हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लोबसांग सांगे बुधवार को तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधान चुने गए. सांगे तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा की राजनीतिक जिम्मेदारियों का बोझ भी संभालेंगे.
अंतरराष्ट्रीय कानून के जानकार 43 साल के लोबसांग सांगे ने अपने दोनों प्रतिद्वंदियों को बड़ी आसानी से हरा दिया. प्रधानमंत्री चुनाव में उन्हें कुल 55 फीसदी वोट मिले. चुनाव आयुक्त जाम्फेल कोएसांग ने भारत के धर्मशाला में चुनाव के नतीजों का एलान किया. उत्तर पूर्व भारत के चाय बगान वाले इलाके में पैदा हुए और पले बढ़े लोबसांग सांगे तिब्बत में कभी नहीं रहे यहां तक कि उन्होंने कभी भी इस इलाके में अपने पांव भी नहीं धरे. Bildunterschrift:
सांगे के चुनाव के साथ ही पहली बार यह हो रहा है कि तिब्बत की राजनीति धर्मगुरु के साए से बाहर निकल रही है. सांगे को प्रधानमंत्री का पद ऐसे समय में मिला है जब तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा अपनी राजनीतिक जिम्मेदारियों से रिटायर होने का एलान कर चुके हैं. हालांकि दलाई लामा धर्मगुरू के रूप में तिब्बती समुदाय का नेतृत्व करते रहेंगे लेकिन सांगे की भूमिका पिछले प्रधानमंत्रियों की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण होगी. चुनाव जीतने के बाद सांगे ने कहा, “मैं अपने चुनाव को दलाई लामा की दूरगामी नीतियों के समर्थन के रूप में देखता हूं और यह उनके सही मायनों में लोकतांत्रिक तिब्बती समाज के सपने को सच करने की दिशा में एक और बड़ा कदम है. मुझे इस बात का भी बड़ा सकून है कि जिन बदलावों से हम गुजर रहे हैं वह तब हो रही हैं जब दलाई लामा स्वस्थ हैं और हमारी निगरानी कर रहे हैं.” Bildunterschrift:
सांगे ने दार्जिलिंग के एक तिब्बती शरणार्थी स्कूल में पढ़ाई की और उसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. इसके बाद उन्हें फुलब्राइट स्कॉलरशिप मिल गई और फिर वह आगे की पढ़ाई करने हॉर्वर्ड लॉ स्कूल चले गए. इसके बाद से ही वह अमेरिका में रह रहे हैं. फिलहाल वह इसी स्कूल में सीनियर फेलो हैं. उनका प्रोफाइल तिब्बत की निर्वासित नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं लिहाज से देखें तो बहुत अलग नहीं है. हालांकि बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग उनकी पेशेवर योग्यता को उनके नेतृत्व की बड़ी विशेषता मानते हैं. सांगे ने साफ कर दिया है कि वह दलाई लामा के ‘मध्यमार्गी’ फॉर्मूले का समर्थन करते हैं जिसका मकसद है चीनी शासन के अंदर रहते हुए ‘सार्थक स्वायत्तता’ हासिल करना.
भारत और दूसरे देशों में निर्वासित जीवन बिता रहे तिब्बती समुदाय के लोगों में से तकरीबन 83,400 लोगों को वोट देने का अधिकार है. इनमें से करीब 49000 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा अकेले ही तिब्बती समुदाय के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 1959 में वह तिब्बत से भाग कर भारत आ गए और तब से धर्मशाला में ही रहते हैं. तिब्बती समुदाय की चिंता यह है कि दलाई लामा के बाद उनके संघर्ष की मशाल कौन थामेगा ऐसे में निर्वाचित नेता इस संघर्ष में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं, पर यह इतना आसान नहीं है. तिब्बत की निर्वासित सरकार को दुनिया के देश मान्यता नहीं देते और चीन भी इसे मानने से इनकार करता है. तिब्बत में रह रहे तिब्बती दलाई लामा के बगैर इस सरकार को कितना स्वीकार करेंगे यह कहना मुश्किल है.
रिपोर्टः एजेंसियां/एन रंजन