सिक्योंग पेन्पा छेरिंग ने शी जिनपिंग के शासन में चीन की तिब्बत नीति पर अपने विचार रखे
tibet.net
दिल्ली। ‘शी जिनपिंग कुल मिलाकर तिब्बत के अंदर अन्य सभी राष्ट्रीयताओं का विलय कर ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति और एक भाषा’ रखना चाहते हैं। सिक्योंग पेन्पा छेरिंग ने मंगलवार को ‘सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस एंड स्ट्रैटेजी’ द्वारा आयोजित एक सेमिनार में टिप्पणी की- ऐसा कोई राजनीतिक क्षेत्र नहीं है जिसे स्वतंत्र दुनिया के लिए खुला छोड़ा गया हो। सिक्योंग ने यहां पर ‘शी जिनपिंग के शासन में चीन की तिब्बत नीति’ विषय पर एक घंटे तक बात की।
दिल्ली में आयोजित इस एक दिवसीय सम्मेलन में ‘तिब्बत में चीन की हालिया गतिविधियां’ और ‘तिब्बत में धर्म, जातीय और पर्यावरण नीति’ विषय पर भी सत्रों का आयोजन किया गया।
निर्वासित तिब्बतियों द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए नेता ने परम पावन दलाई लामा द्वारा प्रस्तावित और तिब्बती प्रशासन द्वारा समर्थित मध्यम मार्ग दृष्टिकोण (एमडब्ल्यूए) की व्याख्या की और स्वतंत्र देश के रूप में तिब्बत की ऐतिहासिक स्थिति की मान्यता को दोहराया, ताकि कुछ लाभ मिल सकें। उन्होंने आगे तर्क दिया कि एमडब्ल्यूए के माध्यम से चीन-तिब्बत संघर्ष के संभावित समाधान का दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत अधिक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि इस क्षेत्र में तिब्बत की सीमा कई देशों से लगती है।
सिक्योंग पेन्पा छेरिंग ने कहा, ‘मुझे लगता है कि आज चीन अपने पास सभी प्रकार की शक्ति होने के बावजूद बहुत असुरक्षित है। चीन एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जो किसी भी अन्य राष्ट्र की तुलना में आंतरिक सुरक्षा पर अधिक खर्च करता है और यही कारण है कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय से तिब्बत पर अपने अवैध कब्जे को वैधता प्रदान करने के लिए लगातार आग्रह कर रहे हैं। उन्होंने दलील दी कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय चीन-तिब्बत वार्ता का तब तक समर्थन नहीं कर सकता जब तक वे तिब्बत को पीआरसी का हिस्सा होने की बात कहकर इसे वैध ठहराते रहेंगे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि तिब्बत के इतिहास को अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भावनाओं और कल्पनाओं के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि तिब्बत के भविष्य को तय करने की वैधता केवल परम पावन दलाई लामा और तिब्बती लोगों के पास है।
उन्होंने यह भी कहा कि तिब्बत की आधिपत्य (सूजेरिन्टी) की ऐतिहासिक विरासत और भारत के साथ उसके आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी चीन बदलने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए चीन ने सरकार द्वारा संचालित औपनिवेशिक बोर्डिंग स्कूलों का विशाल नेटवर्क खड़ा कर लिया है जहां तिब्बती बच्चों को सांस्कृतिक रूप से अज्ञानी बनाकर उन्हें चीनी विचारधारा और प्रचार के द्वारा आत्मसात करने का काम चल रहा है।
सिक्योंग ने कहा कि ‘सांस्कृतिक रूप से तिब्बती धीमी मौत मर रहे हैं क्योंकि चीन तिब्बती राष्ट्रीय पहचान की मूल जड़ यानी तिब्बती भाषा पर हमला कर रहा है। चीन तिब्बती भाषा का चीनीकरण करके तिब्बतियों के भावनात्मक समीकरण को बदलने का प्रयास कर रहा है।‘ उन्होंने तिब्बत के अंदर १५७ लोगों द्वारा किए गए आत्मदाह को इसी तरह के राजनीतिक अभिव्यक्ति पर रोक और अत्यधिक नियंत्रण का प्रत्यक्ष परिणाम बताया। उन्होंने कहा कि आत्मदाह इस आशा से किया गया था कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उनकी दुर्दशा पर कुछ ध्यान देगा और परिणामस्वरूप उनके बचाव में आएगा।
चीन हर समय तिब्बत के अंदर अलग-अलग स्तर पर अत्याचार करता रहता है और पत्रकारों, राजनयिकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्रवेश देने से मना करके तिब्बत को अंतरराष्ट्रीय नजरों से ओझल करता रहता है। उन्होंने बताया कि चीन की एकमात्र चिंता कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिरता और अस्तित्व सुनिश्चित करना है। उन्होंने आगे कहा कि भारतीय सीमा पर चीन की आक्रामकता और दक्षिण चीन सागर और ताइवान पर उसकी बार-बार की गई आक्रामकता सीसीपी के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा होने पर उनकी असुरक्षा का ही विस्तार है।
उन्होंने कहा, ‘हम वैश्विक समुदाय से चीन की बढ़ती आक्रामकता का मुकाबला करने में तिब्बत को पीड़ित नहीं, बल्कि एक सहयोगी के रूप में देखने का आग्रह करते हैं । हम सरकारों और नीति निर्माताओं से आग्रह करते हैं कि वे तिब्बत को पीआरसी का हिस्सा कहना बंद करें और इस तरह तिब्बत पर चीन के कब्जे को वैध न बनाएं। सिक्योंग ने अपने समापन भाषण में कहा, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और स्वतंत्र दुनिया को अपने मूल्यों के लिए खड़े होने की जरूरत है।