प्रो0 श्यामनाथ मिश्र
पत्रकार एवं अध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खेतड़ी (राजस्थान)
तिब्बती धर्मगुरु परमपावन दलाई लामा को विश्वशांति के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार 1989 में 10 दिसम्बर को प्रदान किये जाने के उपलक्ष्य में हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी अनेकानेक कार्यक्रम विष्व के विभिन्न देशो में आयोजित किये गये। इससे स्पष्ट है कि तिब्बती समुदाय एवं तिब्बत समर्थक चीन सरकार की साम्राज्यवादी नीति के विरोध में सुव्यवस्थित रूप से शांतिपूर्ण संघर्ष की राह पर हैं। साम्राज्यवादी चीन ने 1959 में स्वतंत्र तिब्बत देश पर अपना नियंत्रण कर लिया था। अवैध चीनी नियंत्रण के पूर्व तिब्बत देश भारत एवं चीन के बीच एक बफर स्टेट (मध्यस्थ राज्य) था। तब भारत की सीमा तिब्बत से जुड़ी थी। चीन की सीमा भारत से नहीं जुड़ी थी। लेकिन तिब्बत के परतंत्र होते ही भारत-तिब्बत सीमा का स्थान भारत-चीन सीमा ने ले लिया। इसी के परिणामस्वरूप चीन ने 1962 में हमला किया और एक बड़े भारतीय भूभाग को भी हथिया लिया। तिब्बत के स्वतंत्र रहते भारत-चीन संबंध अत्यन्त मधुर थे। तिब्बत समर्थको ने इस बार के कार्यक्रमों में भी इन प्रामाणिक तथ्यों की सार्थक चर्चा करते हुए चीनी चंगुल से तिब्बत को मुक्त कराने पर जोर दिया। यद्यपि तिब्बती समुदाय एवं उसका लोकतांत्रिक तरीके से मतदान द्वारा निर्वाचित नेतृत्व सिर्फ ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ की मांग कर रहा है लेकिन तिब्बत समर्थक तिब्बत की ‘‘स्वतंत्रता’’ के पक्ष में हैं।
प्रारम्भ में तिब्बती भी तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में थे लेकिन बाद में ‘‘मध्यममार्ग की नीति’’ अपनाते हुए चीन के अंदर तिब्बत को ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ देने की मांग की गई। यह मांग चीनी संविधान एवं उसके स्वायत्तता संबंधी कानून के अनुकूल है। चीन सरकार के पास प्रतिरक्षा एवं वैदेशिक मामले हों तथा शिक्षा एवं कृषि समेत अन्य सभी विषय तिब्बत सरकार को सौंपे जायें। इससे चीन की एकता-अखंडता-संप्रभुता की रक्षा के साथ ही तिब्बतियों को भी स्वषासन का अधिकार मिल जायेगा। यही है मध्यममार्ग नीति। दलाई लामा एवं लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित तिब्बत की निर्वासित सरकार का मत है कि चीन सरकार षड्यंत्रपूर्वक तिब्बत में अत्याचार कर रही है तथा योजनापूर्वक तिब्बती पहचान को भी मिटाने में लगी है। ऐसी स्थिति में ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ हेतु चीन से मांग तर्कसंगत है ताकि तिब्बती पहचान की सुरक्षा हो सके। राष्ट्रीय पहचान खोकर पूर्ण स्वतंत्रता पाने का कोई महत्व नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस अर्थात् 10 दिसबंर के कार्यक्रमों में भी इसी आधार पर तिब्बत समर्थकों ने भी तिब्बत हेतु ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ की मांग का समर्थन किया।
प्रसन्नता की बात है कि तिब्बतियों की भाँति तिब्बत समर्थक भी शांतिपूर्ण एवं अहिंसक तिब्बती संघर्ष के पक्ष में हैं। वे शांतिप्रिय दलाईलामा के इन विचारों से सहमत हैं कि तिब्बत समस्या का समाधान शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से हो। इस संबंघ में दलाई लामा स्वयम् गांधी के अनुयायी हैं। गांधी दर्शन में शांति, अहिंसा तथा सत्याग्रह को अपनाने पर जोर है। इसका प्रयोग गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सफलतापूर्वक किया था। उन्होंने अपनी आलोचनाओं की भी परवाह नहीं की थी। उनके आलोचक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में आवष्यकतानुसार हिंसा को उचित मानते थे लेकिन गांधी ने उनके विचार का तथा ऐसे लोगों का समर्थन नहीं किया। शांति एवं अहिंसा में ऐसी ही अटूट निष्ठा दलाई लामा की है।
दलाई लामा की शांति एवं अहिंसक प्रतिबद्धता पर आधारित ‘‘मध्यम मार्ग नीति’’ में विष्व के अनेक देशो की रुचि सराहनीय है। इसी दिसबंर, 2022 में कनाडा की संसद ने सर्वसम्मति से मध्यममार्ग नीति का समर्थन करते हुए तिब्बत को ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ देने को न्यायसंगत माना है तथा चीन के साथ तिब्बत की वार्ता पुनः शुरू करने की मांग की है। कनाडा का स्पष्ट मत है कि चीन सरकार तिब्बत में मानवाधिकारों का हनन बंद करे तथा तिब्बत से शीघ्र वार्ता कर समस्या का समाधान करे। चीन सरकार ने तिब्बत में मीडिया को नियंत्रित कर रखा है। कोरोना महामारी से वहाँ स्थिति भयावह है लेकिन सेंसरषिप होने के कारण सही सूचना से संपूर्ण संसार वंचित है। तिब्बत सरकार द्वारा इन्हीं तथ्यों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बत एडवोकेसी कैंपेन के अंतर्गत उजागर किया जा रहा है। निर्वासित तिब्बत सरकार के राजप्रमुख (सिक्योंग) पेम्पा त्सेरिंग अपने प्रवास के दौरान अनेक देशो में यही अपील कर रहे हैं कि तिब्बत में मानवाधिकारों की सुरक्षा हेतु चीन सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ाया जाये।
दलाई लामा यद्यपि अपने सारे राजनीतिक अधिकार निर्वासित तिब्बत सरकार को सौंप स्वयम् आध्यात्मिक दायित्व तक सीमित हैं फिर भी वे तिब्बत की स्थिति से बहुत व्यथित हैं। कोरोना महामारी के कारण गत तीन वर्षों से उनका विदेशो में जाना बंद था। भारत में भी वे कहीं नहीं जाते थे। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में धर्मषाला स्थित अपने निवास से वे ऑनलाइन प्रवचन करते थे। खुषी की बात है कि उन्होंने अब भ्रमण शुरू कर दिया है। अभी 29 से 31 दिसबंर तक वे बोधगया में पूजा एवं प्रवचन कर रहे थे। उसमें भारतीय हिमालय क्षेत्र के साथ मंगोलिया और रूस के विभिन्न क्षेत्रों से भी भगवान् बुद्ध के उपासक शामिल थे। सब उनके दीर्घजीवन हेतु भगवान् से प्रार्थना करते हुए उनके प्रवचन सुन रहे थे। उनके दर्शन हेतु हजारों-लाखों की भीड़ से सिद्ध है कि दलाई लामा का विश्व्यापी प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है।