प्रत्येक वर्ष की भाँति 02 अक्टूबर, 2022 को भारत सहित विभिन्न देषों में रह रहे तिब्बतियों ने महात्मा गांधी की जयंती उत्साहपूर्वक मनाई। तिब्बतियों ने इस अवसर को हर बार पूरी श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ मनाया है। इसका कारण है गांधीजी की सत्य और अहिंसा के प्रति समर्पण। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका अमूल्य योगदान यही है। वे वैचारिक रूप से नरम दल के थे। वे भारतीय संघर्ष में सक्रिय गरम दल के विचारों से दूर थे। इसके लिये उन्हें अनेक बार कटु आलोचनाओं का षिकार होना पड़ता था। इसके बावजूद उनका मत था कि ‘‘पवित्र साध्य’’ की प्राप्ति के लिये ‘‘पवित्र साधन’’ का ही प्रयोग करना उचित है। उनके मतानुसार भारत की स्वतंत्रता पूर्णतः पवित्र साध्य है और इसकी प्राप्ति के लिये सत्य-अहिंसा जैसे पवित्र साधनों का ही उपयोग हो। हिंसा के आधार पर प्राप्त स्वतंत्रता पवित्र नहीं हो सकती। वे बराबर भारतीय संस्कृति में निहित ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ पर जोर देते थे।
बौद्ध धर्मगुरु तथा तिब्बत के पूर्व राजप्रमुख परमपावन दलाई लामा के मार्गदर्षन में जारी तिब्बती संघर्ष गांधी-चिंतन से ही प्रेरित है। महात्मा गांधी के सत्य-अहिंसा संबंधी चिंतन को दलाई लामा ने अपने आचार-विचार-व्यवहार में अपना रखा है। कई बार उन्हें भी अनेक तिब्बती और तिब्बत समर्थक गांधी मार्ग से हटने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार विस्तारवादी चीन सरकार सिर्फ शांतिपूर्ण अहिंसक आंदोलन से तिब्बत समस्या का समाधान नहीं करेगी। इस संबंध में वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उदाहरण देते हैं जिसमें गरम विचारों के स्वतंत्रता सेनानी आवष्यकतानुसार हिंसा का भी प्रयोग करते थे। वे भी गांधीजी की तरह ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ से सहमत थे, लेकिन वे इस श्लोक के अगले वाक्य को भी समान रूप से महत्व देते थे। वह वाक्य है- ‘‘धर्म हिंसा तथैव च।’’ पूरे श्लोक का अर्थ है- अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है लेकिन धर्म की रक्षा के लिये हिंसा का प्रयोग उससे भी बढ़कर है।
तात्कालिक परिस्थिति में गांधीजी ने ब्रिटिष सरकार के खिलाफ तथा वर्तमान परिस्थिति में दलाई लामा ने चीन सरकार के खिलाफ शांति एवं अहिंसा को अपनाया ताकि आंदोलनकारियों की क्षति कम से कम हो। इस समय तिब्बती संघर्ष के पक्ष में विष्वजनमत के होने का भी कारण यही है। दलाई लामा की प्रेरणा से गांधीजी का अहिंसा दर्षन तिब्बती संघर्ष का आधार है। सत्य, अहिंसा और शांति का सफल प्रयोग गांधीजी कर चुके थे। इस कारण दलाई लामा का इस पवित्र साधन में पूरा विष्वास है। यही कारण है कि तिब्बती समुदाय गांधी जयंती की पूरे वर्षभर प्रतीक्षा करता है। गांधी जयंती से तिब्बती आंदोलन को वैचारिक धरातल पर फिर से नई ऊर्जा प्राप्त होती है।
हिमाचल प्रदेष के कांगड़ा जिले में धर्मषाला स्थित निर्वासित तिब्बत सरकार, जो कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित है, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक तिब्बती संघर्ष का ही पक्षधर है। इसके बावजूद साम्राज्यवादी चीन सरकार का क्रूरतापूर्ण दमन तिब्बत में जारी है। अन्य देषों को भी चीन सरकार धमकाती रहती है कि वे तिब्बतियों का समर्थन नहीं करें। शांति के लिये नोबल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा को वह विघटनकारी तथा आतंककारी बताती है। चीन का यह दृष्टिकोण निंदनीय है क्योंकि चीन सरकार ही उपनिवेषवादी है। उसने स्वतंत्र तिब्बत पर 1959 से अवैध कब्जा कर रखा है। उसके भौगोलिक क्षेत्र को काट-छाँटकर विकृत कर दिया है। चीन सरकार के आतंक और तिब्बत में तिब्बतियों के मानवाधिकारों की समाप्ति का ही परिणाम है कि गत कुछ वर्षों में ही अनेक शांतिप्रिय एवं अहिंसक तिब्बती आंदोलनकारी अपने ही हाथों अपने को आग के हवाले कर चुके। उनका आत्मदाह तिब्बत के लिये सर्वोच्च बलिदान है। इनसे भी चीन सरकार विचलित नहीं होती। आत्मदाह कर चुके आंदोलनकारियों के परिजनों को वह क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित कर रही है। इससे स्पष्ट है कि हठधर्मी चीन सरकार के लिये शांति-अहिंसा जैसे मानवीय मूल्य महत्वहीन हैं।
चीन सरकार से तिब्बती पूर्ण स्वतंत्रता भी नहीं मांग रहे। चीन के संविधान और राष्ट्रीयता संबंधी कानून के अनुकूल वे सिर्फ ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ चाहते हैं। वैदेषिक मामले और प्रतिरक्षा चीन सरकार रखे तथा शेष विषयों, जैसे- षिक्षा, कृषि आदि पर कानून बनाने का अधिकार तिब्बतियों को मिले। इस उपाय से चीन की एकता-अखंडता तथा संप्रभुता पूर्णतः सुरक्षित रहेगी और तिब्बतियों को भी स्वषासन का अधिकार मिल जायेगा। इसमें चीन और तिब्बत का हित समान रूप से सुरक्षित हो जायेगा। इसी ‘‘वास्तविक स्वायत्तता’’ की मांग को ‘‘मध्यममार्ग’’ अर्थात् ‘‘ बीच का रास्ता’’ कहा जाता है। चीन सरकार को चाहिये कि वह तिब्बती प्रतिनिधिमंडल के साथ पुनः वार्ता प्रारम्भ करे। दलाई लामा एवं निर्वासित तिब्बत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन सरकार की वार्ता से यह संघर्ष अवष्य दूर होगा।
भारत पर 1962 के चीनी आक्रमण के समय ‘‘पंचषील’’ और ‘‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’’ के संकल्प खोखले सिद्ध हुए। जब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चीन के साथ शांति के कबूतर उड़ा रहे थे तब चीन भारत से युद्ध की तैयारी कर रहा था। चीन ने 1962 में बहुत बड़े भारतीय भूभाग को हथिया लिया। बाद में 14 नवंबर, 1962 को भारतीय संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर संकल्प लिया कि हम चीन के अवैध नियंत्रण से भारतीय भूभाग को अवष्य मुक्त करायेंगे। भारत की शांति, सुरक्षा, समृद्धि और स्वाभिमान की दृष्टि से इस सर्वसम्मत संसदीय संकल्प को पूरा करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। इससे तिब्बत समस्या का हल भी निकल जायेगा।