परम पावन दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किए जाने की ३४वीं वर्षगांठ के विशेष अवसर पर कशाग परम पावन दलाई लामा के प्रति अपनी गहरी कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव प्रकट करता है। कशाग इस महत्वपूर्ण अवसर पर यहां मौजूद गणमान्य व्यक्तियों और मेहमानों का भी गर्मजोशी से स्वागत करना चाहता है। हम सभी निर्वासित तिब्बती समुदायों और विशेष रूप से तिब्बत के अंदर रहने वाले तिब्बतियों को भी हार्दिक शुभकामनाएं देना चाहते हैं।
परम पावन दलाई लामा को विश्व शांति का प्रचार करने और सुखी जीवन के लिए सार्वभौमिक मूल्यों को बढ़ावा देने में उनके असाधारण नेतृत्व को देखते हुए उन्हें प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। परम पावन ने बहुत कम उम्र से ही करुणा और परोपकार की निरंतर और अनुकरणीय साधना के आधार पर इन सभी गुणों को संचित किया। यह पुरस्कार परम पावन दलाई लामा के मार्गदर्शन और दूरदर्शी नेतृत्व में अहिंसक मुक्ति साधना के प्रति तिब्बती लोगों की दृढ़ प्रतिबद्धता को भी मान्यता प्रदान करनेवाला है।
नोबेल पुरस्कार के संस्थापक और प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल को औद्योगिक क्रांति की शुरुआत में ही डायनामाइट का आविष्कार करने का श्रेय दिया गया था। विनाशकारी गोला-बारूद और युद्ध के लिए अपने वैज्ञानिक आविष्कार के दुरुपयोग पर उन्हें गहरा अफसोस और दुःख हुआ। इसलिए, उन्होंने भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य में उत्कृष्ट उपलब्धियों और शांति में काम के लिए दुनिया भर के पुरुषों और महिलाओं को सम्मानित करने के लिए अपनी संपत्ति के एक बड़े हिस्से से नोबेल पुरस्कार फाउंडेशन की स्थापना की। इन क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार देने की शुरुआत १९०१ में हुई।
परम पावन दलाई लामा ने इस बात पर जोर दिया है कि करुणा और ज्ञान की साधना पूरी मानवता के लिए उपयोगी है। विशेष रूप से यह राष्ट्रीय मामलों को संचालित करने वाले जिम्मेदार लोगों, जिनके हाथों में शांतिपूर्ण दुनिया की संरचना बनाने की शक्ति और अवसर निहित है, के लिए बेहद उपयोगी है। परम पावन ने बार-बार ज़ोर देकर कहा है कि प्रत्येक मनुष्य संघर्ष और घृणा से मुक्त होकर शांति से रहना चाहता है। परम पावन ने यह भी दोहराया है कि समस्याओं को स्पष्ट और शांत मन से सफलतापूर्वक हल किया जा सकता है। जबकि घृणा, ईर्ष्या और क्रोध हमारी निर्णय की भावना को ओझल कर देते हैं।
पिछली सदी को युद्ध और रक्तपात की सदी कहा जाता है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध सहित संघर्षों में २० करोड़ से अधिक लोग मारे गए। वर्तमान सदी को संवाद और शांति की सदी बनाना मानवता की सामूहिक आकांक्षा है। १० दिसंबर को नोबेल शांति पुरस्कार दिवस और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस का एक साथ मनाया जाना दुनिया भर में शांति और मानवाधिकारों के लिए मानवता की आम आकांक्षा को दर्शाता है। हालांकि, यह आकांक्षा हमसे दूर होती जा रही है। पश्चिम एशिया के संघर्ष में जारी तबाही का कोई अंत नहीं दिख रहा है और रूस का यूक्रेन पर आक्रमण के अलावा अन्य हिंसक संघर्ष गंभीर वैश्विक चिंता के विषय बने हुए हैं। इसके अलावा, सभी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अपना सैन्य बजट बढ़ा रहे हैं, गुट बना रहे हैं और सैन्य ताकत बढ़ा रहे हैं। कम्युनिस्ट और अधिनायकवादी देश मानवता की मौलिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करके संहारक शासकीय नीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं और उन्हें प्रचारित कर रहे हैं।
परम पावन दलाई लामा ने कहा कि गजा में फलस्तीन और इज़रायल के बीच संघर्ष कल्पना से परे है। उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि धर्म और सिद्धांतों को मानने का दावा करने वाले लोगों के बीच इस तरह की हिंसा हो रही है। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के ठीक चार दिन बाद परम पावन ने कहा था कि हमारी दुनिया इतनी अधिक निर्भर हो गई है कि दो देशों के बीच हिंसक संघर्ष अनिवार्य रूप से शेष विश्व को प्रभावित करता है। साथ ही उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि युद्ध अब पुराना तरीका हो चुका है और अहिंसा ही एकमात्र रास्ता है। परम पावन ने कहा कि उन्होंने सभी लोगों को भाई-बहन मानकर मानवता की एकता की भावना विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।
पिछले महीने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सरकार ने एक श्वेत-पत्र जारी किया, जिसका शीर्षक है, ‘नए युग में ज़िज़ांग के शासन पर सीपीसी नीतियां: दृष्टिकोण और उपलब्धियां’। चीन सरकार का दावा है कि ‘ज़िज़ांग की सामाजिक और आर्थिक प्रगति देश की उत्कृष्ट उपलब्धियों का प्रतीक है, जो आधुनिकीकरण के चीनी मॉडल को लेकर दुनिया की छत पर बनाई गई है’।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) अब ‘एकत्ववादी समुदाय के रूप में चीनी राष्ट्रीयता की मजबूत भावना पैदा करने, चीनी भाषा को बढ़ावा देने, तिब्बती बौद्ध धर्म का चीनीकरण करने और समाजवादी मूल्यों को विकसित करने के नाम पर तिब्बती पहचान को खत्म करने का काम सख्ती से कर रही है। सीसीपी अधिकारियों द्वारा तिब्बती लोगों पर इस तरह की सख्ती और उनका उत्पीड़न अद्वितीय और अभूतपूर्व है।
चियांग काई-शेक के नेतृत्व वाली चीन गणराज्य की सरकार द्वारा १९३५ और १९३६ में पराजित कर दिए जाने पर कम्युनिस्ट लाल सेना खाम में चाकसम और कर्जे से पीछे हटी और अपनी जान बचाने के लिए उत्तर की ओर न्गाबा, बरखम, काखोग, ट्रोचू, सुंगचू, ज़ोएगे और अमदो में थेवो में भाग गई। भूख से त्रस्त चीनी सेना ने तिब्बतियों से भोजन और संपत्ति लूट ली और मठों से धार्मिक कलाकृतियां लूट लीं। माओत्से तुंग ने बाद में पत्रकार एडगर स्नो के सामने स्वीकार किया कि तिब्बत से यह हमारा एकमात्र ‘विदेशी ऋण’ है। इसके अलावा, जब लुटेरी चीनी सेना के खिलाफ विद्रोह किया तो कई तिब्बती मारे गए। उदाहरण के लिए, सुंगचू के मुतो गांव में २७ परिवारों के ११८ तिब्बतियों की उस समय हत्या कर दी गई जब उन्होंने अपना अनाज लूट रही चीनी सेना का विरोध किया था। लाल सेना की तीन हमलावर टुकड़ियों के रास्ते में पड़ने वाले तिब्बती क्षेत्रों को अपने इतिहास का अभूतपूर्व विनाशकारी अकाल से रू-ब-रू होना पड़ा था।
पीआरसी के तिब्बत पर आक्रमण और कब्जे के परिणामस्वरूप १९८० तक अनुमानित १२ लाख तिब्बतियों की मौत हो गई और ६००० से अधिक मठ नष्ट कर दिए गए। यह जनसंहार २०वीं सदी की शुरुआत के अर्मेनियाई नरसंहार से भी अधिक विनाशकारी था।
श्वेत-पत्र केवल ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र” (टीएआर)’ के बारे में बात करता है और चीनी प्रांतों में शामिल तिब्बती क्षेत्रों की स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं कहता है। हालांकि, तिब्बती नस्ल को ख़त्म करने की नीति पूरे तिब्बत में लागू की जा रही है। अंतर-नस्लीय आदान-प्रदान, संचार और एकीकरण के नाम पर लागू की गई चाल ग्रामीण और देहाती समुदायों, स्कूलों और मठों सहित समुदाय के हर वर्ग में बड़े पैमाने पर तिब्बतियों का चीनीकरण कर रहा है।
तिब्बती क्षेत्रों में चीनी कैडरों की नियुक्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। हालांकि श्वेत पत्र में केवल ‘तिब्बत की सहायता के लिए भेजे गए १०,००० से अधिक अधिकारियों’ का उल्लेख है, लेकिन इसने विशिष्ट क्षेत्रों या अन्य रूपों में की गई नियुक्तियों की संख्या को सार्वजनिक नहीं किया है। चीनी सरकार ने तिब्बतियों की युवा पीढ़ी को हान चीनी मूल में विलय करने के लिए ‘टीएआर’ से लगभग ९५% कॉलेज स्नातकों को रोजगार देने के लिए मुख्य भूमि चीन के १७ प्रांतों में नौकरी प्लेसमेंट केंद्र स्थापित करने के अपने प्रयासों के बारे में उल्लेख किया है।
इसी तरह श्वेत-पत्र में कानूनी दायित्व के रूप में जातीय एकता के नाम पर पंचवर्षीय योजना के तहत अंतर-जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के उपायों पर चर्चा की गई। लेकिन श्वेत-पत्र में पर्यावरण संरक्षण, बुनियादी ढांचे के विकास और गरीबी उन्मूलन के बहाने तिब्बतियों के बड़े पैमाने पर किए गए जबरन पुनर्वास का उल्लेख नहीं किया गया है। श्वेत-पत्र में दावा किया गया है कि २,००,००० से अधिक लोगों को गरीबी रेखा से उुपर लाया गया है। माना जाता है कि उन्हें अपने गृहनगर के बाहर नौकरियां मिलीं। बड़ी संख्या में युवा तिब्बतियों को समूहों में चीन ले जाए जाने की खबरें आती रहती हैं। उदाहरण के लिए छोचांग तिब्बत स्वायत्त प्रान्त में कृषि और देहाती क्षेत्रों में ४०,००० श्रमिकों को रोजगार खोजने में सहायता करने के लिए एक परियोजना के हिस्से के रूप में ६४० श्रमिकों को मुख्य भूमि चीन के कुछ हिस्से के विभिन्न स्थानों पर नूडल रेस्तरां खोलने में मदद करने के लिए १० लाख युआन का ऋण दिया गया है। यह जानकारी खुद चीनी सरकार ने दी हैं।
चीनी सरकार तिब्बती बौद्ध धर्म के चीनीकरण करने का काम तेजी से चला रही है। यह तिब्बती भिक्षुओं को समाजवादी मूल्यों का सख्ती से पालन करने और महान मातृभूमि, चीनी राष्ट्र, चीनी संस्कृति, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद का प्रतिनिधित्व करने के लिए पांच पहचानों को बढ़ाने के लिए मजबूर करता है। इसका लक्ष्य चीनी भाषा के अध्ययन को बढ़ावा देने और तिब्बती भिक्षुओं और भिक्षुणियों के बीच कम्युनिस्ट विचारधारा को स्थापित करने के लिए नालंदा परंपरा पर आधारित तिब्बती बौद्ध धर्म के अध्ययन की नींव को कमजोर करना है। संयुक्त मोर्चा कार्य विभाग के निर्देशन में एक दशक से अधिक समय से ‘तिब्बती बौद्ध सूत्रों की व्याख्या पर पुस्तकों’ का प्रकाशन कर रहा है। यह वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बौद्ध सिद्धांतों को विरूपित करना है।
‘लोकतांत्रिक प्रबंधन समितियों’ ने मठों और धार्मिक गतिविधियों के प्रबंधन के हर पहलू को विनियमित और निगरानी करने के लिए तिब्बत में तिब्बती मठों और भिक्षुणी विहारों में कम्युनिस्ट पार्टी की शाखाएं स्थापित की हैं। ‘चीनी राष्ट्रीयता की चेतना को विकसित करने’ के लिए भिक्षुओं को तिब्बती समाज में राष्ट्रीय चेतना, नागरिकता चेतना और कानून के नियम की चेतना से अवगत होने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। तिब्बतियों को मठों और घरों की छतों पर चीनी झंडा फहराने के लिए मजबूर किया जाता है। इसी तरह तिब्बतियों को माओ से लेकर शी तक पांच चीनी नेताओं की तस्वीरें मठों, सार्वजनिक हॉलों और घरों में लगाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
श्वेत-पत्र में कहा गया है कि ‘दलाई लामा और पंचेन रिनपोछेओं सहित पुनर्जन्म लेने वाले तिब्बती जीवित बुद्धों की देश के भीतर तलाश की जानी चाहिए, स्वर्ण कलश से लॉटरी निकालने की प्रथा के माध्यम से निर्णय लिया जाना चाहिए और केंद्र सरकार से अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए।‘ पीआरसी द्वारा आधिकारिक प्रचार राजनीतिक व्यामोह में फंसे चीनी नेताओं की मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं है। यह पुनर्जन्म के बौद्ध सिद्धांत की निर्लज्ज अस्वीकृति, धर्म की सेवा के लिए ट्रुलकु के पुनर्जन्म के उद्देश्यों को कुचलना और दुनिया भर में फल-फूल रहे तिब्बती बौद्ध धर्म की वर्तमान स्थिति को लेकर अज्ञानता भी है।
चीनी सरकार का दावा है कि आम बोली और लिखी जाने वाली भाषा के तौर पर चीनी को बढ़ावा देने का उद्देश्य ‘उत्कृष्ट पारंपरिक चीनी संस्कृति की रक्षा करना और साम्यवाद की भावना को विकसित करना है, जिसने चीनी राष्ट्र के लिए समुदाय की भावना के लिए एक ठोस आधार बनाने में मदद की है’। हालांकि, प्रचार के इस दिखावे के नाम पर तिब्बती भाषा को व्यवस्थित रूप से मिटाया जा रहा है। खाम और अमदो क्षेत्रों से मुख्य भूमि चीन के स्कूलों में तिब्बती छात्रों का बड़े पैमाने पर स्थानांतरण तेज हो गया है। चिंताजनक बात यह है कि तिब्बत में लगभग दस लाख प्राथमिक तिब्बती स्कूली बच्चों को जबरन उनके परिवारों और उनके धर्म, उनकी संस्कृति, उनकी भाषा और उनके जीवन के तरीके से दूर करके बोर्डिंग स्कूलों में भर्ती कराया जा रहा है।
इसी तरह तिब्बत में सरकारी पदों के लिए भर्ती परीक्षा में तिब्बती भाषा को हटा दिया गया है। साथ ही प्रशासनिक विभागों के बीच आधिकारिक संचार का माध्यम तिब्बती से बदलकर चीनी कर दिया गया है। इसके अलावा, तिब्बती भाषा की सुरक्षा के लिए अभियान चलाने वाले लोगों को राजनीतिक अपराधी करार दिया जाता है और कारावास की सजा दी जाती है। रिपोर्टों से यह भी संकेत मिलता है कि कर्ज़े तिब्बती स्वायत्त प्रान्त’ ने अगले साल से क्षेत्र के प्राथमिक से माध्यमिक विद्यालयों तक में तिब्बती भाषा कक्षाओं पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक नोटिस जारी किया है। चूंकि स्कूलों में तिब्बती भाषा पढ़ाना प्रतिबंधित है और तिब्बती भाषा में कर्मचारी भर्ती परीक्षा रद्द कर दी गई है, इसलिए तिब्बती भाषा के उपयोग के लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह तिब्बती को इस धरती से एक जाति के रूप में मिटा देने का इरादा दिखता है।
श्वेत-पत्र साहित्यिक और कलात्मक कार्यों में तथाकथित उपलब्धियों के बारे में बात करता है। जैसे कि, नए युग में आगे बढ़ना, रेडियो, टीवी, प्रदर्शनियों और संग्रहालयों को देशभक्ति के शैक्षिक आधार के रूप में और सांस्कृतिक और नैतिक विकास के नाम पर चीनी संस्कृति की रक्षा करना। हालांकि, इसका तिब्बती धर्म, संस्कृति और परंपरा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि इससे साफ़ पता चलता है कि किस तरह तिब्बतियों को कम्युनिस्ट विचारधारा की प्रशंसा करने और उसे अपनाने के लिए मजबूर किया जाता है। अनेक परियोजनाओं में आर्थिक निवेश और प्राप्त परिणामों के बारे में सीसीपी के दावों के बावजूद इनका उद्देश्य तिब्बतियों की भलाई के लिए नहीं है। बल्कि, चीन सरकार को तिब्बत पर आसानी से नियंत्रण करने, तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने और तिब्बतियों पर निगरानी रखने की सुविधा प्रदान करना है। तिब्बती क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से में चले रहे तथाकथित प्राकृतिक संसाधनों का भंडारण और राष्ट्रीय उद्यानों का निर्माण का ढोंग असल में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा मूल निवासियों से भूमि छीन लेने वाला है।
पीआरसी की व्यापक चीनीकरण नीति के हिस्से के तौर पर श्वेत-पत्र में तिब्बत शब्द को हटाकर पिनयिन में ‘ज़िज़ांग’ किया गया है। इसके अलावा ल्हासा जैसे शहरों से लेकर गांवों तक के स्थानों के नाम तिब्बती से बदलकर चीनी किए जा रहे हैं। तिब्बत के स्थान पर ‘ज़िज़ांग’ शब्द का प्रयोग करने का पीआरसी का एकमात्र उद्देश्य तिब्बत को विश्व मानचित्र से गायब कर देना है। चीन उम्मीद करता है कि इसके बाद तिब्बत अपनी निराधार वैधता का दावा करने के लिए दुनिया के लोगों की यादों से मिट जाएगा।
चीन की तिब्बत नीति का उद्देश्य लगभग १४०० वर्षों की समृद्ध तिब्बती भाषा को नष्ट करना, बुद्ध की शिक्षा के अनुसार जाति-शक्ति और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव के बिना समानता पर आधारित तिब्बती बौद्ध धर्म को खत्म कर इसके चीनी संस्करण की स्थापना, करुणा और अहिंसा से भरी तिब्बती संस्कृति का उन्मूलन और विशिष्ट तिब्बती जाति को बहुसंख्यक हान नस्ल में विलय कर देना है। ऐसी ग़लत गणना वाली रणनीतियां और गुमराह नीतियां अस्थिर हैं और विफल होने को ही अभिशप्त है। जब तिब्बतियों को भारतीय बौद्ध धर्म की नालंदा परंपरा और चीनी होशंग की ध्यान पद्धति में से एक को चुनने का सामना करना पड़ा तो सम्राट ट्रिसोंग डेट्सन ने भारतीय परंपरा का ही पालन करने का निर्णय लिया। सम्राट के इस निर्णय ने तिब्बत को बौद्ध आस्था को उसके प्राचीन स्वरूप और गुणवत्ता में संरक्षित करने में मदद की है। ज्ञात हो कि चीनी होशंग की ध्यान पद्धति राजा ट्रिसोंग डेट्सन के दरबार के सर्वोच्च दरबारियों तक पहुंच चुकी थी। हालांकि, यह पद्धति सैम्ये मठ के नियमों और साधना प्रक्रिया का उल्लंघन करती थी।
माओ की दमनकारी नीतियों के तहत तिब्बती पहचान का खात्मा हमारे इतिहास का सबसे काला अध्याय है। संपूर्ण विनाश के बावजूद परम पावन दलाई लामा के असाधारण नेतृत्व में और निर्वासन में तिब्बतियों की दृढ़ता और तिब्बत में हमारे भाइयों के दृढ़ संकल्प के कारण थोड़े समय के भीतर न केवल तिब्बती संस्कृति और धर्म को संरक्षित और प्रचारित किया गया, बल्कि आगे भी जारी रखा गया है। तिब्बती संस्कृति इस समय हिमालयी क्षेत्रों सहित दुनिया भर में जीवित है और फल-फूल रहा है।
हम चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से चीनी संविधान में उल्लिखित क्षेत्रीय राष्ट्रीय स्वायत्तता के कानून के घोर उल्लंघन को तुरंत बंद करने और तिब्बती पहचान को खत्म करने के उद्देश्य से नीतियों और कार्यक्रमों को बंद करने का आह्वान करते हैं। यदि चीनी सरकार इन नीतियों को नहीं बंद करती है तो यह तिब्बती लोगों के दिल और दिमाग में अपूरणीय घाव पैदा करेगा जो प्राचीन काल से पड़ोसी के रूप में तिब्बती और चीनी लोगों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को प्रभावित करेगा। ७५ साल पहले ०९ अक्तूबर १९४८ को संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत जनसंहार के अपराध की रोकथाम और सजा पर कन्वेंशन के हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते सीसीपी को इस अंतरराष्ट्रीय कानून की शर्तों का उल्लंघन करने के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
अंत में हम इस आशा के साथ प्रार्थना करते हैं कि दुनिया भर में शांति कायम रहे और हर किसी को स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का आनंद मिले। हम परम पावन दलाई लामा की लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करते हैं ताकि वह अपना शेष जीवन विश्व शांति और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देने में बिता सकें। तिब्बत के सत्य और अहिंसक उद्देश्य की जय हो।
कशाग
१० दिसंबर, २०२३