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थेगछेन छोएलिंग, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत। आज ०२ जून की सुबह परम पावन दलाई लामा लगातार बेमौसम की कंपकंपी वाली ठंड और बरसात के बावजूद लगभग ५०० छात्रों से मिले। इन छात्रों ने हाल ही में नालंदा मास्टर्स कोर्स, नालंदा डिप्लोमा कोर्स या नई दिल्ली स्थित तिब्बत हाउस द्वारा प्रस्तुत नालंदा डिप्लोमा कोर्स से स्नातक किया है या वर्तमान में इन कोर्स में अध्ययन कर रहे हैं। गेशे दोरजी दमदुल द्वारा तिब्बत हाउस से चलाए जा रहे इन पाठ्यक्रमों में वर्तमान में ९८ देशों के ४००० से अधिक छात्र नामांकित हैं। डॉ कावेरी गिल ने तिब्बत हाउस के छात्रों और कर्मचारियों का परम पावन से परिचय कराया और उनके लिए गेशे दोरजी दमदुल जैसी क्षमता के शिक्षक भेजने के लिए उन्हें धन्यवाद दिया।
गेशे दोरजी दमदुल ने परम पावन को नालंदा पाठ्यक्रमों से संबंधित तीन मूर्तियाँ और एक फ्रेम किया हुआ पोस्टर भेंट किया। उन्होंने परम पावन, सिक्योंग पेन्पा छेरिंग, और तिब्बत हाउस के उपाध्यक्ष और भारत की पूर्व विदेश सचिव डॉ. निरुपमा राव के प्रति हार्दिक सम्मान व्यक्त किया।
उन्होंने परम पावन से कहा, ‘हम सभी आपके छात्र हैं। हम आपसे सीखना चाहते हैं। पिछली सदी में महात्मा गांधी अहिंसा के प्रबल पुजारी थे, लेकिन वर्तमान सदी में परम पावन करुणा के प्रबल समर्थक हैं।‘उन्होंने उन सभी को श्रद्धांजलि अर्पित की जिन्होंने तिब्बत हाउस में कार्यक्रम को सफल बनाने में मदद की और विशेष रूप से तेम्पा छेरिंग, जेट्सन पेमा और डोबूम रिनपोछे का उल्लेख किया। उन्होंने भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के उदार समर्थन के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उनके समर्थन के बिना यह कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता था।
उन्होंने कहा, ‘हम करुणा और ज्ञान की उस मशाल को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे परम पावन ने मौलिक मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देकर जलाए रखा है। तेलो तुल्कु की मदद से हमने हाल ही में नालंदा पाठ्यक्रम से संबंधित गतिविधियों को रूसी भाषी लोगों तक पहुंचाया है।
हम उम्मीद करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा सार्वभौमिक नैतिकता को अपनाया जाएगा। हम प्रार्थना करते हैं कि विश्व के नेता परम पावन से सीखें, क्योंकि हमारा उद्देश्य शांति, स्वतंत्रता और सुरक्षा प्राप्त करना है। दुनिया आपके नेतृत्व के प्रकाश का लुत्फ उठाती रहे।
नालंदा पाठ्यक्रम के मुख्य समन्वयक श्री दीपेश ठक्कर ने मुख्य अतिथियों का स्वागत किया और बताया कि तिब्बत हाउस ने अपने छात्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप क्रमशः छह साल, १४ महीने और डेढ़ महीने के क्रमश लंबे, मध्यम और छोटे पाठ्यक्रम तैयार किए हैं। नालंदा मास्टर्स के छह वर्षीय पाठ्यक्रम को पूरा करने वाले पहले समूह ने हाल ही में उत्तीर्णता हासिल की है।
ठक्कर ने टिप्पणी की कि गेशे दोरजी दमदुल एक मार्गदर्शक प्रकाश थे। उन्होंने कहा कि छात्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या दोगुनी है और छात्रों की आयु १४ से ८० वर्ष के बीच है। उन्होंने जोर देकर कहा कि ‘हमारा उद्देश्य बौद्ध धर्म का प्रचार करना नहीं बल्कि उस ज्ञान को साझा करना है जो अधिक से अधिक लोगों को खुश, दयालु इंसान बनने में मदद करने वाला है। हम परम पावन को हम तहेदिल से धन्यवाद देते हैं और उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं।‘तिब्बती लोगों ने सदियों से नालंदा परंपरा के संरक्षण के लिए खुद को समर्पित किया है। हम प्रार्थना करते हैं कि परम पावन दीर्घायु हों और अनुरोध करते हैं कि हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें।‘
परम पावन ने मुस्कुराते हुए श्रोताओं को संबोधित किया, ‘सुप्रभात मेरे धर्म भाइयों और बहनों। हमारे पास मिलने का यह अच्छा अवसर है। इसे आयोजित करने के लिए काम करने वाले सभी को धन्यवाद। इतने लंबे समय तक निर्वासन में रहने के दौरान मैं इस तरह के अवसरों पर कई अलग-अलग लोगों से मिला हूं और हमने एक-दूसरे से सीखा है।
यूरोप आदि देशों में बौद्ध धर्म का प्रसार नहीं हुआ है। अतीत में उन देशों में रहने वाले लोग केवल अपनी धार्मिक परंपराओं पर ध्यान देते थे, लेकिन आजकल कई अन्य परंपराओं, खासकर भारत की आध्यात्मिक परंपराओं में भी रुचि ले रहे हैं। नालंदा परंपरा का सार अनुष्ठान और प्रार्थना नहीं, बल्कि चित्त को बदलने में सक्षम होना है। हमने तिब्बत हाउस की स्थापना की ताकि लोग इसके बारे में और जान सकें। तिब्बत हमेशा से बौद्ध नहीं था। वह सातवीं और आठवीं शताब्दी में, जब हमारे राजाओं ने रुचि ली तब बौद्ध देश बन गया। राजा सोंगत्सेन गम्पो ने देवनागरी वर्णमाला पर आधारित एक नई तिब्बती लिपि का ईजाद किया। नतीजतन, जब राजा ठिसोंग देचेन के निमंत्रण पर शांतरक्षित हिम की भूमि पर आए, तो उन्होंने यह सिफारिश की कि भारतीय बौद्ध साहित्य का तिब्बती में अनुवाद किया जाए। परिणाम कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रह सामने है।
‘राजा ठिसोंग देचेन ने शांतरक्षित के शिष्य कमलशील और ह्वाशांग चीनी भिक्षुओं के प्रतिनिधियों के बीच शास्त्रार्थ का भी आयोजन कराया था। उन्होंने फैसला दिया कि कमलशील बुद्ध की शिक्षाओं की व्यापक व्याख्या करने में सक्षम हैं, जबकि चीनी भिक्षुओं का ध्यान मुख्य रूप से ध्यान पर था। ‘ शांतरक्षित और कमलशील ने अध्ययन और प्रशिक्षण के लिए एक दृष्टिकोण स्थापित किया, जिसमें पढ़ने और सुनने के द्वारा समझ विकसित करना, चिंतन के माध्यम से उस समझ को गहरा करना, कारण और तर्क का उपयोग करना और ध्यान में इसका अनुभव प्राप्त करना शामिल था।
‘समय के साथ, सेरा, गदेन, डेपुंग और ताशी ल्हुन्पो के महान मठ शिक्षा के केंद्र बन गए जहां भिक्षुओं ने महान ग्रंथों का अध्ययन किया और फिर तर्क का उपयोग करके यह पता लगाया कि उन्होंने शास्त्रार्थ में क्या सीखा था। बौद्ध धर्म आज कई देशों में फल-फूल रहा है, लेकिन केवल तिब्बती बौद्ध धर्म ही बुद्ध की शिक्षाओं की व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करता है। इसके अलावा, जब वैज्ञानिक इस बारे में अधिक जानना चाहते हैं कि बौद्ध धर्म चित्त के प्रकार्य के बारे में क्या कहता है, तो वे तिब्बती परंपरा की ओर ही देखते हैं।
‘ऐसा इसलिए है, क्योंकि हम कारण और तर्क पर भरोसा करते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के संदर्भ में दुनिया के कल्याण के लिए योगदान करने में सक्षम हैं।‘
परम पावन ने उल्लेख किया कि वे अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने के लिए कितने उत्सुक हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि विभिन्न आध्यात्मिक परंपराएं काफी भिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों को अपना सकती हैं, पर उन सभी में जो समान है वह एक अच्छे हृदय के विकास पर बल देता है। उन्होंने कहा कि भारत एक अनुकरणीय राष्ट्र है जहां दुनिया की सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएं साथ-साथ फल-फूल रही हैं। उन्होंने दोहराया कि नालंदा पाठ्यक्रमों के बारे में जो पहले ही कहा जा चुका है, वह लोगों के बौद्ध बनने के बारे में बहुत कम और नालंदा परंपरा से जो वे सीख सकते हैं, उसके साथ अपने स्वयं के अभ्यास और विश्वास को समृद्ध करने में सक्षम होने के बारे में अधिक है।
यद्यपि तिब्बत हाउस के प्रतिनिधियों ने अनुरोध किया था कि परम पावन जे चोंखापा के ‘मार्ग के तीन प्रमुख पहलू’ पर अपना प्रवचन दें लेकिन उन्होंने घोषणा की कि इस अवसर पर वे जे-रिनपोछे के ‘प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति’ पर प्रवचन देना पसंद करेंगे।
परम पावन ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा कि वे भी बुद्ध के प्रति महान कृतज्ञता और भक्ति का भाव रखते हैं। क्योंकि यह उनकी शिक्षाओं का ही प्रतिफल है कि वह बोधिचित्त के महत्वाकांक्षी चित्त और शून्यता की समझ को विकसित करने में सक्षम हुए हैं।
उन्होंने आगे कहा, ‘बचपन में भी मुझमें कही गई बातों को बिना जांचे स्वीकार नहीं करने की प्रवृत्ति थी। मुझे हर कही गई बातों पर सवाल उठाने और इसकी जांच करने की जरूरत महसूस होती थी। दलाई लामा के रूप में मैं पारंपरिक हथियारों का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन मैं बहस कर सकता हूं। और मैं अपनी बुद्धि का उपयोग बुद्ध की शिक्षाओं की जांच करने और दूसरों को समझाने के लिए कर सकता हूं। प्रश्न पूछना और जांच-पड़ताल करना नालंदा परंपरा का मुख्य विषय है।
मुझे खुनु लामा रिगज़िन तेनपा से ‘प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति’ का पाठ और उसकी व्याख्या मिली है। परम पावन ने घोषणा की कि ‘प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध की शिक्षा को परिभाषित करता है। इसके लिए तिब्बती शब्द ‘दस-जंग’ है। इनमें से पहले दस का अर्थ आश्रित रहना और दूसरे जंग का मतलब उत्पन्न होने वाला है। इससे हमें वास्तविकता का बोध होता है। सब कुछ आश्रित है। कुछ भी स्वतंत्र नहीं है। चीजें अन्य कारकों पर निर्भरता में उत्पन्न होती हैं। चूंकि कुछ भी स्वतंत्र नहीं है, इसलिए सब कुछ निर्भर संबंधों के माध्यम से आता है।‘
उन्होंने घोषणा की, ‘हम सभी बुद्ध शाक्यमुनि के अनुयायी हैं और उनकी इस करुणा को चुकाने का सबसे अच्छा तरीका बोधिचित्त के परोपकारी चित्त और शून्यता की समझ को विकसित करना है। मैं यही करता हूं और इस साधना के कारण मैं सहज महसूस करता हूं।‘परम पावन ने अपने साथ तस्वीरें लेने के लिए समूहों में एकत्रित हुए श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर भी दिए।