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२० अप्रैल २०२३, शेरप थेरचिन
चीन अपनी वैधता और स्थिरता के लिए आंतरिक और बाहरी चुनौतियों के जटिल जाल में उलझा हुआ है।
ओटावा, १७ अप्रैल, २०२३। हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों में चीनी हस्तक्षेप की प्रकृति और उसकी सीमा पर जारी बहस ने कई कनाडाई लोगों को यह सवाल करने के लिए प्रेरित किया है कि चीन ऐसी निर्लज्ज गतिविधि क्यों कर रहा है, जो उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को धूमिल कर सकती है और अन्य देशों के साथ उसके संबंधों को खराब कर सकती है। हालांकि, इस आचरण से जुड़े रुझानों की गहराई से परीक्षण करने पर इसमें चीन की गहरी असुरक्षा का पता चलता है, जो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) की विदेश नीति निर्माता अभिजात वर्ग के बीच व्याप्त है।
यह असुरक्षा विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न होती है, जिसमें चीन का अंतिम साम्राज्यवादी देश होना शामिल है। चीन एकमात्र देश है जिसने कई देशों पर औपनिवेशिक कब्जा कर रखा है। चीन की स्थिति, तिब्बत, पूर्वी तुर्केस्तान और दक्षिणी मंगोलिया जैसे राष्ट्रों पर कब्जा कर उनसे उपनिवेश जैसा बर्ताव उसकी शासन की वैधता को संदिग्ध बनाता है। इसी तरह कम्युनिस्ट चीन की स्थापना की प्रकृति का अधिनायकवादी होना भी उसकी असुरक्षा को बढ़ाता है। इस देश का यह चरित्र अतीत में लाखों लोगों की मौत का कारण बन चुका है। इनमें ग्रेट लीप फॉरवर्ड (१९५८-६२), सांस्कृतिक क्रांति (१९६६-७६) और तियानमेन स्क्वायर नरसंहार (१९८९) जैसे सामाजिक-राजनीतिक अभियानों के दौरान लाखों लोगों का संहार शामिल है। इसके फौलादी पंजे के नीचे कब्जे वाले लोगों के लिए भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक आत्मनिर्णय के अधिकारों से इनकार बीजिंग की कमजोरियों को भयावह पैमाने तक बढ़ाता है।
उपरोक्त सभी घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण असुरक्षा वह हैं जो पीआरसी के सत्तावादी, एकदलीय शासन से उपजी हैं, जो अपने नागरिकों को आत्म-अभिव्यक्ति के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों से भी वंचित करती हैं। शक्ति और प्रभाव के अहंकार में चूर चीन की विदेश नीति पार्टी और देश के इतिहास को फिर से लिखने और चीनी व्यवहार के इर्द-गिर्द पूरी परिस्थिति को नियंत्रित करने के लिए बेताब है। मुक्त और लोकतांत्रिक जीवन जीने का क्या मतलब है, इस बारे में बढ़ती जागरूकता शासन की कई महान दीवारों और फायरवॉल में और दरारें डाल रही हैं। यह इसलिए हो रहा है कि चीन की विशाल आबादी विदेश की यात्रा करती है और वहां अध्ययन कर रही है।
चीन की उल्लेखनीय वृद्धि और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति के रूप में पुनर्स्थापित होने और इसके सबसे धनी अभिजात वर्ग द्वारा विलासिता की वस्तुओं के भारी उपयोग के बावजूद देश में बेचैनी की भावना बनी हुई है। पीआरसी ऐतिहासिक समस्याओं से घिर गया है। आधुनिक पार्टी अपनी आक्रामक कार्रवाइयों को सही ठहराने के बहाने ‘चीन के राष्ट्रीय कायाकल्प’ की धारणा पर भरोसा करती है। यह अवधारणा चीन में मौजूद सभी राष्ट्रीयताओं और लोगों को वर्चस्ववादी हान संस्कृति में विलीन करने और सीसीपी के एकदलीय शासन द्वारा उन सबको संरक्षित करने में निहित है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास चीन की बढ़ती असुरक्षा को पहचानने और उसे संवाद कायम के कई अवसर मौजूद हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय चीन के साथ दूसरे तरीके से संपर्क करने को अहम मान रहा है। वह चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार और व्यापार से जुड़े लाभ के अवसरों से उत्पन्न मौके का फायदा उठाने को आतुर है। नतीजतन उत्साहित पीआरसी अब दक्षिण चीन सागर में अपने क्षेत्रीय दावों पर जोर दे रही है, भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्रों पर अतिक्रमण कर रही है, नेपाल और मंगोलिया में अनुचित प्रभाव डाल रहा है और हांगकांग की स्वायत्तता की गारंटी का उल्लंघन कर रहा है। घरेलू तौर पर, पीआरसी उइगरों के सामूहिक कारावास, तिब्बती खानाबदोशों के जबरन पुनर्वास और कब्जे वाले क्षेत्रों में अन्य आत्मसातवादी नीतियों के कार्यान्वयन को आगे बढ़ा रहा है।
चीन की सख्ती का असर उसके पड़ोसी एशियाई देशों से आगे बढ़ गया है। वह अब ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में उनके लोकतांत्रिक संस्थानों में घुसपैठ के माध्यम से पहुंच रहा है। यदि खुफिया जानकारी लीक करने वालों द्वारा जोखिम उठाकर इन हस्तक्षेपों को उजागर नहीं किया जाता तो शायद हम चीन की विस्तारवादी नीतियों पर उचित ध्यान नहीं दे पाते जो इसकी अंतर्निहित असुरक्षा की भावना में निहित हैं।
उदाहरण के लिए तिब्बती आध्यात्मिक धर्मगुरु परम पावन १४वें दलाई लामा के साथ सीसीपी के व्यवहार को ही लें। कोई यह पूछ सकता है कि दुनिया की सबसे बड़ी सेना या दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के लिए शांति और करुणा का संदेश देने के लिए विश्व स्तर पर प्रसिद्ध एक भिक्षु क्या खतरा पैदा कर सकता है- एक ऐसा व्यक्ति, जिसके पास न कोई सेना है न कोई सत्ता। जिसने अपने जीवन का अधिकांश समय पड़ोसी भारत में निर्वासन में बिताया है। फिर भी उसके हर कदम पर बारीकी से नजर रखी जाती है और विभिन्न जबरन और गुप्त रणनीतियों के माध्यम से उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अलग करने के लिए अथक प्रयास किए जाते हैं।
सीसीपी की असुरक्षा इतनी गहरी है कि परम पावन न केवल इस जीवनकाल में उनकी वैधता को खतरे में डालते हैं, बल्कि अपने अगले जीवनकाल में भी। विडंबना की भयावहता तब और अधिक उजागर होती है जब आधिकारिक तौर पर साम्यवादी और नास्तिक देश चीन ने तिब्बती बौद्ध धर्म के अगले धर्मगुरु की पहचान करने का अधिकार भी अपने पास जबरन रख लिया है। कुल मिलाकर केवल चीन में ही किसी को पुनर्जन्म लेने के लिए नौकरशाही की अनुमति की आवश्यकता होती है।
वैश्विक लोकतांत्रिक संस्थानों में इस तरह से निर्मित चीनी हस्तक्षेप का परीक्षण आज की पीआरसी की असुरक्षा पर और प्रकाश डालता है। इस असुरक्षा की ऐतिहासिक जड़ें अब अधिनायकवादी नियंत्रण, लोकतांत्रिक अधिकार देने से इनकार और अंतरराष्ट्रीय समझ पर हावी होने के प्रयासों जैसे विभिन्न रूपों में देखी जा सकती हैं।
अपने प्रभावशाली आर्थिक और सैन्य शक्ति के बावजूद चीन अपनी वैधता और स्थिरता के लिए आंतरिक और बाहरी चुनौतियों के एक जटिल जाल में उलझा हुआ है। जैसा कि विश्व समुदाय चीन की कार्रवाइयों से उत्पन्न स्थितियों से जूझ रहा है, उसे पीआरसी की अनिश्चित नीतियों और व्यवहारों को आकार देने में इन असुरक्षाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानना चाहिए। शेरप थेरचिन कनाडा तिब्बत समिति के कार्यकारी निदेशक हैं।