिब्बती बौद्ध संतों का सबसे बड़ा जमावड़ा एक ‘मूंछों वाले’ द्वारा शुरू की गर्इ परेशानी से बच पाया, जब समूचे तिब्बती पठार में दलार्इ लामा को वापस लाने का आंदोलन छिड़ चुका था।” यह तब हुआ जब एकेडमी के उच्चाधिकारियों ने उस कला का इस्तेमाल किया जो इस लेखक के हिसाब से टिब्लोमैसी कहलाती है, आध्यातिमक प्रशासन ने एक विसैन्यीकृत समुदाय और एक सैन्यीकृत सत्ता से वार्ता किया, यह एक ऐसी कला है जिसे तिब्बत के बौद्ध तबसे आजमा रहे हैं जब चंगेज खान के सैनिकों ने इस पठार को रौंदा था। करीब तीन सौ सैनिकों ने एकेडमी के गेट पर जमा हो गए और उन्होंने लारुंग गार और बाहरी दुनिया के बीच लोगों और यातायात की आवाजाही रोक दी। सैनिक एकेडमी के भीतर घुसकर चीनी झंडा फहराना चाहते थे। भिक्षु बगावत करना चाहते थे।
चीनी सैनिकों से मठ अध्यक्ष ने कहा कि यदि मठ के परिसर में वे घुसकर चीनी झंडा फहराते हैं तो 90 फीसदी भिक्षु आत्महत्या कर लेंगे। सैनिकों और उनके प्रमुखों को इस संभावना पर भी विचार करना था कि कहीं एकेडमी में चीनी झंडा फहराने से रोकने में इन भिक्षुओं के साथ चीनी विधार्थी भी न खड़े हो जाएं। यदि इस विरोध प्रदर्शन की खबरें बाहर गर्इं कि चीनियों ने भी तिब्बती प्रदर्शनकारियों का साथ दिया तो इससे दुनिया को क्या संदेश जाएगा और वे चीनी इसे किस तरह से लेंगे जो पहले से ही प्रशासन से असंतुष्ट चल रहे हैं? लेखक इस पर विचार करते हैं कि, “यदि अकादमी मेें कोर्इ समस्या उत्पन्न होती और हान चीनी लोग तिब्बतियों के साथ खड़े होते तो प्रशासन सामान्य तरीके से यह आरोप नहीं लगा पाता कि तिब्बती दलार्इ लामा के नेतृत्व में समस्या खड़ी करने वाले अल्पसंख्यक हैं और उन पर विदेशी असर है। उन्हें इसकी सफार्इ देनी पड़ती कि आखिर क्यों शहरी इलाके के संपन्न हान बौद्ध एक देहाती इलाके में सिथत तिब्बत बौद्ध केंद्र के प्रति आकर्षित हो रहे हैं।”
भिक्षुओं से मठ अध्यक्ष ने कहा, “आप भिक्षु और भिक्षुणी है। आपमें करुणा और धैर्य है।” मठ प्रमुख ने चेतावनी दी कि किसी भी तरह की समस्या एकेडमी को एक बड़े मलबे में बदल देगी। अहिंसक टकराव चाहने वाले थोड़ा ज्यादा हठी भिक्षुओं से मठ प्रमुख ने वहां से करीब 12 मील ऊपर सरथार कस्बे में चले जाने को कहा। सैंकड़ों भिक्षु ऊपर चले गए हालांकि, जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस तरह की सलाह से उच्च शिक्षा के इस सबसे गतिशील बौद्ध केंद्रों में से एक को बर्बाद होने से बचा लिया गया।
जैसे-जैसे हम तिब्बत पर टिम जानसन की यह कथा पढ़ते हैं, हमारा साक्षत्कार कुछ ऐसे जबर्दस्त तिब्बतियों और चीनी लोगों से होता है, जो व्यकितगत रूप से या सामूहिक प्रयास से तिब्बत की कहानी को ज्यादा दिलचस्प और प्रेरक बनाते हैं। हम जेल में बंद चीनी नोबेल पुरस्कार विजेता विद्वान लिउ जियाओबो और गायिका एवं लेखिका जामयांग की के बारे में जानते हैं जिन्हें तिब्बती संस्कृति पर गर्व करने वाली रचना के लिए करीब एक महीने पहले गिरफ्तार किया गया और उनसे पूछताछ की गर्इ। टिम जानसन रिनजिन वांगमो की कहानी बताते हैं, स्वर्गीय पंचेन लामा की बेटी जो तब तिब्बती लोगों के अधिकारों के लिए खड़ी होती हैं, जब तिब्बत में कोर्इ और तिब्बती नहीं कर पाता। यही साहस दिखाते हुए रिनजिन वांगमो लेखक से कहती हैं, “14 मार्च की घटना इस वजह से हुर्इ क्योंकि ज्यादातर लोगों को भावनात्मक रूप से काफी दमित किया गया है। जब इस तरह की चीजें होती हैं तो आग भड़क उठती है। इसलिए विस्फोट हो जाता है।” उन्होंने इस तथ्य के बावजूद ऐसा कहने का साहस दिखाया है कि वह चीन के राष्ट्रपति और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हू जिनताओ को ‘अंकल’ कहती हैं। इसके अलावा पति-पत्नी की एक जोड़ी वांग लिकिसयोंग और सेरिंग वुएजर की कहानी है जिन्होंने एक साथ यह मानने को प्रेरित किया है और अब भी कर रहे हैं कि बड़ी संख्या में चीन के लोग कम जेनाफोबिक (अनजान जैसा डर) और गंभीरता से देखते हैं।
टिम जानसन ने हिमालय के दोनों पार रहने वाले तिब्बत की कहानी दी है। हिमालय के इस पार हम केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के तीखे आलोचकों, आंदोलनकारियों, विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलते हैं, जिन्होंने जिन्होंने तिब्बत आंदोलन को अपनी दिशा, गतिशीलता और रंग दिया है। हम बेहतरीन लेखक, कवि और दृढ़ आंदोलनकारी तेनजिन सुंदुए से मिलते हैं जिनके सिर पर बंधी रहने वाली लाल पटटी उनका टे्रडमार्क बन गर्इ है जिसके साथ अक्सर वह मंचों या बालकनियों में फ्री तिब्बत के बैनर के साथ चीनी प्रधानमंत्री झू रोंगजी से लेकर वेन जियाबाओ तक की यात्रा का विरोध करते और तिब्बत से बाहर जाने के लिए चीनी नेताआें से ज्वलंत आहवान करते देखे गए हैं।
टिम जानसन रिनजिन वांगमों के बारे में विचार जानने के लिए केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के कालोन टि्रपा लोबसांग सांगे से बात करते हैं, जो लेखक के अनुसार “निर्वासन आंदोलन के सबसे चमकदार चेहरों में से हैं।” इन सभी कथाओं को जोड़ते हुए लेखक उन विवादों की चर्चा करने से परहेज नहीं किया है जो तिब्बती समुदाय को जकड़े हुए हैं। अगले वर्षों में तिब्बती और चीनी एक तरह से ही चिंतन-मनन करेंगे। तिब्बत पर इस तरह की बेहिचक दृषिट ताजगी देने वाली है। यह तात्कालिकता की भावना से भी प्रेरित है। लेखक लिखते हैं, “मंने जो महसूस किया है, वह शायद तिब्बत के लिए अंतिम दौर के लिए होने वाली बातचीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है। शायद यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि एक उभरता चीन किस तरह से अपने रास्ते में आने वाले कमजोर के साथ व्यवहार करता है। आज तिब्बतियों की बारी है। कल, चीन के शानदार नीले आकाश को सौहार्द से भर देने के बारे में आप और हम सोच सकते हैं।”