चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के प्रशासन ने तिब्बत के विकास को प्रदर्शित करने वाले अपने हालिया ‘श्वेत–पत्र’ में तिब्बत को ‘ज़िज़ांग’ नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया है।
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‘ज़िज़ांग’। तिब्बत में खुद को स्थापित करने के चीन ने अपने नवीनतम प्रयास के तहत हाल ही में जारी ‘श्वेत-पत्र’ में अपनी मंशा को उजागर कर दिया है। इस श्वेत-पत्र का शीर्षक ‘नए युग में ज़िज़ांग के शासन पर सीपीसी नीतियां: दृष्टिकोण और उपलब्धियां’ है, जो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के २०१३ में सत्ता संभालने के बाद से तिब्बत में विकास की रूपर
‘ज़िज़ांग’। तिब्बत में खुद को स्थापित करने के चीन ने अपने नवीनतम प्रयास के तहत हाल ही में जारी ‘श्वेत-पत्र’ में अपनी मंशा को उजागर कर दिया है। इस श्वेत-पत्र का शीर्षक ‘नए युग में ज़िज़ांग के शासन पर सीपीसी नीतियां: दृष्टिकोण और उपलब्धियां’ है, जो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के २०१३ में सत्ता संभालने के बाद से तिब्बत में विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करता है।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) द्वारा गृह युद्ध में विजयी होने के एक साल बाद १९५० में तिब्बत पर चीन ने कब्जा कर लिया था। दलाई लामा १९५९ में भारत भाग गए और निर्वासन में तिब्बतियों के आध्यात्मिक धर्मगुरु बने रहे।
भारत में चीन के पर्यवेक्षकों का मानना है कि बीजिंग १९५० से ही तिब्बत पर दुष्प्रचार कर रहा है, जब उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने तिब्बत पर आक्रमण किया था। उनका मानना है कि तिब्बत की जगह ज़िज़ांग नाम का इस्तेमाल करके चीन इस क्षेत्र पर अपना ठप्पा लगा रहा है और तिब्बतियों की सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिश कर रहा है।
यह सब तिब्बत में चीन की आगामी योजनाओं के अनुरूप चल रहा है। नई दिल्ली स्थित एक पर्यवेक्षक ने कहा, ‘भारत के लिए भी इसके गंभीर सुरक्षा निहितार्थ हैं, क्योंकि चीन अरुणाचल प्रदेश को ज़ंगनान कहता है, जो उसके अनुसार ज़िज़ांग का हिस्सा है।’ उन्होंने आगे कहा कि चीनी सिविल सोसायटी के कुछ हिस्सों से इसको लेकर स्पष्ट सोच है, जो तिब्बत पर बीजिंग की मनगढ़ंत कहानियों का मुकाबला करने में बेहद मददगार होगी।
अधिकारियों का दावा है कि चीन की स्टेट काउंसिल द्वारा तिब्बत पर १० नवंबर को जारी नवीनतम ‘श्वेत-पत्र’ आश्चर्यजनक रूप से तिब्बत की स्थिति की एक बेहद आकर्षक छवि प्रस्तुत करता है। यद्यपि शी जिनपिंग प्रशासन के तहत तिब्बत में विकास के आंकड़ों की भरमार है और उपलब्धियों का पुरजोर दावा है, लेकिन ‘श्वेत-पत्र’ तिब्बत स्टेट पार्टी के दो मुख्य एजेंडे पर बेहद चुप है। ये दो मुख्य एजेंडे हैं- औपनिवेशिक रूप की आवासीय स्कूल प्रणाली और बड़े पैमाने पर श्रमिकों का स्थानांतरण कार्यक्रम। इन दोनों का तिब्बती लोगों और उनकी संस्कृति पर जबरदस्त दुष्प्रभाव पड़ा है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि तिब्बत पर ‘श्वेत-पत्र’ १९५० के दशक में तिब्बत को लेकर माओत्से तुंग (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक) के दृष्टिकोण के समान है। १९५१ में झांग जिंगवु और झांग गुओ हुआ की अध्यक्षता वाली सीसीपी तिब्बत कार्य समिति ने रिपोर्ट दी कि ‘पूरे देश में समाजवादी परिवर्तन का तेज उभार है’ और ‘तिब्बत के पड़ोसी अल्पसंख्यक क्षेत्र लोकतांत्रिक सुधार करने की सभी तैयारी कर रहे हैं’। यह उसी तरह का प्रचार था, जैसा कि तिब्बत के विकास पर अब लाए जा रहे कई श्वेत-पत्रों में बताया जा रहा है। इन श्वेत-पत्रों में बताया गया है कि कैसे तिब्बती ‘ज़िज़ांग’ में समृद्ध हो रहे हैं।
जब यह लगभग तय लगने लगा कि दलाई लामा भारत में शरण मांगेंगे, तो सीसीपी नेतृत्व ने उन्हें वापस बुलाने की कोशिश की। तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन लाई ने १९५६-५७ में भारत की यात्रा की और दलाई लामा से मुलाकात कर उन्हें ल्हासा लौटने के लिए मनाया। उन बैठकों के दौरान माओ की भावना से परम पावन को अवगत कराते हुए चाऊ-एन लाई ने दलाई लामा से वादा किया कि उनकी सलाह के बिना तिब्बत (चामडो क्षेत्र सहित) में कोई बदलाव नहीं किए जाएंगे। उन्होंने यह भी वादा किया कि दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान यानी अगले छह वर्षों तक कोई बदलाव नहीं किया जाएगा।
जैसा कि चीनी विद्वान चेन जियान ने जर्नल ऑफ कोल्ड वॉर स्टडीज के लिए अपने २००६ के लेख में लिखा था, माओ और उनके सहयोगी सीसीपी नेताओं ने विशेष रूप से तिब्बत के राजनीतिक और मठवासी कुलीन वर्ग से निपटने के लिए सैन्य अभियानों के साथ ही सधे हुए कूटनयिक और ‘संयुक्त मोर्चा’ कार्यों को मिलाकर जारी रखना आवश्यक और जरूरी समझा।
शी जिनपिंग भी माओ की तरह ही राजनीतिक कथानकों का इस्तेमाल करते दिख रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि दुनिया भर के मीडिया संगठनों के साथ ही कुछ चीनी हैंडल सीसीपी द्वारा निर्देशित चीनी प्रचार को हवा दे रहे हैं।
कई निर्वासित तिब्बती शी जिनपिंग पर धार्मिक दमन और तिब्बती संस्कृति को नष्ट करने का आरोप लगाते हैं। इन दमनों का ही नतीजा है कि आत्मदाह की घटनाओं सहित कई तरह से विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। इससे तिब्बत का मुद्दा बीजिंग के लिए बेहद संवेदनशील हो गया। अब आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि चीनी कथानक की यह नई रणनीति (क्लासिक प्लेबुक) अन्य दक्षिण-एशियाई देशों में कैसे अपना असर दिखा पाती है।