project-syndicate.org, ब्रह्म चेलानी
नई दिल्ली। तिगरिस से लेकर सिंधु तक और यांग्त्जी से नील नदी तक मानव सभ्यता के उद्भव और विकास में नदियों की महती भूमिका रही हैं। लाखों वर्षों से लाखों लोग इन नदियों से ही अपनी प्यास बुझाते रहे हैं, खाने के लिए अनाज उगाते रहे हैं और जीवन यापन के लिए इन्हीं नदियों पर निर्भर रहे हैं। फिर भी हम अपनी अर्थव्यवस्थाओं, समाजों और यहां तक कि हमारे अस्तित्व के लिए सबसे आवश्यक धरती पर बहने वाली इन नदियों को तेजी से नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
चीन एक उदाहरण हो सकता है। इसकी बांध बनाने का पागलपन और नदियों के अति-दोहन का जुनून एशिया पर पर्यावरणीय कहर बरपा रहा है, जंगलों को नष्ट कर रहा है, जैव विविधता को नष्ट कर रहा है और जल संसाधनों को कम कर रहा है। 2013 में जारी चीन की पहल जल सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चलता है कि छोटी धाराओं सहित नदियों की संख्या पिछले छह दशकों में आधे से अधिक घट गई थी, यानी 27,000 से अधिक नदियां विलुप्त हो गई हैं।
तब से स्थिति और बिगड़ती ही जा रही है। मेकांग नदी ऐतिहासिक रूप से अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर बह रही है। तिब्बती पठार की सीमा के निकट चीन द्वारा बनाए गए बड़े बाँधों की एक शृंखला के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवेश करने के ठीक पहले इसमें पानी की मात्रा बहुत ही कम हो गइ्र है। वास्तव में तिब्बती पठार एशिया की अधिकांश प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल है और चीन ने इसका फायदा उठाया है जबकि अपने से निचले देशों को इसने इसका कोई लाभ नहीं उठाने दिया है।
चीन दुनिया का सबसे बड़ा बांध निर्माता हो सकता है, लेकिन यह अकेला नहीं है। एशिया से लेकर लैटिन अमेरिका तक दूसरे देश भी बिजली उत्पादन के लिए लंबी नदियों का दोहन करते रहे हैं। सिंचाई के लिए पानी का उपयोग नदियों पर दबाव का एक प्रमुख कारण रहा है। वास्तव में फसल उत्पादन और पशुधन दुनिया के ताजे पानी के संसाधनों का तीन-चैथाई हिस्से का उपयोग करता है। जबकि इस तरह से हुई पानी की कमी औद्योगिक कचरे और सीवेज जल के वहन के साथ मिलकर बाकी जल संसाधन को और प्रदूषित कर देता है।
कुल मिलाकर, दुनिया की लंबी नदियों में से लगभग दो-तिहाई को संशोधित किया गया है, और दुनिया की कुछ सबसे लंबी नदियां, जिनमें नील और रियो ग्रांडे शामिल हैं- अब लुप्त होने के कगार पर आ गई हैं। 1,000 किलोमीटर (620 मील) से अधिक लंबी बहनेवाली 21 नदियां जो अभी भी पर्वत के अपने उद्गम स्रोतों से समुद्र तक स्वतंत्र रूप से बहती हैं, अधिकांश आर्कटिक के दूरदराज के क्षेत्रों में और अमेजॅन और कांगो बेसिन में हैं। वह भी इसलिए, क्योंकि वहां जलविद्युत विकास अभी तक आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है।
ये प्रवृत्तियाँ जल संसाधनों को रोकती हैं, पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट करती हैं और मानव स्वास्थ्य को बीमार बनाती हैं। उदाहरण के लिए ऊपरी इलाकों में ही जल की धाराओं को बड़े पैमाने पर मोड़ देने के कारण कोलोराडो नदी के डेल्टा नष्ट हो गए और सिंधु नदी खारे कच्छ क्षेत्र में बदल गई है।
इसके अलावा, नदी-जल का कम स्तर इसके वार्षिक धारा चक्र को बाधित करते हैं, जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पोषक तत्वों से भरपूर तलछट के साथ प्राकृतिक रूप से खेती को फिर से उर्वर बनाने में मदद करता है। औसत से कम वर्षा की अवधि में, कई नदियाँ समुद्र तक पहुँचने से पहले तेजी से सूख जाती हैं और जब तक वे इसे फिर से पूरा करती हैं, तब भी वे पोषक तत्वों और खनिजों को कम ही जमा करती हैं जो समुद्री जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
विश्व स्तर पर जलीय पारिस्थितिक तंत्र में 1970 के दशक के मध्य से जैव विविधता का आधा हिस्सा विलुप्त हो चुका हैं और पिछली शताब्दी में लगभग आधी दलदली भूमि सूख चुकी हैं।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि एक दशक के अंदर ही दस लाख जानवरों और पौधों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है।
नदी के विनाश से मनुष्य के स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम होते है। मध्य एशिया में सोवियत संघ की कपास की बडे पैमाने पर खेती की नीति के कारण अराल सागर 40 वर्षों से भी कम समय में सूख गया, जिसके लिए समुद्र के प्रमुख स्रोतों, अमु दरिया और सियार दरिया नदियों से पानी निकाला गया था।
आज, इसके उजागर हो गए सीबेड से इनमें से खनिज कणों को उड़ा दिया गया है। अब इनमें केवल नमक और कृषि में प्रयुक्त रासायनिक अवशेषों की मोटी परत जमी है जो न केवल फसलों को बर्बाद करते हैं बल्कि वे गुर्दे की बीमारी से लेकर कैंसर तक से लोगों को बीमार कर रहे हैं।
उन्मुक्त बहने वाली नदियाँ अपक्षय हुई जैविक सामग्री और समुद्री चट्टानों में टूटन के द्वारा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह प्रक्रिया प्रत्येक वर्ष लगभग 20 करोड़ टन कार्बन को अवशोषित कर हवा को शुद्ध बनाती है।
संक्षेप में, हमारी नदियों की रक्षा के बारे में स्थिति बहुत अधिक मजबूत नहीं है। फिर भी, जबकि दुनिया के नेता नदी संरक्षण को मजबूत करने की अनिवार्यता के लिए अक्सर बयानबाजी करते रहते हैं, लेकिन उनकी इन बातों पर उनके द्वारा ही अमल शायद ही कभी हो पाता है, यानी कि नहीं होता है।
इसके विपरीत, कुछ देशों में संरक्षण वाले नियमों को खत्म किया जा रहा है। अमेरिका में लगभग आधी नदियों और जलधाराओं को जैविक स्थिति के मामले में सबसे खराब माना जाता है। फिर भी पिछले अक्तूबर में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन ने ‘वाटर्स ऑफ द यूएस’ कानून को निरस्त कर दिया। यह कानून उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा द्वारा जलधाराओं, दलदली भूमि और पानी के अन्य निकायों के प्रदूषण को सीमित करने के लिए लाया गया था। पिछले महीने ट्रंप प्रशासन ने इस कानून को एक बहुत ही कमजोर संस्करण में बदल दिया, जिसे ‘नेविगेबल वॉटर प्रोटेक्शन रूल’ कहा जाता है।
इसी तरह, ब्राजील के राष्ट्रपति जेर बोल्सोनारो ने आर्थिक विकास के नाम पर पर्यावरण नियमों में ढील दे दी है। अमेजन नदी का भी इसी तरह भारी नुकसान हो रहा है। अमेजन नदी पानी के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी नदी है, जो दस सबसे बड़ी नदियों की सम्मिलित तुलना में अधिक पानी बहाती है। ब्राजील में पहले से ही अमेजन के जलग्रहण क्षेत्र में पूरे कांगो के क्षेत्रफल से भी बड़े क्षेत्र में जंगल विलुप्त हो चुके हैं। कांगों दुनिया के देशों में क्षेत्रफल के मामले में 11वां सबसे बड़ा देश है।
बहुराष्ट्रीय नदी घाटियों में पानी के बंटवारे या कोई सहकारी-प्रबंधन व्यवस्था न होने से ऐसे विनाश अवश्यंभावी और सहज हो जाते हैं। कई देश अपनी सीमा-पार देशों या पर्यावरणीय प्रभावों की परवाह किए बिना परियोजनाओं को आगे बढ़ाते रहते हैं।
नष्ट होने से अपेक्षाकृत बची हुई नदी प्रणालियों की रक्षा करने का एक तरीका है। इन्हें अमूर, कांगो और साल्विन की तरह 1972 के विश्व विरासत कंवेशन में रखा जाए और इनके कार्यान्वयन को व्यापक बनाने के लिए इन नदियों को विश्व धरोहर सूची में शामिल करने के लिए यूनेस्को के राष्ट्रीय धरोहर स्थलों की सूची में जोड़ा जाए। ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, कोलंबिया, भारत और न्यूजीलैंड जैसे कुछ देशों ने हाल में ही नदियों और जलक्षेत्रों को कानूनी अधिकार प्रदान करने के लिए प्रयास शुरू किए हैं। यह इसी प्रयासों के अनुरूप होगा। इस तरह की पहल को आगे बढ़ाने के लिए और काम करने की जरूरत होगी। हालांकि, प्रभावी कानूनी प्रावधान करने भी आवश्यक होंगे।
जो नदियां पहले से ही क्षतिग्रस्त हैं, उन्हें फिर से ठीक करने के लिए कार्रवाई की जानी चाहिए। इसमें पुनर्निर्मित अपशिष्ट जल के साथ नदियों और जल वाहिकाओं में कृत्रिम रूप से डालना होगा। साथ ही प्रदूषण की सफाई, नदियों को उनकी स्वाभाविक मूल धारा के साथ फिर से जोड़ना, अत्यधिक और अनुत्पादक डैमों को तोड़ देना और मीठे पानी-पारिस्थितिकी तंत्र की प्रजातियों के लिए सुरक्षा मानकों को लागू करना जरूरी होगा।
दुनिया की नदियां दूषित होने, डैम निर्माण होने और धाराओं को मोड़ देने जैसी कृत्रिम गतिविधियों से अभूतपूर्व दबाव में हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ही उन्हें बचा सकता है। लेकिन इससे पहले हमें हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के परिणामों पर भी नजर डालना चाहिए।
ब्रह्म चेलानी नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के रणनीतिक अध्ययन के प्रोफेसर हैं।