चीन के कब्जे के बाद पहुंचे यहां
10 मार्च 1959 को तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भारत के जिन पांच इलाकों में तिब्बती शरणार्थियों ने अपना घर-परिवार बसाया, उसमें एक मैनपाट है। मैनपाट के अलग-अलग कैंपों में रहने वाले ये तिब्बती यहां टाऊ, मक्का और आलू की खेती करते हैं। यहां पर सरकार की ओर से हर परिवार को सात-सात एकड़ खेत दिए गए थे ताकि खेती से उनकी आजीविका चल सके। खेती के काम के लिए आसपास के गांवों के आदिवासी मजदूर यहां आते हैं।
चौथी पीढ़ी रह रही अब
शुरुआत में करीब 22 सौ लोगों को यहां लाकर बसाया गया था। अब यहां तीसरी और चौथी पीढ़ी रह रही है लेकिन आबादी कमोबेश उतनी ही बनी हुई है क्योंकि एक तो पुरानी पीढ़ी के लोग बचे नहीं और नई पीढ़ी का बड़ा हिस्सा बाहर चला गया है। लेकिन पुरानी पीढ़ी के जो लोग यहां बचे हैं वो यहां खुश हैं और यहीं रहना चाहते हैं।
अलग-अलग व्यवसाय करते हैं
खेती करने के अलावा तिब्बती स्थानीय स्तर पर आजीविका के लिए कुछ और काम भी करते हैं। मसलन पॉमेरियन कुत्ता पालना और कालीन बुनना। युवा ठंड के दिनों में ऊनी कपड़े का व्यवसाय करने बाहर चले जाते हैं और तीन महीने घूम-घूमकर व्यवसाय करते हैं। बच्चों के पढऩे के लिए यहां केंद्र सरकार की ओर से विशेष केंद्रीय स्कूल खोले गए हैं। तिब्बतियों के बच्चे इस स्कूल में आठवीं तक की पढ़ाई करते हैं। इसके बाद की पढ़ाई के लिए या तो वे धर्मशाला चले जाते हैं या फिर हिमाचल प्रदेश में डलहौजी या शिमला। यहां सभी कैंपों में मॉनेस्ट्री यानी बौद्ध मंदिर बने हुए हैं और जहां तिब्बती ईश्वर के ध्यान में लीन दिखाई देते हैं।