बोधगया, बिहार, भारत।२९ दिसंबर की सुबह बोधगया में आकाश स्वच्छ नील रंग का है। इसी माहौल में परम पावन दलाई लामा गोल्फ कार्ट से कालचक्र मैदान के लिए निकले। इस दौरान वे मुस्कुरा रहे थे और सड़क के दोनों ओर एकत्रित शुभचिंतकों का हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे थे। मंच के सामने गोल्फ कार्ट से नीचे उतरते हुए उन्होंने अपनी आदत के अनुसार आगे और अपने दाएँ और बाएं खड़ी भीड़ को हाथ हिलाकर अभिवादन किया। फिर उन्होंने मुड़कर शाक्य गोंगमा त्रिचेन, गदेन ठि रिनपोछे, साथ ही शरपा और जंगचे छोजे का अभिवादन किया। इसके बाद उन्होंने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने से पहले शाक्य त्रिज़िनों को भी नमस्कार किया।
परम पावन ने घोषणा की ‘आज, इस विशेष स्थान पर, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था, मैं बोधिचित्तोत्पाद और बोधिसत्व संवर लेने के लिए एक समारोह आयोजित करना चाहूँगा। यह, ज्ञान प्राप्ति का आसनबुद्ध से जुड़े स्थलों में सबसे पवित्र है। उन्होंने चार आर्य सत्य और ज्ञान के सैंतीस सामंजस्य की शिक्षा कहीं और दी।लेकिन यहाँ हमें उनकी सभी शिक्षाओं के सार की याद दिलाई जाती है, जो कि आकाश जैसे विस्तृत क्षेत्र में स्थित प्राणियों के लाभ के लिए मन को अनुशासित करता है।
‘मैं प्रतिदिन अपने अंदर बोधिचित्त का सृजन करता हूं।दूसरों के कल्याण के लिए चिंतन करता हूं। जितना अधिक आप इस तरह की प्रेरणा से परिचित होंगे, उतना ही आप पाएंगे कि आप दूसरों को अपने से अधिक प्रिय मानते हैं। इस तरह आप स्वयं को महसूस करेंगे कि सभी प्राणी अन्योन्याश्रित हैं।
परम पावन ने व्याख्यान प्रारंभ करते हुए कहा कि बुद्ध को सामने कैसे देखा जाए। उन्हें याद दिलाया गया कि कुछ दिनों पहले वाट-पा थाई मंदिर में उन्होंने दीवार पर बुद्ध की एक पेंटिंग देखी थी। उन्होंने खुलासा किया कि पाली-संस्कृत अंतरराष्ट्रीय भिक्षु आदान-प्रदान कार्यकम के उद्घाटन के दौरान उन्होंने महसूस किया जैसे बुद्ध अनुमोदन में उनका सिर सहला रहे थे और उन्हें चॉकलेट देकर पुरस्कृत कर रहे थे। ज्ञातव्य है कि इस कार्यक्रम में पाली और संस्कृत बौद्ध परंपराओं के भिक्षु अपने अनुभव का आदान-प्रदान करेंगे और एक-दूसरे की परंपराओं को बेहतर तरीके से जानेंगे। उन्होंने आगे कहा कि यदि हम बुद्ध द्वारा सिखाई गई शिक्षाओं की साधना करते हैं तो हमें मानना चाहिए कि इससे भगवान बुद्ध प्रसन्न होंगे।
उन्होंने कहा,‘साधना के माध्यम से आप शिक्षाओं के वास्तविक सुगंध का रसास्वादन कर सकते हैं। बुद्ध ने स्वयं बोधिचित्त का विकास किया, स्वयं बोधिसत्व की साधना में लगे रहे और एक पूर्ण जागृत प्राणी बन गए। हमें चिंतन करना चाहिए, ‘जैसे बुद्ध ने हमसे पहले किया है, वैसे ही मैं इस लक्ष्य को प्राप्त करूंगा।’ बुद्ध हमें निराश नहीं करेंगे। उन्होंने चार आर्य सत्यों के साथ-साथ प्रज्ञा पारमिता की भी शिक्षा दी है। हमारे लिए महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि हम अपने अनियंत्रित चित्त को बुद्ध के चित्त में परिवर्तित करें।
‘बुद्ध की शिक्षाओं को सुनें और उनका अध्ययन करें। उन पर बार-बार चिंतन करें, फिर जो आपने समझा है उस पर मनन करें। इसके साथ ही दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करने के लिए संकल्पित रहें। इस तरह आप ज्ञानियों के क्षेत्र में पहुँच जाएंगे। यदि आपके भीतर बोधिचित्त है तो आप शांति में रहेंगे।‘
परम पावन ने फिर से अपने श्रोताओं को सलाह दी कि वे अपने सामने बुद्ध के साथ भारत और तिब्बत के महान बौद्ध आचार्यों की उपस्थिति की कल्पना करें।
उन्होंने कहा,‘हम सभी इंसान हैं, हम शिक्षाओं से मिले हैं, हम जहां भी हों हम सभी संवेदनशील प्राणियों के लिए काम करने का दृढ़ संकल्प कर सकते हैं।‘
दूसरा दिन: बोधगया, बिहार, भारत।
परम पावन ने नागार्जुन की ‘बोधिचित्त पर भाष्य’ के श्लोक- ५७ के साथ अपना व्याख्यान फिर से शुरू किया। इसमें बताया गया है कि जिस तरह मिठास गुड़ का स्वभाव है और गर्मी अग्नि का स्वभाव है, उसी तरह सभी घटनाओं की प्रकृति शून्यता है। उन्होंने कहा कि हम सभी में बुद्ध-स्वभाव है। हम मनुष्य हैं जिन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं का अनुभव किया है और हमारे पास अपनी समझ का विस्तार करके अपने चित्त को वश में करने का अवसर और संसाधन है।
अपनी व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए परम पावन ने कहा कि शून्यता की बात करना न तो शून्यवाद और न ही शाश्वतता को प्रतिपादित करना है। उन्होंने आगे कहा कि जब परम सत्य की व्याख्या की जाती है तो रूढ़ि बाधित नहीं होती है, लेकिन ऐसा कोई परम सत्य नहीं पाया जा सकता है जो रूढ़ि से स्वतंत्र हो।
परम पावन ने उल्लेख किया कि बौद्ध परंपरा में शास्त्र और उसका अहसास प्राप्त करना शामिल हैं और इसे अध्ययन और साधना के माध्यम से जीवित रखा जाता है। इसमें नैतिकता, एकाग्रता और प्रज्ञा के तीन उच्च प्रशिक्षण शामिल हैं। दार्शनिक कथनों के अलावा अहसास के लिए मन की कार्यप्रणाली के ज्ञान की भी आवश्यकता होती है। श्वेताभ दृश्य, लाली वृद्धि और निर्वाण के समय काला के साथ ही तीन रिक्तियों के माध्यम से मृत्यु के स्पष्ट प्रकाश की सूक्ष्म स्पष्टता और जागरूकता का प्रतिनिधित्व करनेवाले मन के साथ दैनिक साक्षात्कार के माध्यम से हम अंततः काल्पनिक शरीर का आभास करते हुए ‘पूर्ण शून्य’ की अवस्था में पहुंचने की आशा करते हैं।
परम पावन ने अपने व्याख्यान का समापन करते हुए कहा, ‘सभी दुख अज्ञान से आते हैं, यही वह है जिसे समाप्त किया जाना है। और हम ऐसा कारणों के राजा प्रतीत्य समुत्पाद, को समझकर कर सकते हैं। मैंने अपने इस व्याख्यान में यही कहने की कोशिश की है।
मध्याह्न भोजनोपरांत बिहार के मुख्यमंत्री माननीय नीतीश कुमार ने परम पावन से मुलाकात की और दोनों ने प्राचीन भारतीय ज्ञान और संस्कृति के मूल्य के महत्व पर चर्चा की।
तीसरा दिन: बोधगया, बिहार, भारत।
३१ दिसंबर की सुबह- सुबह कालचक्र मैदान में जैसे ही परम पावन दलाई लामा ने अपना आसन ग्रहण किया, भिक्षुओं और आम लोगों के एक समूह ने चीनी भाषा में ‘हृदय सूत्र’ का जाप करना शुरू कर दिया। सभी आगंतुकों को चाय और ब्रेड परोसी गई और इस दिन के संरक्षकों ने परम पावन को एक मंडल और सम्यक्त्व काय, वाक् और मन के त्रिगुणात्मक प्रतिनिधि की पेशकश की। इस अवसर पर परम पावन ने घोषणा की कि, ‘यहां इस विशाल सभा की ओर से मुझे लोगों को आर्य तारा से संबंधित अनुमति देने का अनुरोध किया गया है। जैसा कि मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है, यह एक विशेष स्थान है और सबसे महत्वपूर्ण चीज जो हम यहां कर सकते हैं वह है बोधिचित्त उत्पन्न करना, स्वयं और दूसरों के हित में पूर्ण सम्यक्त्व प्राप्त करने की आकांक्षा रखना। इसी से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
उन्होंने कहा, ‘जब शांतरक्षित को तिब्बत में आमंत्रित किया गया था, तभी के तिब्बती धार्मिक राजाओं के समय से तिब्बती लोग बोधिचित्त की साधना कर रहे हैं। यदि आपका मन तनावमुक्त और शांत है तो बोधिचित्त के विकास के परिणामस्वरूप आप पाएंगे कि आप अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी नींद का आनंद ले रहे हैं। आप दिन-रात खुश रहेंगे।’
‘मैं आज २१ ताराओं की अनुमति देने जा रहा हूँ, जो रिनजंग ज्ञात और सुखा ज्ञात संग्रह में पाए जाते हैं। मैंने तिब्बत में तगदग रिनपोछे से रिनजंग ज्ञात प्राप्त किया। साथ ही कई अन्य अभिषेक और प्रसारण भी प्राप्त किए। मुझे उनसे सुखा ग्यात्स प्राप्त करना याद नहीं है, लेकिन क्याब्जे ठिजंग रिनपोछे ने मुझे निर्वासन में आने के बाद यह दिया था।’
परम पावन ने आगे कहा, ‘जब मैं प्रारंभिक संस्कारों से गुज़र रहा हूं, कृपया आर्य तारा से प्रार्थना करें कि धर्म फले-फूले, लोग स्वस्थ हों और आचार्य और यहाँ एकत्रित लोग दीर्घायु हों। ध्यान रखें कि आप जितने लंबे समय तक जीवित रहेंगे, योग्यता अर्जित करने के आपके अवसर उतने ही अधिक होंगे। और तो और, चूंकि अवलोकितेश्वर मेरे सिर के मुकुट पर विराजमान हैं, आप सभी उनके साथ एक विशेष तादात्म्य महसूस करते हैं, जिसका अर्थ है कि आप जीवन के बाद भी उनकी देखभाल करेंगे।’
जब परम पावन ने औपचारिक रूप से अनुमति देना प्रारंभ किया, इसके साथ ही उन्होंने शिष्यों को प्रवचन के लिए अनुरोध करने का निर्देश दिया। उन्होंने टिप्पणी की कि उन्होंने पिछले दो दिनों में धर्म का सामान्य परिचय दिया था। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि तिब्बती, मंगोलियाई, चीनी और हिमालयी क्षेत्रों के लोग पीढ़ियों से धर्म की साधना कर रहे हैं और फलस्वरूप कर्म संबंध में वे हमारे समान हैं।
प्रारंभ में शिष्यों को बोधिसत्व संवरों का अनुरोध करना था। परम पावन ने उन्हें सलाह दी कि वे अर्हत, आठ बोधिसत्वों- मंजुश्री, अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि, मैत्रेय, क्षितिजगर्भ, आकाशगर्भ, सर्वनिवारनविशकंभिनी और समंतभद्र, महान भारतीय आचार्यों के सिरमौर छह आचार्यों- नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबंधु, दिग्नाग और धर्मकीर्ति और दो सर्वोच्च आचार्यों- गुणप्रभा और शाक्यप्रभा के साथ अंतरिक्ष में बुद्ध की कल्पना करें।
इसके बाद, शिष्यों को आर्य तारा के शरीर का अनुरोध करना था। परम पावन ने पुष्टि की कि उन्होंने स्वयं को और सामने वाले देवता को उस रूप में देखा था और २१ ताराओं का उनके रंगों और विशेषताओं के साथ वर्णन किया।
आगे शिष्यों ने तारा की वाणी, तारा के मन और मंत्र का वरदान मांगा। अनुष्ठान का समापन धन्यवाद मंडल की भेंट के साथ हुआ।
परम पावन ने नागार्जुन की ‘बोधिचित्त पर भाष्य’ के श्लोक ६७ से अपने व्याख्यान को फिर से शुरू किया और टिप्पणी की कि हमें सच्चे अस्तित्व से चिपके रहने पर काबू पाने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा कि जब तक हम ज्ञान की बाधाओं को दूर नहीं कर लेते, हम सम्यक्त्व प्राप्त करने में असमर्थ होंगे।
जब साधक भव्य प्राणियों को कर्म और मानसिक वेदनाओं से अभिभूत देखते हैं, तो वे पहचान जाते हैं कि इन बाधाओं को मन से हटाया जा सकता है। वे इस बात को इंगित करते हैं कि वे भव्य प्राणियों को ऐसा करने में मदद कर सकते हैं और उन्हें मिली दया को चुकाने के लिए ऐसा करने का संकल्प लेते हैं। जैसा कि श्लोक १०५ स्पष्ट करता है, ‘बोधिचित्त को महान वाहन का सर्वोच्च आदर्श कहा गया है, इसलिए एक दृढ़ प्रयास के साथ इस बोधिचित्त को उत्पन्न करें।’ इसके बाद परम पावन ने ग्रंथ को अंतिम पुष्पिका तक पाठ किया।
उन्होंने कहा, ‘हम यहां इस पवित्र स्थान पर एकत्र हुए हैं जहां बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था और जो स्थान बाद में नागार्जुन और अन्य आचार्यों की उपस्थिति से कृतार्थ हुआ था। हम उनके निर्देशों को पूरा करके उन सभी के करीब आने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। अब, कृपया सभी प्राणियों के लाभ के लिए जो कुछ भी पुण्य कमाया गया है, उसे समर्पित करें।’
परम पावन का यह व्याख्यान सोंखापा के ‘पथक्रम पर महान ग्रंथ’ के अंत में की गई प्रार्थना के सस्वर पाठ के साथ समाप्त हुआ। इसमें जो श्लोक हैं, उनका भावार्थ इस प्रकार हैं :
जहां कहीं भी बुद्ध की शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ है
और जहाँ भी यह फैला है लेकिन घट गया है
मैं बड़ी करुणा से प्रेरित होकर स्पष्ट रूप से कह सकता हूं कि
यह खजाना सभी के लिए उत्कृष्ट लाभ और खुशी के लिए है।
परम पावन के मंच छोड़ने और सभा के विसर्जित होने से पहले इस व्याख्यान शृंखला का आयोजन करने वाले दलाई लामा ट्रस्ट के सचिव जमफेल ल्हुंडरूप ने कार्यक्रम में हुए आय और व्यय का तिब्बती में विवरण दिया। उन्होंने परम पावन को उनके व्याख्यान के लिए धन्यवाद दिया और स्थानीय अधिकारियों के प्रति उनके समर्थन के लिए आभार व्यक्त किया। ज़ुमचुंग ताशी ने फिर अंग्रेजी में धन्यवाद ज्ञापन का सार-संक्षेप दोहराया।
इसके बाद परम पावन अपने चिर परिचित अंदाज में भीड़ का अभिनन्दन करने के लिए मंच के सामने आए और फिर गदेन फेलज्ञेलिंग महाविहार में लौटने के लिए गोल्फ कार्ट में सवार होने से पहले सबसे वरिष्ठ लामाओं के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। इसके बाद वे मुस्कुराते हुए और रास्ते में शुभचिंतकों का अभिनन्दन करते हुए आगे बढ़ गए।